अदालत का फैसला भारतीय संस्कृति की जीत है

समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता का मुद्दा भारतीय जनजीवन में लंबे समय से चर्चा का विषय रहा है। देश की शीर्ष अदालत सुप्रीम कोर्ट ने समलैंगिक शादी को स्पेशल मैरिज ऐक्ट के तहत मान्यता देने से इनकार कर वाकई ऐतिहासिक फैसला सुनाया है। देखा जाये तो सुप्रीम कोर्ट की पांच जजों की संवैधानिक बेंच का यह फैसला भारतीय संस्कृति, भारतीय परम्पराओं, जीवनमूल्यों, संस्कारों, आदर्शों और भारतीयता की जीत है। अदालत ने समलैंगिक कपल को बच्चे गोद लेने का हक भी देने से इंकार किया है। अदालत का फैसला भारतीय जन भावनाओं एवं संस्कारों की पुष्टि भी करता है साथ ही भारतीय मूल्यों, संस्कृति एवं आदर्शों को धुंधलाने एवं आहत करने वाली विदेशी ताकतों को चेताता है जो कि भारत का सामाजिक एवं पारिवारिक चरित्र बिगाड़ने की साजिश रच रहे हैं। निश्चित ही अदालत का यह सराहनीय फैसला भारत की अतीत से चली आ रही विवाह परम्परा एवं संस्कृति को जीवंत रखने एवं मजबूती देने का अनूठा उपक्रम है।

कोर्ट ने यह साफ कर दिया है कि कोर्ट कानून नहीं बना सकता, उनकी व्याख्या कर सकता है। स्पेशल मैरिज ऐक्ट में बदलाव करना संसद का काम है। निश्चित ही सुप्रीम कोर्ट की यह टिप्पणी गौर करने योग्य है। सम्मानित एवं विद्वान न्यायमूर्तियों ने यह स्वीकार किया है कि समलैंगिक सम्बन्ध रखने वाले व्यक्तियों के एक नागरिक के नाते जो अधिकार हैं वे उन्हें मिलने चाहिए और सामाजिक क्षेत्र में अन्य नागरिकों की तरह उन्हें भी बराबर के मौलिक अधिकार दिये जाने चाहिए परन्तु जहां तक उनके आपस में ही शादी करने का मामला है तो यह विषय संसद में बैठे जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों को देखना चाहिए। वैसे जो लोग समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता दिये जाने के पक्ष में खड़े थे या अब भी खड़े हैं उन्हें समझना चाहिए कि हिंदू धर्म में शादी के गहरे अर्थ है, विवाह, जिसे शादी भी कहा जाता है, दो विपरीत लिंगी लोगों के बीच एक सामाजिक या धार्मिक मान्यता प्राप्त मिलन है जो उन लोगों के बीच, साथ ही उनके और किसी भी परिणामी जैविक या दत्तक बच्चों तथा समधियों के बीच अधिकारों और दायित्वों को स्थापित करता है।

विवाह मानव-समाज की अत्यंत महत्वपूर्ण प्रथा या समाजशास्त्रीय संस्था है। यह समाज का निर्माण करने वाली सबसे छोटी इकाई- परिवार-का मूल है। यह मानव प्रजाति के सातत्य को बनाए रखने का प्रधान जीवशास्त्री माध्यम भी है। शादी केवल यौन सुख भोगने का एक अवसर नहीं बल्कि वंश परम्परा को आगे बढ़ाने का माध्यम है। भारतीय परम्परा एवं संस्कृति में विवाह द्वारा शारीरिक संबंधों को संयमित रखने, संतति निर्माण करने, उनका उचित पोषण करने, वंश परंपरा को आगे बढ़ाने और अपनी संतति को समाज के लिए उपयोगी नागरिक बनाने जैसे जिम्मेदारी भरे कार्य भी किये जाते हैं। जबकि समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता मिल जाने का अर्थ होगा प्राचीन उच्च एवं आदर्श मूल्यों पर कुठाराघात करना।

पश्चिमी देशों से आंधी की तरह देश में प्रवेश कर ही इस तरह की परम्पराओं को लेकर आम जनता में समर्थन बढ़ना कोई आश्चर्य की बात नहीं है, इसलिये वस्तुतः देश में समलैंगिक विवाह को लेकर दो तरह की धारणाएं रही हैं। देश में एक बड़ा वर्ग इसे कानूनी और सामाजिक-धार्मिक स्तर पर मान्यता देने का विरोधी रहा है। वह इसलिए भी कि भारतीय समाज में इस तरह की स्वच्छंद, उच्छृंखल एवं स्वैच्छाचारी जीवन शैली की अनुमति कहीं नहीं है। वैसे भी कानून बनाने की जहां भी बात आती है वहां यह अपेक्षा जरूर रहनी चाहिए कि संस्कृति व परम्पराओं की अनदेखी नहीं हो। हां, गिने-चुने लोग समलैंगिक विवाह को कानूनी मान्यता देने के पक्षधर भी हो सकते हैं।

अब अदालत ने यह मुद्दा संसद के हवाले कर दिया है, लेकिन अहम सवाल यह भी है कि क्या संसद इस दिशा में अपनी तरफ से पहल करके ऐसा कोई कानून बनाएगी? संसद को व्यापक परिवेश में भारतीय परम्परा एवं सांस्कृतिक मूल्यों को देखते हुए आगे का रास्ता बनाना चाहिए। मौजूदा सरकार का इस सवाल पर दिखा रुख आशान्वित कर रहा है क्योंकि सरकार का तर्क है कि समलैंगिक विवाह को इसलिए मान्यता नहीं दी जा सकती, क्योंकि कानून में पति और पत्नी की परिभाषा जैविक तौर पर दी गई है। उसी के मुताबिक दोनों के कानूनी अधिकार भी हैं। समलैंगिक विवाहों को कानूनी मान्यता देने से गोद लेने, तलाक, भरण-पोषण, विरासत आदि से संबंधित मुद्दों में बहुत सारी जटिलताएं पैदा होंगी। इन मामलों से संबंधित सभी वैधानिक प्रावधान पुरुष और महिला के बीच विवाह पर आधारित हैं। पुरातन और आधुनिक सोच में फंसे इस जटिल विषय पर कानूनी मान्यता को लेकर निर्णय लेने की जिम्मेदारी अब देश की विधायिका के कंधों पर है। उम्मीद की जा सकती है कि इस पर कोई भी कानून बनाने से पहले जनभावनाओं और सामाजिक-धार्मिक मान्यताओं का खास ध्यान रखा जाएगा।

भारत विविधता में एकता वाला देश है, लगभग सभी धर्म एवं सम्प्रदायों में समलैंगिक विवाहों को लेकर विरोध ही है। हाल ही में सिख समुदाय में ऐसे स्पष्ट स्वर सुनने को मिले हैं। अकाल तख्त जत्थेदार ज्ञानी रघबीर सिंह ने कहा कि सिख सिद्धांतों के तहत समलैंगिक विवाह के लिए कोई जगह नहीं है। अकाल तख्त ने पिछले महीने बठिंडा गुरुद्वारे में समलैंगिक विवाह कराने के बाद वहां के पुजारियों को धार्मिक सेवाएं करने से अयोग्य घोषित कर दिया है। सुप्रीम कोर्ट द्वारा अपना फैसला सुनाए जाने से एक दिन पहले अमृतसर में ‘पंज सिंह साहिबान’ (पांच सिख पादरी) की एक बैठक के बाद, सिखों की सर्वाेच्च लौकिक संस्था, अकाल तख्त के जत्थेदार ने इस फैसले की घोषणा की थी।

भले ही समलैंगिक यौन सम्बन्ध बनाने को सर्वोच्च न्यायालय 2018 में ही गैर आपराधिक कृत्य करार दे चुका है। इसी से प्रेरित होकर समलैंगिक समर्थक कई संगठनों ने सर्वोच्च न्यायालय में उनके विवाह को भी वैध करार देने की याचिका दायर की थी जिसका विरोध केन्द्र सरकार ने किया था। भला एक स्त्री का दूसरी स्त्री से, एक पुरुष का दूसरे पुरुष से विवाह कैसे परिपूर्ण माना जा सकता है? यह विवाह नहीं, एक आपसी संबंध भले ही हो, लेकिन इसे विवाह की मान्यता एवं सारे अधिकार कैसे दिये जा सकते हैं? इसलिये भारत की सामाजिक संरचना को देखते हुए यदि केन्द्र सरकार ने समलैंगिक शादी को मान्यता देने का विरोध किया तो उसे किसी भी तरह गलत नहीं ठहराया जा सकता।

भले ही भारत में ही प्राचीन काल में भी ऐसे उदाहरण मिले हो या धार्मिक ग्रन्थों में कई ऐसे उदाहरणों का उल्लेख हो, जो समलैंगिक सम्बन्धों की तरफ इशारा करते हैं परन्तु भारतीय समाज ने हमेशा ही ऐसे सम्बन्धों को प्रकृति के विरुद्ध यौन सम्बन्ध माना है और सामाजिक विकार की श्रेणी में रखा है। स्त्री और पुरुष का यौन सम्बन्ध ही प्रकृति को गतिशील रखते हैं। घर और कुटुम्ब का मतलब ही स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों से उत्पन्न फल का ही विस्तृत स्वरूप होता है। स्त्री-पुरुष सम्बन्ध ही प्यार या मोहब्बत की महायात्रा है और इन दोनों के यौन संबंधों से उत्पन्न संतान ही परिवार एवं वंश को आगे बढ़ाने का आधार है।

स्त्री-पुरुष सम्बन्ध किसी धार्मिक मान्यता के मोहताज नहीं हैं बल्कि वे व्यक्ति की स्वयं की वैज्ञानिक आवश्यकता है। नवसृजन के लिये विपरीत लिंग का मिलन ही प्रकृति है, अन्यथा विकृति है। हम अंधानुकरण के नाम पर अपनी संस्कृति एवं परम्परा को नहीं लाघ सकते। भले ही समय बदल रहा हो, परम्पराओं में भी अमूल-चूल-परिवर्तन हो रहा हो और मानवीय सम्बन्धों की नयी परिभाषाएं गढ़ी जा रही हो, भारत में भी लिव-इन रिलेशनशिप के रूप में बिना शादी के दो वयस्क स्त्री-पुरुष को साथ रहने की इजाजत मिली हो।

अतः एक ही लिंग के यदि दो व्यक्ति साथ रहना चाहते हैं तो उनकी निजता का सम्मान करते हुए इसकी इजाजत समाज दे सकता है और उनके नागरिक अधिकारों का संरक्षण भी किया जा सकता है। लेकिन जहां तक विशेष विवाह अधिनियम (स्पेशल मैरिज एक्ट) का सवाल है वह केवल दो विपरीत लिंग के लोगों के बीच ही हो सकता है। इसमें संशोधन करने का मतलब होगा विवाह की शर्तों को बदल देने के साथ ही परिवार की परिकल्पना को ध्वस्त कर देना।

ललित गर्ग
ललित गर्ग

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