16 अक्टूबर शरद पूर्णिमा के अवसर पर-
शरद पूर्णिमा का पर्व युगों युगों से मनाया जाता है। इस उत्सव का हर युग में अपना एक अलग महत्व रहा है। इस उत्सव से शीत ऋतु का आगमन होता है, वंही वर्षा ऋतु की विदाई हो जाती है। कुवार माह के अंतिम तिथि और कार्तिक माह के प्रथम काल में दो ऋतुओं की संधिवेला में मनाये जाने वाले इस पर्व की कई मायनों में विशिष्टता है। आज के कलियुग में शरद पूर्णिमा की रात्रि को ऐसा माना जाता है कि चंद्रदेवता अमृत रुपी ओस की बूंदों से हम सभी धरती वासियों को अभिसिक्त करते हैं। समस्त चरावर जगत को स्वास्थ्य और दीर्घायु का आशिर्वाद प्रदान करते हैं। इसी मान्यता की परम्परा में प्रायः लोग रात्रि को खीर बनाकर खुले आकाश के नीचे शरद पूर्णिमा की रात्रि को रख देते हैं। और दूसरे दिन प्रातः होने पर उसे सभी लोगों के साथ मिलबांटकर प्रसाद रूप में ग्रहण करते हैं। यह खीर चिकित्सकीय मत के अनुसार बहुत आरोग्यवर्धक माना गया है। तभी तो कई स्थानों में वैद्य और चिकित्सक इस रात्रि को अपने चिकित्सा कार्य को करते हैं और अपने रोगीजनों को दवा खिलाकर उन्हें स्वस्थ्य करते हैं। शरद पूर्णिमा विश्व में कई देशों द्वारा अलग-अलग रूप एवं नाम से बड़े धूमधाम से मनाया जाता है। हालांकि यह प्राचीनतम और खास कर हिंदुओं का पर्व है। इस पर्व को मनाने के पीछे कई पौराणिक प्रसंग है। इन प्रसंगों की सबसे बड़ी खासियत यह है कि वह सभी प्रसंग प्रत्येक युग से भी संबंधित हैं। जैसे पहले सतयुग दूसरा त्रेता युग तीसरा द्वापर युग और अंतिम और चतुर्थ है कलयुग। इन चारों युगों में शरद पूर्णिमा का व्रत बड़े उत्साह और अपनी अलग मान्यताओं के साथ मनाया जाता रहा है। चारों युग के पर्वों का, पर्व बनाने के पीछे माने जाने वाली मान्यताएं इस प्रकार है।
पहला सतयुग में समुद्र मंथन
सतयुग काल में देव और इस दानवों ने मिलकर मंदराचल पर्वत और वाशुकि नाग के माध्यम से समुद्र का मंचन किंया था। इस मंथन के पहले देव और दानवों में यह मंत्रणा हुई थी कि मंथन के दौरान जो कुछ भी प्राप्त होगा, वह सभी मिलकर बांटेगें। इस मंथन से चौदह रत्न निकले, और सबसे अंत में अमृतकलश प्राप्त हुआ था। और जैसा कि पूर्व निर्धारित था इसे सभी देवताओं के बीच वितरित करने का निर्णय लिया गया था। पर भगवान विष्णु ने विश्व मोहिनी रूप में आकर अमृत बांटने की. जिम्मेदारी लेते हुये पूरे अमृत को देवों को पिलाया और दानवों को चालाकी से सोमरस पिला दिया था। मंथन में पूरे विश्व को विषमय बना देने वाला भयंकर विष भी प्राप्त हुआ था जिसे पूरे लोकों की रक्षार्थ भगवान शंकर ने धारण किया था। तभी से उनका नाम नीलकंठ पड़ गया। अमृत का वितरण आज के दिन अर्थात शरद पूर्णिमा को ही किया गया था। अतः पृथ्वीवासी आज भी उसी स्मृति में रात्रि को आकाश में अमृत की वर्षा को पूरे विश्वास से मान्यता देते हैं।
दूसरा त्रेतायुग में भगवान राम का लंका विजयोत्सव
सीता हरण की परिणिति के रुप में राम रावण के बीच युद्ध अवश्यंभावी था। अंततः महायुद्ध हुआ जिसमें लंका के परम बलशाली राजा रावण की पराजय हुई। राम ने रावण का अंत कर युद्ध में विजय प्राप्त की। राम ने विजयादशमी अर्थात कुवांर माह के शुक्ल पक्ष की दशमी को लंका पर विजय प्राप्त किया था। और विजयोत्सव मनाया। वहीं इसके ठीक पांचवे दिन अर्थात शरद पूर्णिमा के दिन लक्ष्मण के नेतृत्व में भी बहुत भव्य उत्सव लंका में भी मनाया गया लंका पर विजय प्राप्त करने की खुशी में राम ने आयोध्या लौटकर अपनी सेना और अयोध्या वासियों के साथ विजयोत्सव मनाया वहीं इसी दिन लंका में भी भीषण एवं राम के अनुज भ्राता लक्ष्मण के नेतृत्व में भी बहुत भव्य उत्सव मनाया गया। यही पर्व आज भी शरद पूर्णिमा के रूप में मनाया जाता है।
तीसरा द्वापर युग में श्रीकृष्ण की महारासलीला
भगवान कृष्ण की सोलह हजार एक सौ आठ पत्नियां थी। और इतनी अधिक पत्नियों होने के कारण तो स्वाभाविक था कि कृष्ण किसी भी पत्नी को यथोचित समय नहीं दे सकते थे। भगवान ने तो कई रानियों को देखा भी नहीं था। यही कारण था कि उनकी -पत्निकों को कृष्ण से बहुत शिकायत थी। उधर कृष्ण जी की बालसखा प्रेमिका राधा का उत्कट प्रेम भी कृष्ण को खींच रहा था। अंततः सभी समस्याओं का समाधान निकालने के लिये भगवान कृष्ण ने शरद पूर्णिमा की रात्रि को ही महारासलीला रचाई थी। इस महारासलीला में कृष्ण जी के साथ उनकी सभी पत्नियों ने भाग लिया। राधा के संग इसी रात्रि को उनका प्रथम मिलन माना जाता है। कृष्ण की रासलीला में उनकी रानियां इतनी निमग्न हो गई थीं कि पूरी – रात्रिकाल को यह रासलीला चलती रही और उन्हें कब प्रातः हो गई इसका पता भी नहीं चल पाया।