अमरकृति और बतासा: मनुष्य में परम्परागत रूप से पायी जाने वाली विसंगतियों, विडम्बनाओं एवं विकृतियों पर कटाक्ष

प्रायः कहा जाता है, ‘व्यंग्य’ समय-सापेक्ष होता है। आज जो रचना ‘जबर्दस्त कटाक्ष’ मानी जाएगी, कल परिस्थिति बदलते ही वह ‘दंगा हुआ कारतूस’ साबित हो जाएगी। लेकिन ऐसा उन रचनाओं की साथ होता है जो व्यत्तिफ़-परक या सामयिक विषयों पर लिऽी होती हैं। भगवान वैद्य ‘प्रखर’ की 4 व्यंग्य-संग्रहों में संकलित तीन-सौ से अधिक रचनाओं में से व्यंग्य-संग्रह ‘अमरकृति और बतासा’ के माध्यम से प्रस्तुत 51 रचनाएँ मनुष्य में परम्परागत रूप से पायी जाने वाली विसंगतियों, विडम्बनाओं एवं विकृतियों पर कटाक्ष हैं। इस कारण विश्वास है कि ये रचनाएँ ‘सदाबहार’ बनी रहेंगी। भगवान वैद्य ‘प्रखर’ विगत 52 वर्षाे से हिंदी में लेऽन और व्यंग्य, कहानी, कविता, लघुकथा, आत्मकथा विधाओं में 12 पुस्तकें, 6 पुस्तकों एवं 40 कहानियों का मराठी से हिंदी में अनुवाद। 4 राष्ट्रीय तथा 5 म-रा- हिंदी साहित्य अकादेमी पुरस्कारों इत्यादि से सम्मानित- रचनाओं का अनेक भाषाओं में अनुवाद प्रकाशित।

पहली व्यंग्य-रचना ‘पुरुष मुत्तिफ़ आंदोलन’ दिनांक 7 जून 1973 को ‘युवक’ में प्रकाशित हुई थी। प्रकाशित होने वाली पहली पुस्तक व्यंग्य-संग्रह ही थी, ‘बिना रीढ़ के लोग।’ वर्ष 1986 में, अमर पब्लिशिंग हाऊस, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई। केंद्रीय हिंदी निदेशालय, भारत सरकार, नई दिल्ली द्वारा वर्ष 1986-87 के ‘हिंदीतर-भाषी हिंदी लेखक पुरस्कार’ से सम्मानित की गयी। पुरस्कार समारोह में व्यासपीठ से बोलते हुए माननीय प्रभाकर जी माचवे ने कहा था, ‘मुझे बिना रीढ़ के लोग’ पढ़ने में अधिक समय नहीं लगा क्योंकि उसकी अधिकांश रचनाएं मैं पत्र-पत्रिकाओं में पहले ही पढ़ चुका था।’ 

भगवान वैद्य का कहना है कि अपना एक अनुभव यहाँ बयान करना चाहता हूँ। ‘ऽामोश, स्थिति नियंत्रण में है’ शीर्षक से एक व्यंग्य-रचना धर्मयुग में स्वीकृत हुई। दिनांक 6 जनवरी 1987 का स्वीकृति पत्र मिला। लेकिन देश में राजनीतिक घटनाक्रम तेजी से बदल गया। नतीजतन दिनांक 10 मार्च 1987 को एक पत्र के साथ रचना वापिस आ गयी। लिख था, ‘क्षमा करें, हम आपकी रचना वापिस कर रहे हैं। चूँकि इसमें उल्लििखत कुछ घटनाक्रम बदल चुका है इसलिए ‘पूर्व-स्वीकृति’ के बावजूद इसे प्रकाशित करना संभव नहीं है।’

लेकिन ऐसा उन रचनाओं के साथ होता है जो व्यत्तिफ़-परक या सामयिक विषयों पर लिखऽी होती हैं। मैंने ऐसी रचनाएँ बहुत कम लिखऽी हैं। मेरी अधिकतर रचनाएँ मनुष्य में परंपरागत रूप से पायी जानेवाली विसंगतियों, विडंबनाओं एवं विकृतियों पर कटाक्ष हैं। इस कारण वे लंबा समय व्यतीत हो जाने के बावजूद ताजातरीन बनी हुई हैं।

साहित्य-क्षेत्र में मेरा पदार्पण कवि के रूप में हुआ लेकिन शीघ्र ही मेरी पहचान व्यंग्यकार के रूप में स्थापित हो गयी। तत्कालीन परिस्थितियाँ, मेरे अनुभव, मेरी अनुभूति और मेरा स्वभाव व्यंग्य-लेखन के लिए अनुकूल साबित हुए। भारत भर की प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएँ प्रकाशित होने लगीं। मंचों पर भी व्यंग्य-कविता के साथ-साथ गद्य में व्यंग्य-पाठ करता रहा। पाठकों की सकारात्मक प्रतिक्रियाएँ प्राप्त होने लगीं। इनसे प्रोत्साहन मिला और प्रतिष्ठा भी। कुछ वर्षों बाद, मैं कहानी की ओर आकर्षित हुआ। दो संग्रहों को महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार से सम्मानित किया गया। कविताएँ साथ-साथ चल ही रही थीं। दो काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए। उनमें से एक, ‘अंतस का आदमी’ को म- रा- हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा संत नामदेव पुरस्कार प्रदान किया गया। लघुकथाएँ ‘कभी-कभार’ उपजती थीं, कागज के मेरे ऽेत में। वे बढ़ती गयीं। प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में स्थान पाने लगीं। अब तक हजारों हजार बीज और बोनसाई शीर्षक से दो लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हो गये हैं और तीसरे की तैयारी चल रही है। इस बीच लघुकथा संग्रह बोनसाई को किताबघर प्रकाशन का राष्ट्रीय ‘आर्य स्मृति साहित्य सम्मान 2018’ प्राप्त हुआ तो लघुकथा और गतिशील हो गयी। मौलिक साहित्य- सृजन के इस पचास साल से अधिक के लंबे सफर में, किसी समय ‘अनुवाद-कार्य’ साथ हो लिया। छह पुस्तकें और प्रतिष्ठित लेऽकों की चुनी हुईं चालीस से अधिक कहानियाँ मराठी से हिंदी में अनूदित होकर प्रकाशित हो गयीं। म- रा- हिंदी साहित्य अकादमी, मुंबई ने अनुवाद के लिए दिया जानेवाला ‘मामा वरेरकर पुरस्कार’ प्रदान करके सम्मानित किया। 

 कहना न होगा, इस सफर में व्यंग्य पीछे छूट गया। या कहूँ, मैं अन्य विधाओं से गुफ्रत-गू करता रहा और व्यंग्य-विधा आगे बढ़ गयी! डायमण्ड बुक्स द्वारा प्रकाशित बुक ‘अमरकृति और बतासा’ का विचार मन में आते ही पूरी व्यंग्य-रचनाएँ पुनः एक बार पढ़ीं तो व्यंग्य-रचनाओं के कितने ही पाठक याद आये। सोचा, क्यों न उन्हें अपनी चुनी हुईं, सदाबहार व्यंग्य-रचनाएँ उपलब्ध कराई जाएं! ‘डायमंड-बुक्स’ से फोन पर बात हुई। वहाँ से जो प्रोत्साहन मिला उसी का प्रतिफल है, यह व्यंग्य-संग्रह। विश्वास है, व्यंग्य-प्रेमी, सुधी पाठक इसे अवश्य पसंद करेंगे।

संक्षिप्त-परिचय

भगवान वैद्य ’प्रखर’ 

प्रकाशन ः 4 व्यंग्य- संग्रह, 3 कहानी-संग्रह, 2 कविता-संग्रह, 2 लघुकथा-संग्रह ,1- रुको नहीं पथिक (आत्मकथा) और मराठी से हिंदी में 6 पुस्तकें तथा 40 कहानियां, कुछ लेऽ, कविताओं का अनुवाद प्रकाशित। हिंदी की राष्ट्रीय-स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में विविध विधाओं की 1000 से अधिक रचनाएँ प्रकाशित।  आकाशवाणी से छह नाटक तथा अनेक रचनाएँ प्रसारित।  

प्रमुऽ पुरस्कार-सम्मान ः भारत सरकार द्वारा ‘हिंदीतर-भाषी हिंदी लेऽक राष्ट्रीय पुरस्कार’, महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी, मुंबई द्वारा  कहानी-संग्रहों पर 2 बार ‘मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार’, काव्य-संग्रह के लिए ‘संत नामदेव पुरस्कार’, अनुवाद के लिए ‘मामा वरेरकर पुरस्कार’, डॉ- राम मनोहर त्रिपाठी फेलोशिप राष्ट्रीय हिंदी-सेवी सहस्राब्दी सम्मान 2000 किताब घर, नई दिल्ली द्वारा लघुकथा के लिए ‘राष्ट्रीय आर्य स्मृति साहित्य सम्मान 2018’ राष्ट्रीय आचार्य आनंद ऋषि साहित्य सम्मान 2021। उमेश कुमार सिंह

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