जलवायु परिवर्तन एवं बढ़ते तापमान के दुष्प्रभाव से यों तो सभी पीड़ित, परेशान और आशंकित हैं, पर इसके प्रभाव से दुनियाभर में संक्रामक बीमारियों में लाखों लोग आये हैं। विशेषज्ञों ने बढ़ते तापमान के साथ गंभीर बीमारियों के बढ़ने की चेतावनी जारी की है। इस बढ़ते तापमान से कृषि पर दुष्प्रभाव पड़ रहा है, विकासशील एवं अत्यंत पिछड़े राष्ट्रों में महिलाएं, पुरुषों की अपेक्षा कहीं अधिक आहत हो रही हैं। एक अनुमान के अनुसार, विकासशील देशों की डेढ़ अरब गरीब, आर्थिक रूप से वंचित, निर्णायक भूमिका विहीन, संसाधनों की पहुंच से दूर महिलाएं अपनी परम्परागत भूमिकाओं, सामाजिक अपेक्षाओं और आजीविका के मौजूदा विकल्पों के रहते जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों की अधिक मार झेल रही हैं। दुबई में सम्पन्न कॉप-28 की मीटिंगों में इन विषयों पर गंभीर चर्चाएं हुई है।
संभवतः पिछले तीस वर्षों में जलवायु परिवर्तन की बैठकों इतनी सार्थक चर्चाएं नहीं हुई है। इस बार भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की कहीं बातों एवं सुझावों को प्राथमिकता मिलना, इस जटिल होती समस्या के समाधान में महत्वपूर्ण भूमिका निभायेगा। कॉप-28 जलवायु सम्मेलन यूएई सर्वसम्मति मसौदे के साथ दुबई में संपन्न हुआ, जिसमें जीवाश्म ईंधन से उचित परिवर्तन की वकालत की गई और जलवायु संकट से निपटने के लिए अतिरिक्त जलवायु वित्तपोषण प्रतिबद्धताओं की पेशकश की गई। हालाँकि जितनी विकराल समस्या है उसे देखते हुए जलवायु परिवर्तन के राक्षसों को नियंत्रित करने के लिए अभी व्यापक प्रयत्नों एवं संकल्पों से आगे बढ़ने एवं कठोर निर्णय लेकर उनकी क्रियान्विति आवश्यक है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने चेतावनी देते हुए कहा है कि जलवायु संकट से लोग बीमार हो रहे हैं और यह जीवन को खतरे में डाल रहा है। इन महत्वपूर्ण कॉप वार्ताओं में स्वास्थ्य चर्चा के केंद्र में होना चाहिए। डब्ल्यूएचओ का मानना है कि सम्मेलन को जलवायु संकट से निपटने के लिए शमन, अनुकूलन, वित्तपोषण और सहयोग के चार प्रमुख लक्ष्यों के साथ आगे बढ़ना चाहिए। हमारा ध्यान जलवायु संकट से स्वास्थ्य को होने वाले खतरे एवं जलवायु कार्रवाई से होने वाले स्वास्थ्य लाभ पर केन्द्रित होना चाहिए। जलवायु परिवर्तन पहले से ही लोगों के स्वास्थ्य को प्रभावित कर रहा है और जब तक तत्काल कार्रवाई नहीं की जाएगी, तब तक यह तेजी से बढ़ता रहेगा।
डब्ल्यूएचओ के महानिदेशक डॉ टेड्रोस अदनोम घेब्रेयसस ने कहा कि जलवायु परिवर्तन दुनिया भर में लाखों लोगों को बीमार या बीमारी के प्रति अधिक असरदार बना रहा है। बढ़ते तापमान की घटनाओं की बढ़ती विनाशकारिता गरीब और हाशिए पर रहने वाले लोगों को असमान रूप से प्रभावित करते हैं। कुपोषित व स्वास्थ्य सेवाओं से वंचित महिलाओं में जलवायु परिवर्तन के कारण मलेरिया, हैजा-दस्त, डेंगू जैसे रोगों की आशंका कहीं अधिक रहती है। यह महत्वपूर्ण है कि बातचीत के केंद्र में स्वास्थ्य को रखने के लिए नेता और निर्णय निर्माता कॉप 28 में एक साथ आएं।
हमारा स्वास्थ्य हमारे आस-पास के पारिस्थितिकी तंत्र के स्वास्थ्य पर निर्भर करता है, ये पारिस्थितिकी तंत्र अब वनों को काटे जाने, कृषि और भूमि उपयोग में बदलाव, बढ़ते प्लास्टिक प्रयोग तथा तेजी से हो रहे शहरी विकास के चलते खतरे में हैं। जानवरों के आवासों में अतिक्रमण अब मनुष्यों के लिए हानिकारक विषाणुओं संक्रमण के अवसरों को बढ़ा रहा है। 2030 से 2050 के बीच, जलवायु परिवर्तन से कुपोषण, मलेरिया, डायरिया और गर्मी के तनाव से हर साल लगभग ढाई लाख अतिरिक्त मौतें हो सकती हैं। वर्तमान जनसंख्या वृद्धि और जलवायु परिवर्तन के परिप्रेक्ष्य में कृषि उत्पादकता पहले से कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण हो गई है। मौसम में बदलाव की अल्पकालिक घटनाओं तथा दीर्घकालिक जलवायु परिवर्तन के प्रभाव के कारण धान, मक्का और गेहूं की पैदावार प्रभावित हो रही है और पाया गया कि तापमान का नकारात्मक प्रभाव लम्बे समय की तुलना में अल्पावधि में अधिक होता है। जलवायु परिवर्तन और मौसम में बदलाव की बार-बार हो रही चरम घटनाएं फसल की पैदावार पर कहर बरपा रही हैं और किसानों को अपनी फसलों के नुकसान को सीमित करने के अनुकूल उपाय करने के लिए मजबूर कर रही हैं।
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को सीमित और नियंत्रित करने के लिए जरूरी है कि भारत दर्शन एवं संस्कृति में इसका समाधान खोजें। भारतीय परम्परा एवं धार्मिक कृत्यों ऐसे-ऐसे विधि-विधान एवं प्रावधान है जो जलवायु संकट से मुक्ति दिलाने में सक्षम है। भारत में धार्मिक कृत्यों में वृक्ष पूजा का महत्व मिलता है। पीपल को पूज्य मानकर उसे अटल सुहाग से सम्बद्ध किया गया है, भोजन में तुलसी का भोग पवित्र माना गया है, जो कई रोगों की रामबाण औषधि है। बिल्व वृक्ष को भगवान शंकर से जोड़ा गया और ढाक, पलाश, दूर्वा एवं कुश जैसी वनस्पतियों को नवग्रह पूजा आदि धार्मिक कृत्यों से जोड़ा गया। पूजा के कलश में सप्तनदियों का जल एवं सप्तभृत्तिका का पूजन करना व्यक्ति-व्यक्ति में नदी व भूमि को पवित्र बनाए रखने की भावना का संचार करता था। सिंधु सभ्यता की मोहरों पर पशुओं एवं वृक्षों का अंकन, सम्राटों द्वारा अपने राजचिन्ह के रूप में वृक्षों एवं पशुओं को स्थान देना, गुप्त सम्राटों द्वारा बाज को पूज्य मानना, मार्गों में वृक्ष लगवाना, कुएं खुदवाना, दूसरे प्रदेशों से वृक्ष मंगवाना आदि तात्कालिक प्रयास पर्यावरण प्रेम को ही प्रदर्शित करते हैं।
‘पानी और प्रेम को खरीदा नहीं जा सकता’ जैसी कहावत हमारे यहां प्रचलित रही है। ‘रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून’ जहाँ इस उक्ति में पानी इज्जत और मान मर्यादा का प्रतीक बन पड़ा है, वही आज के इस पर्यावरणीय संकट में पानी के शाब्दिक अर्थ को ही बचा पाए तो हम रहीम के दोहे के साथ न्याय कर पाएंगे। यह तो केवल एक बानगी है जलवायु परिवर्तन एवं बढ़ते तापमान से हो रहे प्रकृति के विनाश के प्रति चिंता की।
जलवायु परिवर्तन एवं बढ़ते तापमान के लिये बढ़ता प्लास्टिक का प्रचलन भी बड़ा कारण है। वैज्ञानिकों ने कहा है कि प्लास्टिक प्रदूषण बहुत बड़ी समस्या है। किंतु माइक्रो प्लास्टिक की समस्या तो उससे भी कहीं ज्यादा भयानक समस्या बनती जा रही है। माइक्रो प्लास्टिक से विश्व भर के महासमुद्रों में पैदा हो रहा प्रदूषण आने वाले समय में बहुत विकट समस्या साबित होगा। यह समस्या इतनी विकट-विकराल होगी, जो सदियों तक मानव जीवन को प्रभावित करती रहेगी। विश्व की आबादी प्रतिवर्ष लगभग अपने वजन बराबर प्लास्टिक उत्पन्न करती है। प्रतिष्ठित अमेरिकी जर्नल साइंस में प्रकाशित वर्ष 2015 के एक वैश्विक अध्ययन के मुताबिक दुनिया के 192 समुद्र तटीय देशों में तकरीबन साढ़े सत्ताईस करोड़ टन प्लास्टिक कचरे का उत्पादन हुआ, जिसमें से बड़ी मात्रा में प्लास्टिक कचरा महासमुद्रों में प्रविष्ट हो गया।
केन्द्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के आकलन अनुसार प्रतिवर्ष प्रत्येक भारतीय तकरीबन आठ किलोग्राम प्लास्टिक का उपयोग करता है। इसका निष्कर्ष यही हुआ कि भारत में प्रति वर्ष तकरीबन एक सौ लाख टन प्लास्टिक का उपयोग किया जाता है। प्लास्टिक की थैलियां हमारे रोजमर्रा के जीवन की जरूरत और सुविधा दोनों ही बनती जा रही है क्योंकि ये थैलियों आकर्षक, सस्ती, मजबूत और हल्की होती है। लेकिन ये ही प्लास्टिक थैलियों जल, जमीन, जंगल के लिए हद दर्जे तक हानिकारक साबित हो रही है। जल में रहने वाले समुद्री जीवों पृथ्वी पर रहने वाले मनुष्यों और मवेशियों सहित वन्यजीवन को खतरनाक ढंग से खत्म करने के लिए ये प्लास्टिक की थैलियां प्रमुखतः जिम्मेदार बनती जा रही हैं। इस तरह की समस्याओं पर भी कॉप सम्मेलनों में चर्चा होनी चाहिए।
पृथ्वी की रक्षा के लिये पर्यावरणीय प्रदूषण, अन्याय और अशुचिता के खिलाफ जनजागृति होना जरूरी है। भारतीय दर्शन, जीवन शैली, परंपराओं और प्रथाओं में प्रकृति की रक्षा करने का विज्ञान छुपा है। आवश्यकता दुनिया के सामने इसकी व्याख्या करने की है। जब तक हम भारतीय दर्शन के अनुरूप जीवनशैली नहीं अपनायेंगे तब तक ग्लोबल वार्मिंग एवं जलवायु परिवर्तन जैसी समस्या का समाधान नहीं मिलेगा। इसलिये प्रकृति की रक्षा करने वाली परंपराओं और संस्कृति को पुनर्जीवित करने की जरूरत है। विदित हो कि पर्यावरण को लेकर भारतीय ज्ञान पूरी तरह वैज्ञानिक है। हमें लालच छोड़ने, पृथ्वी को नष्ट नहीं होने देने और आवश्यकता के अनुरूप प्रकृति के संसाधनों का उपभोग करने का संकल्प लेने से ही ग्लोबल वार्मिंग का समाधान मिलेगा।