1985 में यूनिसेफ के सहयोग से प्रकाशित कृष्ण कुमार की पुस्तक ‘बच्चे की भाषा और अध्यापक एक निर्देशिका’ आज भी शिक्षकों एवं भाषा के मुद्दे पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं के लिए एक जरूरी किताब बनी हुई है। बाद में स्वतंत्र रूप से इस पुस्तक को नेशनल बुक ट्रस्ट ने 1996 में छापा। कुल पांच अध्यायों और 68 पृष्ठों की यह लघु पुस्तक अपनी अंतः सामग्री से भाषा पर काम कर रहे शिक्षकों के लिए नए रास्ते खोलती दिखाई पड़ती है। यह पुस्तक न केवल शिक्षकों के लिए बल्कि अभिभावकों एवं शिक्षक प्रशिक्षकों के लिए भी एक बेहतर मॉड्यूल का काम करती है। पुस्तक पांच अध्यायों भाषा माने क्या, बात, पढ़ना, लिखना तथा स्कूल का यथार्थ और भाषा शिक्षण में विभाजित है।
भाषा माने क्या पाठ में लेखक भाषा को केवल अभिव्यक्ति संप्रेषण का माध्यम भर नहीं मानते अपितु चीजों को महसूस करने, उनसे जुड़ने और सोचने-समझने के एक औजार के रूप में देखते हैं। बच्चों की गतिविधि और शब्द साथ-साथ चलते हैं। अनुभव को व्यक्त करने के लिए शब्दों की जरूरत पड़ती है और वह अनुभव शब्दों के रूप में जीवित रहता है। यदि कोई शब्द उनके संपर्क या गतिविधि का हिस्सा नहीं हुआ होता तो उसके अर्थ उनके लिए निरर्थक या सतही होते हैं जैसे ऊंट डाकिया, चॉक, तालाब, बाल्टी आदि। लेकिन जो शब्द उनकी गतिविधि का हिस्सा बनते हैं उन्हें वह एक बिम्ब के रूप में देखते हैं। इसलिए लेखक का मत है कि अध्यापक को ऐसा वातावरण बनाना होगा जिससे बच्चे अनुभवों को जीवन से लगातार जोड़ते रहें। एक शिक्षक के रूप में हम अपनी कक्षाओं में पाते हैं कि बच्चों के बैग में चिड़ियों के पंख, रंग-बिरंगे चिकने पत्थर, कंचे, चूड़ियां, कंगन, पेन के ढक्कन आदि भरे होते हैं, जो बच्चों के लिए गतिविधि और भाषा से जुड़ने का एक रास्ता होता है। वह उनके लिए एक विशाल दुनिया है पर शिक्षक उनसे उस दुनिया की बात न कर अनचीन्हे निरर्थक अक्षरों के साथ जोड़ने की कोशिश करता है। स्कूल आने के पूर्व से ही बच्चे शब्दों से खेलने का आनंद प्राप्त करने लगते हैं। शब्दों का बनना यहीं से शुरू होता है जैसे मगग्गा, जगग्गा, कक्का, बक्का, छक्का आदि से उपजी ध्वनि का आनंद लेते हैं। बच्चे इन शब्दों को बोलते हुए खिलौनों की भांति उपयोग करते हैं। अध्याय 2 में बच्चों के सीखने के संदर्भ में बातचीत की महत्वपूर्ण भूमिका के बारे में लेखक ने कहा है कि हमारी कक्षाओं में बात करना गलत समझा जाता है और शिक्षक यह मानते हैं कि जब बच्चे बात कर रहे होते हैं तो वह पढ़ाई नहीं कर रहे होते, इसलिए अध्यापक उन्हें रोकते हैं और पढ़ने का दबाव डालते हैं।
बातचीत के प्रति यह अनदेखी या उपेक्षा से बच्चों का सीखने का बुनियादी स्तर कमजोर होता है। होना तो यह चाहिए था कि बच्चों के विविध अनुभवों को लेकर कक्षा में बात करने के अधिकाधिक अवसर बनाये जाने चाहिए थे। बच्चे बात करते समय संबंधित वस्तु या विषय पर बहुत बारीक नजर रखते हैं। वह अपने निरीक्षणों का आदान-प्रदान भी करते हैं। इसके साथ ही वह वस्तु से संबंधित नया-पुराना, मोटा-पतला, पास-दूर, खट्टा-मीठा, कड़वा-कषैला जैसे शब्द अनुमान तुलना, स्वाद, संबंध आदि के बारे में भी बात कर रहे होते हैं। अध्यापक जब बच्चों को बात करने से रोकते हैं तो उन्हें लगता है कि उनकी बातें महत्वपूर्ण नहीं है जबकि होना चाहिए था कि हर बच्चा अनुभव करें कि वह जो कुछ अनुभव के आधार पर कक्षा में बोलने वाला है उसे न केवल सुना जाएगा बल्कि स्वीकार भी किया जाएगा। इसके लिए जरूरी है कि अध्यापक को बच्चों से उनके अपने बारे में, परिवार, पड़ोस, स्कूली अनुभव के बारे में या उनकी अपनी छोटी यात्राओं, खेत खलिहान के बारे में या तस्वीरों पर चर्चा करते हुए बात के अवसर बनाने होंगे। बच्चे कहानी सुनना भी पसंद करते हैं इसलिए कहानियों पर भी बात की जा सकती है। अध्यापक को उनके बातचीत में कमी न बताकर बोलने के लिए प्रेरित करते हुए कुछ गतिविधियां करवाते रहने चाहिए। लेखक ने ऐसी ही बहुत सारी गतिविधियां पुस्तक में दी हैं जो एक अध्यापक के लिए कक्षा कक्ष में बहुत उपयोगी हो सकती हैं।
तीसरे अध्याय पढ़ने की अगर बात करूं तो लेखक का मत है कि पढ़ना सिखाना अध्यापक के लिए सबसे बड़ी और कठिन चुनौती है। शिक्षकों के लिए बच्चों के संदर्भ में पढ़ने का स्वस्थ कौशल लिखी या छपी भाषा को अर्थ से जोड़ने, समझने या पहले से ज्ञात किसी चीज से जोड़ने से है। इसके लिए चार्ट, कार्ड, कार्टून, खेल गीत, छोटी कविताएं अच्छा साधन बनती हैं। पुस्तक में बहुत सारी छोटे कविताएं देकर शिक्षकों का काम आसान कर दिया गया है। वह कहते हैं कि शिक्षक भी छोटी किताबें बच्चों के साथ मिलकर तैयार कर सकते हैं। वर्णमाला के टुकड़े, फर्श पर नक्शा, शब्दों का टापू , पिछला-अगला शब्द या वर्ण बताने की गतिविधि कर सकते हैं। शब्दों का मिलान भी किया जा सकता है।
चौथा अध्याय लिखने के कौशल को लेकर है। वास्तव में लिखना भी एक प्रकार की बातचीत ही होती है। लिखना दरअसल अपने अनुभव और विचारों को दूसरों के समक्ष प्रकट करना या पहुंचना है। पांचवां अध्याय स्कूल की यथार्थ दुनिया में भाषा शिक्षण को लेकर है जिसमें लेखक का मत है कि स्कूल में उपलब्ध जगह को इस तरह से इस्तेमाल करना कि बच्चों के भाषा विकास के लिए अनुकूल वातावरण पैदा हो सके। यह शिक्षक की जिम्मेदारी है कि पाठ्य पुस्तक की जकड़न से बच्चों को मुक्त करें। इसके लिए परीक्षा या मूल्यांकन को लचीला करना चाहिए। भाषा शिक्षण का उद्देश्य पाठ्य पुस्तक की पढ़ाई नहीं बल्कि भाषा से जुड़े स्वस्थ कौशलों के विकास से है। किंतु अध्यापक का पूरा जोर पाठ्य पुस्तक को पूरा कर बच्चों को उत्तीर्ण करने की चिंता से जुड़ा होता है, न कि उसके अंदर भाषा कौशलों के विकास करने से। इस प्रकार हम देखते हैं कि यह छोटी सी पुस्तक शिक्षकों के लिए उपयोगी माड्यूल सिद्ध होती है
पुस्तक का आवरण आकर्षक है जिसमें आम के पेड़ पर बैठी चिड़िया गाना गा रही है। एक बच्ची रस्सी कूद रही है तो वहीं एक महिला पुस्तक खोले पढ़ रही है जिसे दो बच्चे उत्सुकता से देख रहे हैं। आवरण पाठक को पुस्तक पढ़ने की उत्सुकता जगाता है। मुद्रण साफ सुथरा है वर्तनीगत अशुद्धियां लगभग नहीं हैं। कागज भी ठीक है। निश्चित रूप से ‘बच्चे की भाषा और अध्यापक’ पुस्तक शिक्षकों का का भाषाई मुद्दे पर मार्गदर्शन करती रहेगी।
पुस्तक: बच्चे की भाषा और अध्यापक एक निर्देशिका
लेखक: कृष्ण कुमार
प्रकाशक: नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली
पृष्ठ: 68, मूल्य ₹70/-