जिनके नाम पर छत्तीसगढ़ के प्रमुख नगर बिलासपुर का नाम पड़ा- महान वीरांगना और विदुषिका रहीं बिलासा देवी

-बिलासा देवी जयंती 18 जनवरी पर विशेष-

आज से लगभग 400 साल पहले जब बिलासपुर शहर, शहर नहीं होकर एक छोटा सा गांव हुआ करता था। उस समय केंवट जाति के लोग नदी के किनारे बसा करते थे। ये लोग अपने जीवन के पारंपरिक कार्यों में आये दिन जगलों में निवास के साथ जीवन उपार्जन के लिए शिकार के साथ मछली मारने के काम करते थे। अरपा नदी के किनारे बसे केंवट रीति रिवाज के लोगों में एक  बिलसिया‌ (बिलासा बाई) भी अपने पिता रामा केंवट और परिवार के अन्य सदस्यों के साथ रहा करती थी। बिलसिया मछली मारने के साथ-साथ नाव भी चलाया करती थी और शिकार भी किया करती थी।  गाँव में जंगली सूअर घुस आते थे। एक दिन गांव के सभी आदमी नदी पर गये और गांव में बस औरतें ही थी। तब जंगली सुअर आकर डराने लगा तो बिलसिया ने भाले से सुअर को मार दिया तब से बिलसिया का नाम पूरा गाँव में फैल गया।

“मरद बरोबर लगय बिलासा, लागय देवी के अवतार बघवा असन रेंगना जेखर, सनन सनन चलय तलवार” !! 

गांव में ही बंशी नाम का एक वीर युवक भी रहा करता था। वह नाव चलाने में कुशल था और साथ में मछलियाँ भी मारता था। एक बार उसने बिलसिया को पानी में डूबने से बचाया था। तभी से बंसी और बिलसिया दोनों साथ रहते थे फिर दोनों ने शादी कर ली। एक बार हुआ यह कि क्षेत्र के राजा कल्याण साय एक बार शिकार करने के लिए घनघोर जंगल में चले गए, जंगल में अपने सथियो से बिछड़ कर अलग हो गए थे। तभी एक जंगली सुअर ने उन्हें घायल कर दिया।  वे सूअर से बच कर छिप गए और एक जगह पर कराहते हुए बैठ गए थे। तभी गाँव का बंसी उसी रास्ते से आ रहा था, घायल देख राजा को गाँव ले गया जहाँ पर बिलसिया ने उनकी बहुत सेवा की। राजा ठीक हो जाने के बाद बिलसिया (बिलासा) और बंशी को साथ ले गये, जहाँ पर बिलासा ने धनुष चला कर अपना करतब दिखाया तो बंशी ने भला फेक कर दिखाया। राजा ने दरबार में दोनों को मान दिया और खुश होकर बिलासा को जागीर देकर सम्मानित भी किया| जब बिलासा जागीर लेकर गाँव लौटी तो गांव के गांव उमड़ पड़े। जागीर मिली थी तो गाँव में बिलासा बाई का मान-सम्मान भी बढ़ गया। गांव, गाँव न रहकर बड़ा क्षेत्र हो गया और आसपास के सब गाँव आपस में जुड़ने लगे। गाँव अब एक नगर में परिवर्तित हो गया था। नए नगर को राजा ने बिलासा के नाम पर रखा और इस तरह से यह नगर बिलासा से बिलासपुर हो गया।

          बिलासा ने नगर को अच्छे से बसाया फिर राजा की सेना में सेनापति भी बन गयी वहीँ बंशी नगर का मुखिया बन गया। छत्तीसगढ़ में बिलासा एक देवी के रुप में देखी जाती हैं। कहते हैं कि उनके ही नाम पर बिलासपुर शहर का नामकरण हुआ। बिलासा देवी केवटिन की एक आदमक़द प्रतिमा भी शहर के शनिचर बाजार में लगी हुई है। वंही चौक का नामकरण भी बिलासा चौक के नाम पर कर दिया गया है। बिलासा देवी के लिए छत्तीसगढ़ के लोगों में, ख़ासकर केवट समाज में, बड़ी श्रध्दा है। इसका एक सबूत यह भी है कि छत्तीसगढ़ की सरकार हर वर्ष मत्स्य पालन के लिए बिलासा देवी पुरस्कार भी देती है।

         भारतीय सभ्यता का प्रजातिगत इतिहास निषाद, आस्ट्रिक या कोल-मुण्डा से आरंभ माना जाता है। यही कोई चार-पांच सौ साल पहले, अरपा नदी के किनारे, जवाली नाले के संगम पर पुनरावृत्ति घटित हुई। जब यहां निषादों के प्रतिनिधि उत्तराधिकारियों केंवट- मांझी समुदाय का डेरा बनाया। अग्नि और जल तत्व का समन्वय यानि सृष्टि की रचना। जीवन के लक्षण उभरने लगे। सभ्यता की संभावनाएं आकार लेने लगीं। नदी तट के अस्थायी डेरे, झोपड़ी में तब्दील होने लगे। बसाहट, सुगठित बस्ती का रूप लेने लगी। इसी दौरान दृश्य में उभरी, लोक नायिका- बिलासा केंवटिन। बिलासा केवटीन का गांव आज बिलासपुर जिले के रूप में तब्दील हो चुका है। छत्तीसगढ़ का प्रमुख दूसरा बड़ा नगर बन चुका है। यहां बड़े-बड़े उद्योग कल कारखाने और शिक्षा के क्षेत्र में कई विश्वविद्यालय खुल चुके हैं। प्रदेश का एकमात्र केंद्रीय विश्वविद्यालय गुरु घासीदास विश्वविद्यालय भी यही स्थिति है। छत्तीसगढ़ प्रदेश का उच्च न्यायालय भी बिलासपुर शहर में ही स्थित है। स्वास्थ्य के क्षेत्र में अपोलो, सिम्स, सुपर स्पेशलिस्ट हॉस्पिटल व देश का सोलहवां रेलवे जोन सहित एसीसीएल कॉल लिमिटेड भी यही स्थिति है ।प्रदेश का दूसरा सबसे बड़ा शहर आज महानगर का रूप ले रहा है। 

           कलचुरीवंश की राजधानी रतनपुर बिलासपुर जिला मुख्यालय से पच्चीस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यहां महामाया देवी का मंदिर है। जो कि धार्मिक पर्यटन स्थल के रूप में विख्यात है। जिले की बाहरी सीमाएँ मुंगेली कोरबा, पेंड्रा गौरेला मरवाही एवं जांजगीर, आदि है। बिलासपुर जिले की स्थापना 18 मई 1998 में की गई। 

‌‌‌‌     बिलासा कैंटीन की कहानी कोई और कल्पित नहीं है बल्कि जन श्रुतियों ,लोक गाथाओं, लोक कहावतें, कत्थ्यो और अनेक पांडुलिपियों में दर्ज हैं। इसी तरह ‘बिलासा केंवटिन’ काव्य, संदिग्ध इतिहास नहीं, बल्कि जनकवि-गायक देवारों की असंदिग्ध गाथा है। जिसमें ‘सोन के माची, रूप के पर्स’ और ‘धुर्रा के मुर्रा बनाके, थूक मं लाडू बांधै’ कहा जाता है। केंवटिन की गाथा, देवार गीतों के काव्य मूल्य का प्रतिनिधित्व कर सकने में सक्षम है। वही, केंवटिन की वाक्पटुता और बुद्धि-कौशल का प्रमाण भी है। गीत का आरंभ होता है-

“”छितकी कुरिया मुकुत दुआर, भितरी केंवटिन कसे सिंगार।
खोपा पारै रिंगी चिंगी, ओकर भीतर सोन के
और उदार संसार पोषित है।””

 ‌‌‌‌     अरपा-जवाली संगम के दाहिने, जूना बिलासपुर और किला बना तो जवाली नाला के बायीं ओर शनिचरी का बाजार या पड़ाव, जिस प्रकार उसे अब भी जाना जाता है। आज भी किला वार्ड पचरी घाट के ढाल पर बांई ओर बिलासा बाई केवटींन का मठ देखा जा सकता है। अपनी परिकल्पना के दूसरे बिन्दु का उल्लेख यहां प्रासंगिक होगा- केंवट, एक विशिष्ट देवी ‘चौरासी’ की उपासना करते हैं। और उसकी विशेष पूजा का दिन शनिवार होता है। कुछ क्षेत्रों में सतबहिनियां के नामों में जयलाला, कनकुद केवदी, जसोदा, कजियाम, वासूली और चण्डी के साथ ‘बिलासिनी’ नाम मिलता है तो क्या देवी ‘चौरासी’ की तरह कोई देवी ‘बिरासी’, ‘बिरासिनी’ भी है या सतबहिनियों में से एक ‘बिलासिनी’ है। जिसका अपभ्रंश बिलासा और बिलासपुर है। इस परिकल्पना को भी बौद्धिकता के तराजू पर माप-तौल करना आवश्यक नहीं लगा।आज बिलासा नामक वीरांगना के नाम पर कालेज बनाकर अलग अलग रूपों में पूरा सम्मान दिया जा रहा है।, यहाँ कालेज, अस्पताल, रंगमंच, पार्क आदि है निषाद संस्कृति के सभी उप जातियों के लिए सम्मान के साथ यह कहने के लिए नहीं थकते है की बिलासपुर नगर निषाद संस्कृति के पहचान के आयाम के रूप में है ।

सुरेश सिंह बैस "शाश्वत"
सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”

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