प्रयागराज का महाकुंभ सामाजिक समरसता और एकता का महासूत्र

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-महाकुंभ पर्व पर विशेष-

विभिन्न धर्मों और संप्रदायों में विश्वास करने वाला हमारा यह देश है। यहां अनेक पर्व, उत्सव और मेले आयोजित होते हैं, इसलिए यह कहावत है “सात वार और नौ त्यौहार’ ! धार्मिक पर्वो और उत्सवों से त्याग, तप, साधना, परोपकार, धार्मिक जागृति और आध्यात्मिक चेतना के दर्शन होते हैं। ऐसे ही सनातनधर्मियों का, हिन्दुओं का सबसे बड़ा धार्मिक पर्व है कुंभ, या कह सकते हैं महाकुम्भ,जो विश्व का सबसे बड़ा मेला कहा जा सकता है। यह महापर्व कब, क्यों और कहां मनाया जाता है, इसके आधार को पुराणों में उल्लेखित निम्न पंक्तियों से समझा जा सकता है। 

कुशस्थली तीर्थवर, देवानामपि, दुर्लभ्य। 
माधवे, धवले पक्षे सिंह जीवे इनोश्चगे।
तुलाराशौ क्षपानाथे स्वातिथे पूर्णिमा तिथौ। 
व्यतिपाते तु सम्प्राप्ते चंद्रवासर संयुते ।। 
एजेनशत महायोगः स्थानान्मुक्ति फलप्रदा।। 

उक्त संदर्भ समुद्र मंथन से है। जब देव दानवों द्वारा समुद्र मंथन किया गया, मंथन से अमृत सहित चौदह दिव्य रत्नों की प्राप्ति, अमृत पर अधिकार के लिये देव- दानवों में संघर्ष और संघर्ष में भारत के चार प्रमुख तीर्थों में अमृत बिन्दु का छलक पड़ना। अमृत बिन्दु पतन से चारों तीर्थ स्थान अमर और पवित्र हो गये। यहां की पवित्र नदियां भी अमृतमयी हो गई है।

विष्णु द्वारे तीर्थराजे
 वन्त्यां गोदावरी तटे।
सुधा बिन्दु विनिक्षेपात्
 कुम्भपर्वेति-विश्रुतम” ।। 

 अर्थात् अमृत बिंदु पतन से पृथ्वी पर चार कुंभ पर्व हरिद्वार, प्रयाग, उज्जैन और नासिक में आयोजित होते हैं। जिसमें हरिद्वार का कुंभ पर्व कुंभ राशि के गुरु, मेष के सूर्व में वैशाख मास में आयोजित होता है। वहीं प्रयाग (इलाहाबाद) का कुंभ महापर्व मेष वा वृषभ का गुरु, मकर का सूर्य और माध मास में सम्पन्न होता है। नासिक में सिंह राशि का गुरु, सिंह का सूर्य तथा श्रावण मास के संयोग से पर्व होता है। इसी प्रकार उज्जैन का कुंभ सिंह राशि का गुरु, वैशाख मास के मेष के सूर्य में कुंभ पर्व होता है। कुंभ भारतीय जनजीवन, संत महात्माओं के आध्यात्मिक चिंतन, जीवन दर्शन और प्राचीन संस्कृति का पुंजीभूत है। इसकी मांगलिक विचारधाराएं सरिताओं के पावन जलप्रवाह के माध्यम से जन जागृति और नवचेतना का शंखनाद सदियों से करती आई है। बारह वर्ष बाद यह पुनः पुनः आ जाता है।    

प्रयागराज का अमृत महाकुंभ, जो विश्व का सबसे बड़ा मेला पुनीत पावनक गंगा जमुना, और अदृश्य सरस्वती के संगम पर उभरता एक लघु भारत। प्रयाग की धरती से एक बार फिर गूंज रहा है “हम एक हैं” का अमृत घोष। अजस्र वाहिनी गंगा जमुना-सरस्वती का संगम-स्थल।    

 भूमंडल के पूर्व यानी नासिकाग्र (प्रयाग) पर होता है राशि चक्र में कुंभ राशि पर गुरुदेव बृहस्पति के परिभ्रमण पर यह अमृत योग आता है। यह भी गौर करने की बात है कि सभ्यता एवं संस्कृति के विकासमान जीवन और जगत को प्राचीन समय में ही नहीं आज के वैज्ञानिक तकनीकी समय में भी महाकुंभ से संबंधित शहरों एवं निकटवर्ती क्षेत्रों के व्यापार, व्यवसाय,विपणन, वाणिज्य को बल मिलता है। यहां वस्तुओं का राष्ट्रव्यापी विनियम होता है। इन विराट कुंभ मेलों में शास्त्रज्ञों, ज्योतिषियों, विद्वानों, कलाकारों, कवियों का समागम सम्मान होता है, तो दूसरी ओर नाम दान द्वारा अपरिग्रह की भावना को सुंपष्टि दी जाती है। पर्यटन एवं पर्यावरण के महत्व को आत्मसात करने वाले मानव समाज को यात्रा की प्रवृत्ति, उसे एकरस जीवन से हटाकर पाप विमुक्ति तथा ग्रहचक्र एवं दुर्देव से सुरक्षा के भाव जगाता है। इस पावन – महापर्व का आकर्षण ही ऐसा है कि भारत के कोने-कोने से और तो और विश्व के अनेक देशों के लोग भी कुंभ नगरी में सिमटने लगे हैं। कुंभ महापर्व की यह पराकाष्ठा ही है की उत्तरप्रदेश की सरकार ने 12 जनवरी 2025 से आयोजित गंगा किनारे कुंभ स्थल क्षेत्र को कुंभ जिला घोषित कर दिया है ।

यद्यपि इनकी भाषा, वेशभूषा, रंगढंग सभी एक दूसरे से भिन्न होते हैं, परंतु इनका लक्ष्य एक होता है, मंजिल एक होती है सभी में एक ही भावना और समरसता के दर्शन किये जा सकते हैं और यह हैं अनेकता में एकता का संगम। आज का मनुष्य क्या स्त्री, पुरुष, बाल-अबाल, साधू महात्मा, धन्वान-गरीब, गृहस्थ, संन्यासी, साक्षर असाक्षर हर तरह के लोग और समुदाय, कष्टों समस्याओं की चिंता नहीं करते हुये भी अमृत कुंभ के अमृतपान के लिये सहज एवं प्रसन्नता के साथ प्रत्येक स्थिति में भी उद्यत रहते हैं, यही तो है इस महापर्व का महात्म्य। 

 भारतीय लोक जीवन में मेलों का अपना एक विशेष स्थान रहा है। इस दृष्टि से यदि देखा जाय तो हम पाते हैं कि हमारे देश के लगभग प्रत्येक क्षेत्र में समय – समय पर मेलों का आयोजन होता रहता है। चूंकि ऐसे प्रत्येक आयोजन के लिये कोई कारण होना जरुरी होता है। इसलिए भारत में लगने वाले अधिकांश मेले किसी उत्सव, पर्व या धार्मिक महत्व वाले दिन के अवसर पर आयोजित होते हैं।

वैसे इन सभी मेलों का धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक और समाज शास्त्रीय भी महत्व रहता है। लेकिन आधुनिक युग में इनके आयोजन के साथ आर्थिक पक्ष अधिक महत्वपूर्ण होते जा रहे हैं, क्योंकि जहां एक तरफ इनके आयोजन में आयोजक को, सरकार हो या अन्य कोई संस्था, उसे काफी पैसा खर्च करना ही रहता है। दूसरी तरफ इन मेलों में आने वाले भी भारी खर्च करते हैं, और जो व्यापारी, उद्योगपति वा दुकानदार इनमें आते हैं वे अच्छी कमाई के साथ अपने उत्पादन या अपनी वस्तु का अच्छा प्रचार करके भविष्य में बिक्री बढ़ाने का प्रयास भी करते हैं।    

भारतीय मेलों का एक लम्बा इतिहास रहा है। इनमें अन्य मेलों की अपेक्षा  प्रयागराज, हरिद्वार, और नासिक उज्जैन, के महाकुंभ का अपना इतिहास है। साथ ही ये आयोजन देश के विभिन्न भागों में होने वाले मेलो की तुलना में विशाल और लंबे समय तक चलने वाले होते हैं। इस  तरह के मेले या महापर्व इन स्थानों पर – प्रतिवर्ष न होकर बारह वर्ष में एक बार आयोजित होते हैं। इस कारण भी ये अधिक बड़े और अधिक महत्वपूर्ण बन गए हैं। 

सामान्यतः इन चारों मेलों का धार्मिक और ज्योतिष शास्त्रीय महत्व अधिक माना गया है, लेकिन इनके सामाजिक महत्व को भी कम नहीं कहा जा सकता है। वैसे इन चारों कुंभों में साधु-महात्मा बड़ी मात्रा में आते हैं, और अपने अपने मतों का प्रचार प्रसार भी करते हैं। इस तरह कुंभ महापर्व सामाजिक जीवन के परिवर्तन और नियंत्रण की स्थितियों को समझने और उनके संबंध में आवश्यक दिशा निर्देश प्रदान करने के लिए अत्यंत ही उपयोगी सिद्ध होते हैं।

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