उत्तराखंडी मूलनिवासियों ने उत्तराखंड एकता मंच के बैनर तले आज जंतर-मंतर दिल्ली में एकत्र होकर सरकार से उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र को पहले की भांति जनजातीय क्षेत्र घोषित कर संविधान की 5वीं अनुसूची में शामिल करने की मांग की ।
देशभर से आए लोगों का कहना था कि उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र की, विषम भौगोलिक स्थिति में रोजगार के अभाव,वर्षा पर आधारित अलाभकारी खेती जैसे विभिन्न कारणों से व्यापक स्तर पर पलायन हो रहा हैl हजारों गांव जनशून्य हो गए हैं।
उत्तराखंड एकता मंच के निशांत रौथाण ने कहा कि सन् 1972 से पहले पहाड़ में लागू थी 5वीं अनुसूची – पहाड़ में शेड्यूल डिस्ट्रिक्ट एक्ट 1874 लागू था, नॉन-रेगुलेशन सिस्टम लागू था, पहाड़ को 1935 में बहिष्कृत क्षेत्र घोषित किया गया था l यह तीनों जनजातीय कानून पहाड़ में भी लागू थे l आजादी के बाद देश में जिन भी इलाकों में यह कानून लागू थे उन इलाकों के मूलनिवासियों को भारत सरकार ने जनजातीय दर्जा देकर वहां 5वीं या 6वीं अनुसूची लागू की l
लेकिन उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र को 5वीं अनुसूची का दर्जा देने की बजाए ये अधिकार 1972 में छीन लिए गएl उन्होंने कहा भारत सरकार द्वारा किसी भी समुदाय को जनजातीय दर्जा देने के जो मानक निर्धारित किए गए हैं उन पर उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र के मूलनिवासी खरे उतरते हैंl उत्तराखंड को छोड़ कर सम्पूर्ण हिमालय के मूलनिवासियों को जनजाति का दर्जा मिला हुआ है। यहां तक कि हिमाचल प्रदेश का 43% क्षेत्रफल भी 5वीं अनुसूची के अंतर्गत आता है।
इतिहासकार प्रोफेसर अजय रावत ने कहा कि शताब्दियों तक यहां खसों का निवास था जिसकी पुष्टि ऐतिहासिक तथ्यों, सरकारी दस्तावेजों तथा यहां के सांस्कृतिक परिवेश से होती है। संपूर्ण हिमालय के जनजातीय समुदायों की तरह उत्तराखंड का आम जनमानस भी प्रकृति का उपासक है। इसीलिए आज भी पर्वतीय क्षेत्र के 90% लोग खस जनजाति की परपराओं का पालन करते हैं।
महिंद्र सिंह रावत ने कहा कि दुनिया के अन्य जनजातीय क्षेत्रों की तरह उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्र की संस्कृति प्रकृति पूजक आदिवासियों वाली है। यहां के फूलदेई, हरेला, खतड़ुआ, इगास बग्वाल, हलिया दसहरा, रम्माण, हिलजात्रा जैसे त्यौहार व उत्सव हों या कठपतिया, ऐपण कला, जादू-टोने पर विश्वास, लोक देवताओं का आह्वान, ऐतिहासिक व पौराणिक पात्रों के नाम पर ‘जागर’ या फिर वनों पर आधारित खेती व पशुपालन आदि का सामान्य जनजीवन में आज भी प्रचलन है। जो पहाड़ की जनजातीय परंपरा को दर्शाते हैं। लोक-व्यवहार में रचे-बसे ऐसे अनेक तत्व हम पहाड़ियों को जनजातीय श्रेणी का स्वाभाविक हकदार बनाते हैं।