सावित्रीबाई फुले : बालिका शिक्षा को समर्पित महान् व्यक्तित्व

-सावित्रीबाई फुले: जन्मदिन पर विशेष-

शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 ने देश के सभी बच्चों को बिना बाधा एवं भेदभाव के समान एवं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्राप्त कर सकने की दृढ आधारभूमि तैयार की है। लेकिन आज से डेढ़-दो सौ वर्ष पहले का शैक्षिक एवं सामाजिक दृश्य ऐसा नहीं था। महिलाओं के लिए विद्यालयों के द्वार बंद थे। महिलाओं का घर-गृहस्थी एवं चूल्हा-चौका में कुशल होना ही पर्याप्त था। ऐसे समय में भारत में एक बालिका ने जन्म लिया जिसका नाम है सावित्री बाई। हां, वही सावित्रीबाई फुले जिसने भविष्य में महिलाओं के लिए न केवल शिक्षा-स्वावलम्बन के रास्ते खोले बल्कि उनको सामाजिक प्रतिष्ठा भी दिलाई।

3 जनवरी, 1831 को महाराष्ट्र के सतारा जिले की खंडाला तहसील के नायगांव में एक पिछड़े वर्ग के परिवार में सावित्रीबाई का जन्म हुआ था। सावित्री को किसी स्कूल भेजने का प्रश्न ही नहीं था क्योंकि उस काल में तो वंचित एव पिछड़े वर्ग के बालकों को भी सामान्यतया स्कूल भेजने की कोई परम्परा नहीं थी। पिता खंदोजी नावसे पाटिल और माता लक्ष्मीबाई ने तत्कालीन परिस्थितियों एवं सामाजिक रीति-रिवाज मानते हुए 9 वर्ष की छोटी अवस्था में ही सावित्री का विवाह पुणे के 12 वर्षीय ज्योतिराव गोविन्दराव फुले के साथ 1840 में कर दिया। ज्योतिराव भी पांचवीं तक ही शिक्षा प्राप्त कर सके थे क्योंकि परिवार के पुश्तैनी फूलों के व्यवसाय एवं खेती के काम में सहयोग देने के कारण विद्यालयीय शिक्षा की निरंतरता बाधित हुई और उन्हें स्कूल से निकाल लिया गया था। किंतु, वह शिक्षा के महत्व को समझ रहे थे इसलिए विवाह के बाद ज्योतिबा ने सावित्रीबाई को पढ़ाना आरम्भ किया। उस दौर में किसी महिला का शिक्षा प्राप्त करना एक प्रकार से पाप-कर्म समझा जाता था। फलतः ज्योतिबा का विरोध शुरू हो गया।

लेकिन उन्होंने हार नहीं मानी और चोरी छिपे पढ़ाना-लिखाना जारी रखा। ज्योतिबा ने खेत की मेंड़ पर भी पेड़ की पतली टहनी की नोक से जमीन में अक्षर ज्ञान कराया। किसे मालूम था कि उस खेत की जमीन में धूल पर उकेरे गये पहले अक्षर एक तेजस्विनी अग्नि को जन्म देने वाले थे जिसे समाज में व्याप्त भेदभाव, बंदिशें और गैरबराबरी की कलुष बेड़ियों को जलाकर महिलाओं एवं वंचित समाज के लिए विकास का एक सुगम राजपथ तैयार करना था जिस पर चलते हुए वे सिर उठाकर आत्मविश्वास और आत्मगौरव के साथ जी सकें। इस तरह खेत और घर पर सावित्री बहुत संघर्ष एवं जीवटता के साथ अक्षर ज्ञान कर सकीं। बाद में एक ब्रिटिश अधिकारी की पत्नी मिसेज मिसेल ने बालिकाओं के लिए 1840 में पुणे में छबीलदास की हवेली में एक नार्मल स्कूल प्रारम्भ किया तो सावित्री वहीं पढ़ने लगीं।

वहीं पढ़ते समय सावित्री ने गुलामी प्रथा के विरुद्ध काम करने वाले थामस क्लार्कसन की जीवनी पढ़ी जिसमें अमेरिका के अफ्रीकी गुलामों के जीवन और संघर्ष की करुण कहानी छपी थी। सावित्री समझ गईं कि शिक्षा ही बदलाव का मजबूत औजार है क्योंकि अशिक्षित व्यक्ति न तो अपने अधिकार जान सकता और न ही उनकी प्राप्ति के लिए लड़ाई लड़ सकता। इस किताब ने उनके अन्दर स्वयं पढ़ने की ललक तो जगाई ही साथ ही बालिकाओं को शिक्षित करने का स्वप्न एवं संकल्प भी दिया।
बालिकाओं को शिक्षा से जोड़ने के लिए 1 जनवरी, 1848 को ज्योतिबा के साथ मिलकर विभिन्न जातियों की चार से छह वर्ष की 9 बालिकाओं, जिनमें अन्नपूर्णा जोशी, सुमती मोकाशी, दुर्गा देशमुख, माधवी थत्ते, सोनू पवार और जानी करडिले शामिल थीं, को लेकर तात्याभाई भिड़े बाड़ा, बुधवारपेठ पुणे में कन्या विद्यालय स्थापित किया।

जहां सगुणबाई ने भी शिक्षिका के रूप में काम किया। इस विद्यालय में बालिकाओं ने गणित, व्याकरण, भूगोल, भारत सहित यूरोप एवं एशिया के नक्शों की जानकारी, मराठों का इतिहास तथा नीति एवं बाल बोध विषयों को पढ़कर देश के शैक्षिक फलक में अपनी जीवन्त उपस्थिति दर्ज करायी। विद्यालय के लिए पुस्तकों का प्रबन्ध सदाशिव गोविंद ने किया। लेकिन एक दलित महिला का यह शैक्षिक प्रयास समाज के महिला शिक्षा विरोधियों को फूटी आंखों नहीं सुहा रहा था। फलतः स्कूल पर हमला हुआ और बालिकाओं की सुरक्षा को ध्यान रखते हुए विद्यालय बंद करना पड़ा। पर सावित्रीबाई तो किसी और ही मिट्टी की बनी थी। निराश होकर हाथ पर हाथ धर बैठ जाना उन्हें स्वीकार न था। कुछ ही समय बाद 15 मई, 1848 को दलित बस्ती में दलित बालक-बालिकाओं के लिए एक अन्य स्कूल खोला।

एक वर्ष के अंदर 5 विद्यालय स्थापित किये। वह केवल महिलाओं एवं दलित जनों की शिक्षा-दीक्षा और आर्थिक विकास तक ही सीमित नहीं थीं बल्कि अल्पसंख्यक समुदाय की निम्न शैक्षिक स्थिति को लेकर भी चिंतित थीं। तो उन्हें भी शिक्षा की मुख्यधारा से जोड़ने के लिए अपनी स्कूल की छात्रा फातिमा शेख को अपने एक स्कूल में शिक्षिका बनाकर प्रथम मुस्लिम महिला शिक्षिका होने का गौरव प्रदान किया जो बाद में देश की प्रमुख सामाजिक कार्यकर्त्री बनीं। इस प्रकार सावित्रीबाई ने ज्योतिबा के साथ मिलकर 1 जनवरी, 1848 से 15 मार्च, 1852 की अवधि में पुणे और उसके आसपास 18 विद्यालय बिना किसी बाहरी आर्थिक मदद के निजी सामर्थ्य से स्थापित किए जहां सैकड़ों की संख्या में बच्चों ने शिक्षा प्राप्त कर अपने जीवन को संवारा। उनके योगदान से प्रभावित होकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें 16 नवम्बर, 1852 को सर्वश्रेष्ठ शिक्षक का सम्मान प्रदान किया था। 1855 में फुले दम्पति ने किसानों के लिए एक रात्रिकालीन स्कूल भी खोला।

24 सितम्बर, 1873 को सत्य शोधक समाज की स्थापना की। उनके कोई संतान न थी, स्कूल के बच्चे ही उनका सर्वस्व थे। जब सावित्रीबाई अपने विद्यालयों में बच्चों को पढ़ाने जातीं तो विरोधी उनके ऊपर कूड़ा-कचरा, गंदगी, विष्ठा फेंक देते थे। लेकिन ध्येयनिष्ठ सावित्री अपने लक्ष्य से कभी विचलित नहीं हुईं बल्कि कहीं अधिक आत्मविश्वास और साहस से अपने कर्तव्यपथ पर सतत बढ़ती रहीं। वह अपने साथ झोले में एक अतिरिक्त साड़ी रखतीं और विद्यालय पहुंचने पर विरोधियों द्वारा फेंकी गई गंदगी को साफ कर दूसरी साड़ी पहन लेतीं। सावित्री ने कंटकाकीर्ण रास्ता चुना था, उसमें फूल नहीं बल्कि पग-पग पर कांटे बिखरे हुए थे। लेकिन उन कांटों की चुभन में भी उन्हें खुशी होती कि वह स्त्री शिक्षा और उनके अधिकारों के लिए कुछ कर पा रही हैं। बालिका शिक्षा एवं स्वावलंबन को समर्पित इस महान् विभूति ने 10 मार्च, 1897 को पुणे में अपने अनुयायियों को विचार-सम्पदा सौंप लौकिक यात्रा पूरी की।

सावित्री बाई फुले के शैक्षिक एवं सामाजिक अवदान के महत्व को रेखांकित करते हुए भारत सरकार ने 10 मार्च, 1998 को उन पर 2 रुपये का डाक टिकट जारी कर श्रद्धांजलि अर्पित की। ‘गूगल’ ने 2017 में उनकी 186वीं जयंती पर ‘डूडल’ के जरिए उन्हें स्मरण किया जिसमें सावित्रीबाई को महिलाओं को अपने आंचल में समेटते दिखाया गया था। महाराष्ट्र सरकार ने 2015 में पुणे विश्वविद्यालय का नाम बदलकर सावित्रीबाई फुले विश्वविद्यालय कर उनकी स्मृति को चिर स्थायी कर दिया। पुणे सहित कई नगरों के चौराहों पर उनकी मूर्तियां लगायी गयीं। सावित्रीबाई आज हमारे बीच नहीं पर उनके किए गये कार्य हमें रास्ता दिखाते रहेंगे।

प्रमोद दीक्षित मलय शिक्षक, बाँदा (उ.प्र.)
प्रमोद दीक्षित मलय
शिक्षक, बाँदा (उ.प्र.)
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