• प्रमोद दीक्षित मलय
प्रिय मुन्नू! यह पत्र मैं महाकुंभ प्रयागराज से लिख रहा हूं। मुझे नहीं पता कि तुम समझ रहे होंगे या नहीं कि मैं इस समय प्रयागराज महाकुंभ में कल्पवास कर रहा हूं। कल माघ पूर्णिमा का चंद्र नील गगन पर अपनी रजत ज्योत्स्ना से आलोकित हो लोक पर नेह की मधुर अमृत वर्षा कर रहा था। पौष पूर्णिमा से आरम्भ हुआ कल्पवास कल पूर्ण हुआ। कल्पवासी अपने घरों के लिए प्रस्थान हेतु आतुर-व्याकुल हैं। पर मेला क्षेत्र की सड़कों और अपने गंतव्य तक पहुंचने के मार्गों पर वाहनों की लम्बी कतारें लगी हैं, पैदल तीर्थयात्री सिरों पर पोटली और बोरियां लादे, कंधों पर बैग लटकाए संगम की ओर बढ़े जा रहे हैं। दस-पंद्रह किमी से पैदल चल रहे ये तीर्थयात्री तन से थके अवश्य हैं पर मन में मां गंगा के दर्शन-स्नान और पुण्यार्जन की आकांक्षा एवं उत्साह उन्हें अलौकिक अपरिमित ऊर्जा से पूर्ण किए हुए हैं। मुन्नू, मुझे तुम्हारी बहुत याद आ रही है। सडकों का बोझ कुछ कम हो जाने के बाद मैं 14 फरवरी की सुबह निकलूंगा, उसी शाम तुमसे भेंट होगी। तुमसे मिलने की उत्कंठा बढ़ती जा रही है। अतर्रा पहुंचने पर तुम्हारी पसंद की रसमलाई, मिल्क केक और समोसे जरूर लूंगा। तुमसे गले मिलकर बहुत खुशी होगी। फिलहाल, ढेर सारा प्यार-दुलार।
जब 11 जनवरी को कल्पवास के लिए मैं और पत्नी वंदना जी निकल रहे थे, घर के सामने खड़े लोडर पर सारा सामान रखा जा रहा था तो तुमने देखा था पर समझ नहीं पाए कि हम लोग कहीं जा रहे हैं और वो भी एक महीने के लिए। उस समय हम सभी चिंतित थे कि जाते समय तुम्हें कौन संभालेगा।तुम प्रेम में बंधे हमारे वाहन के पीछे-पीछे दौड़ते कहीं मेन रोड तक न पहुंच जाओ। अभी तुम छोटे हो तो सभी ध्यान रखते हैं कि तुम फर्राटा भरते वाहनों की भीड़ वाली सड़क पर न पहुंच पाओ, हालांकि मुझे मालूम है कि पहले ही तुम दो-तीन बार मेन रोड का चक्कर काट आये हो। संयोग से, तुम ऐन वक्त पर कहीं चले गये और हम निकल आये। बाद में संस्कृति दीदी ने बताया कि हमें घर पर न पाकर तुम इस कमरे से उस कमरे, बारामदे से आंगन तक और ऊपर की दोनों छतों तक बार-बार खोजते रहे।
हमें न पाकर तुम बहुत निराश-उदास हो गये थे। उस दिन तुमने भोजन भी नहीं किया। रह-रहकर तुम हमें ढूंढते और संस्कृति दीदी के पास जाकर पूछते कि हम लोग कहां है। दीदी ने तुम्हें बताया भी, पर तुम समझ नहीं सकते न इसलिए समझ नहीं पाए। हम दोनों प्रयागराज महाकुंभ में पहुंचकर बेनीमाधौ पंडा जी के बाड़े में अपने तम्बू में व्यवस्थित हुए पर हमारा मन बार-बार तुम तक दौड़ जाता। काश! मन की आंखें होतीं तो तुम्हें देख छाती जुड़ाती पर मन नयन कहां से लाए। अगली सुबह संस्कृति दीदी ने बताया कि रात में तुमने बहुत परेशान किया था। अपने बिस्तर पर भी नहीं सोये। अंदर बेडरूम में सोने चले गये और संस्कृति ने तुम्हें कम्बल ओढ़ाकर सुला दिया पर रात भर जागते रहे, अपना कम्बल गिरा देते रहे और दीदी बार-बार कम्बल ओढ़ाती रहीं। तुम्हारी शैतानी के कारण नानी को नींद नहीं आई। और हां, तुमने आलमारियों में रखा सामान गिरा दिया, काट डाला। तुमने ऐसा क्यों किया था मुन्नू। हम नहीं जानते, यह तुम्हारा गुस्सा था या तुमसे बिना बताये-मिले हमारे चले आने से उपजा आक्रोश।
मुन्नू, क्या तुम्हें याद है? वह शुरुआती गर्मियों के अप्रैल की तेज दुपहर थी जब तुम घर आये थे। तुम बिलकुल छोटे से कमजोर मरियल और मिट्टी-रेत से सने थे। पूरी देह में खुजली से बाल भी थोड़े ही बचे थे। पर तुम बहुत प्यारे और मासूम लग रहे थे। तुम्हारे चेहरे पर एक बच्चे सा निर्दोष सौंदर्य और भोलापन खिला हुआ था। प्रसून भैया ने तुम्हें अच्छे से नहलाया-खिलाया और दूध पिलाया था। पूरा परिवार तुम्हें पाकर खुश था। मैं जब शाम को विद्यालय से घर पहुंचा तो संस्कृति दीदी ने चहकते हुए बताया कि घर में नया मेहमान आया है। पर तुमसे मिलकर मुझे कोई खास खुशी नहीं हुई थी, मैं नहीं चाहता था कि तुम घर पर रहो। लेकिन बच्चों की चाह और तुम्हारे भोलेपन के कारण कुछ कह नहीं सका। अगले दिन प्रसून भैया तुम्हें लेकर अस्पताल गये, खुजली से मुक्ति का इंजेक्शन लगवाया। उस दिन शाम को तुम्हें बहुत चक्कर आ रहे थे। तुम्हारे पैर देह का भार तक उठा नहीं पा रहे थे, तुम बार-बार गिर जा रहे थे और रात को तो बुखार से तुम्हारी देह का ताप बहुत बढ़ गया। उस दिन तुम बामुश्किल दो-तीन घूंट दूध ही पिए थे। हम सभी बहुत चिंतित हो गये थे। तब प्रसून भैया बाईक से भागकर गये और पता नहीं कहां से एक पैरासिटामोल का सीरप लेकर आये। तुम्हें दो ढक्कन दवा पिलाकर भींगी रूमाल से तुम्हारा शरीर पोंछते रहे। न चाहते हुए मैं भी बच्चों के साथ तुम्हारे पास बैठा जाग रहा था। तुम्हारे लिए मेरे हृदय में प्रेम के अंकुर उगने लगे थे, तुम अबोध शिशु गोद में दुबके थे। खैर, बुखार उतरा तो चैन पड़ा। अगले कुछ दिनों में तुम्हारी खुजली ठीक हो गयी, बाल उग आये। दूध-ब्रेड, रोटी खाते तुम स्वस्थ हो मोटे-ताजे हो गये। अब तुम छत की सीढिया चढ़ने लगे थे। बाहर सीढ़ियों से लगे बारामदे में तख्त पर बिछे गद्दे के ऊपर आसन जमा लिया था। वहीं सोते और सीढ़ियों से ऊपर छत तक घूम आते। तुम हम सभी के लिए खिलौना हो गये। तुम बड़े हो रहे थे और अब घर के बाहर सैर करने लगे। और एक दिन, वह घटना याद है तुम्हें, पर तुम्हें कहां याद होगा। हुआ यह था कि तुम सुबह नाश्ता करके बाहर निकले थे। प्रायः 15-20 मिनट में वापस घर आ जाते थे पर उस दिन लगभग दुपहर तक घर नहीं आये। हम सभी की चिंता लगातार बढ़ती जा रही थी। मैं, प्रसून और विभु भैया तथा संस्कृति दीदी तुम्हें खोजने निकले थे। पड़ोस की हर गली से मेन सड़क तक, गौराबाबा मंदिर से केन कैनाल सड़क तक, सामने हिंदू इंटर कालेज के मैदान तक, कहां-कहां नहीं खोजा पर तुम नहीं मिले। थक कर घर वापस आ गये। तुम्हारे बिछुड़ने से हम सब रो रहे थे। तब विभु भैया फिर से छत पर खोजने गये तो तुम पड़ोस के मकान के बाहरी छज्जे पर आराम करते मिले। विभु ने आवाज दी तो तुमने भी आवाज दी। तुम्हें पाकर लगा था कि जैसे कोई कोई अमूल्य निधि मिल गई हो। गर्मियों की शाम आइसक्रीम वाले ठेले को गली में आते ही तुम आईसक्रीम खाने को मचल पड़ते। ठेले के चक्कर लगाते और आईसक्रीम मिलते ही खुश हो जाते। मैं स्वयं में हंसता हूं कि इतनी आईसक्रीम तो प्रसून, विभु और संस्कृति ने भी बचपन में नहीं खाई होगी, जितनी तुमने चट कर डाली है। और हां, तुम अभी भी दीदी या मेरे हाथ से ही दूध-रोटी खाते हो, बिलकुल छोटे बच्चे की तरह। मुन्नू, इस पत्र की चौहद्दी की सीमा है किंतु तुम्हारी स्मृतियों की परिधि पर कितनी खट्टी-मीठी यादों की मुस्कुराहट खिली हुई है। मन करता है कि स्मृति के प्रत्येक पुष्प का चित्र इस पत्र में उकेर दूं, पर चाह कर भी ऐसा नहीं कर पा रहा। सो शेष बातें दूसरे पत्र में लिखूंगा ही। और फिर अब तो भेंट होगी ही न, तो तब ढेर सारी बातें करेंगे, खेले-कूदेंगे। तुम्हारे लिए कुछ और चीजें लानी हों तो संस्कृति दीदी से बोला देना। वह मुझे फोन कर देगी। सुनो, अब दीदी को परेशान नहीं करना। पिता जी और तुम्हारे स्नान के लिए गंगाजल लेकर आएंगे। प्यारे मुन्नू! हमेशा खुश रहना। तुम हमारे लिए एक कुत्ता नहीं परिवार के एक सदस्य ही हो जैसे प्रसून, विभु और संस्कृति।
