नारी है अपराजिता

नारी जीवन झूले की तरह
इस पार कभी उस पार कभी
दिए की तरह से जलती है
दुनिया को उजाला देती है
माँ, बेटी, बहू, पत्नी बनकर
दुनिया को सहारा देती है
बस मोह-प्रेम मे रहकर
वो सहती अत्याचार सभी।

यही सीता बनी, यही मीरा बनी,
यही रानी बनी थी झांसी की
हर फूल चढ़ाये भक्ति का
और हाथ पे ले तलवार चाली
ये ना करे अभिमान कभी
माने नहीं दुख से हार कभी।

मैं नारी हू है गर्व मुझे
ना चाहिए कोई पर्व मुझे
संकल्प करो कुछ ऐसा की
सम्मान मिले हर नारी को
बंदिस और जुर्म से मुक्त हो वो
अपनी वो खुद अधिकारी है।

तुम सबल हो, तुम सरल हो,
तुम निर्मल हो, तुम निष्ठल हो,
तुम सक्ति हो, तुम जीवन हो,
तुम प्रेम ही प्रेम हो,
ईश्वर की अदभुत सुन्दरतम कृती हो तुम ।

करुणा सिंह बुढ़ार

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