स्मृतियों के वातायन से झांकती बचपन की होली

संस्मरण

   • प्रमोद दीक्षित मलय

इसी होली के ठीक दो दिन पहले की एक खूबसूरत शाम को मैं छत पर रखे दर्जनों गमलों में पानी दे रहा था। गमले में खिले कनेर, गेंदा, गुड़हल, गुलाब और बेला के फूल मन मोह रहे थे। हर फूल की अपनी विशेष सुगंध, विशेष गुण-धर्म और उपयोगिता, कोई किसी से कम नहीं। सहसा मुझे लगा कि इन गमलों में विभिन्न प्रांतों का मानव समाज अपनी विशिष्ट संस्कृति-सभ्यता एवं योगदान के साथ प्रकट हो गया हो और अपनी सुवास और सौंदर्य से देश के फलक को जीवंत किए हुए हो। तभी एक भ्रमर कान के पास गुंजार करता निकला और गुलाब की कली पर बैठ गया। मेरी तंद्रा भंग हुई तो मैं फिर निराई-गुड़ाई के काम में जुट गया। गमलों में उग आई खरपतवार को पतले फल वाली खुरपी से निकाल यथावश्यक देशी खाद डालते फूलों की सुगंध को अपने अंदर महसूस कर रहा था।‌ माटी की सुवास की भी एक धारा अंदर बही जा रही थी जिसमें घर की तैयार की गई देसी खाद का अर्क घुला हुआ था। कुछ गमलों में कैक्टस थे जो गमले के बगल से चुपचाप निकली जा रही अपराजिता एवं बोगनवेलिया की कमनीय छरहरी बेलों से छेड़खानी करने की जुगत में थे पर बेलों का ध्यान उन पर नहीं था। वे तो गुलाब और गेंदा के साथ अठखेलियां-गलबहियां कर रही थीं। हां, एक कैक्टस के कांटों पर बेलों की कुछ पत्तियां फंस-उलझ गयी थीं। वह कैक्टस खुश था मानों किसी तन्वंगी बेल का दुपट्टा हाथ में पा लिया हो और इसीलिए उसके चेहरे पर खुशियों के दो-तीन छोटे हल्के पीले-लाल फूल खिल उठे थे। मैंने गमले के कैक्टस पर पहली बार फूल देखे थे, मैं अपलक उस सौंदर्य को निहारता रहा। सहज सौंदर्य का रस छकने के बाद मैंने गेंदा-गुलाब के ऊपर झुक आई बेलों को ठीक किया, कुछ अवांछित सूखी टहनियां काट दीं। एक डोरी लगाकर बेलें व्यवस्थित कर दीं। अपनी नई सजी-धजी रूपराशि संभाले बेलें मुझे कनखियों से देख खिलखिला पड़ीं। मैंने देखा गुलाब की कली पर बैठा भ्रमर तेजी से उनकी ओर लपका। उन्हें एकांत में छोड़ मैं आगे बढ़ गया। छत के दूसरे कोने में छायादार जगह पर पत्नी वंदना जी द्वारा गेंदा, चमेली, गुड़हल, गुलाब के फूल सूखने हेतु चादर पर फैलाए गये थे।‌ इन फूलों से होली खेलने के लिए रंग और गुलाल बनाये जाते हैं। घर के मंदिर में पूजा-अर्चना हेतु वर्ष भर रंग-विरंगे पुष्प इन गमलों में उगाए पौधों से ही मिल जाते हैं। पूजा के फूलों को अगले दिन पत्नी एक बड़े गमले में मिट्टी में दबाती जाती हैं और एक महीने बाद बढ़िया देसी खाद बना लेती हैं। शेष खाली जगह पर गिलहरी और चिड़ियों के लिए चावल और मूंगफली के दाने बिखेरे गये थे। मैं बागवानी की इस हरी-भरी दुनिया में खोया हुआ था कि बगल की छतों पर बच्चों के हुड़दंग से नजर उधर गयी। देखा कि पड़ोस के 10-12 वर्ष के हमउम्र 8-10 लड़के-लड़कियां होली खेल रहे हैं। उनके हाथों में शायद अबीर-गुलाल नहीं है, हो भी नहीं सकता क्योंकि होली तो दो दिन बाद ही होगी। पर बच्चों के हाथों में कुछ है जो एक-दूसरे के चेहरों पर लगा रहे हैं। मैं उनके आनंद को जी भर लूट रहा हूं। अब वे सब गोल घेरे में बैठ गये हैं और कोई खाने की वस्तु आपस में बांटी जा रही है। ओह, अब समझा वे तो होली-होली जैसा कोई खेल खेल रहे हैं।‌ एक बच्चा साबुन के घोल में पतला स्ट्रा डुबोकर हवा में गोले उड़ाये जा रहा है। चारों ओर हवा में गोले उड़-तैर रहे हैं।‌ डूबते सूरज की रोशनी पड़ने से उन गोलों पर सैकड़ों इंद्रधनुष उतर आये हैं। एक मंझोला इंद्रधनुषी गोला अपने परिवार से बिछुड़ मेरी ओर चला आया है। मैं चमकते गोले और इंद्रधन्वा को देख अपने बचपन कि ओर लौट रहा हूं। मैं झटपट इंद्रधनुष का एक सिरा पकड़ गोले के अंदर बैठ अपने गांव की ओर उड़ चला हूं। स्मृतियों के वातायन से मेरे गांव की बचपन की होली के विविध दृश्य और रंग मानस पटल पर बिखरने लगे हैं।

    बुंदेलखंड का वह हमारा गांव ‘बल्लान’ वसंत पंचमी से ही होली की तैयारी में जुटने लगता। बड़े तालाब के किनारे होली का डांड पूर्णमासी को गाड़ दिया जाता। धीरे-धीरे वहां पर कंडे-उपले और लकड़ियां एकत्रित होती जातीं। मंदिरों और चौपालों में फगुवारे देर रात तक लोक कवि ‘ईसुरी’ की फागें गाते, राग अलापते। हारमोनियम, ढोलक, मंजीरा और कभी-कभी नगड़िया की थाप पर राई गाते-नाचते कृषक लौकिक दुख भूल राधाकृष्ण के अलौकिक प्रेम-रंग में रंगते जाते। खास बात यह थी कि यहां जाति की दीवारें नहीं थीं, परस्पर अपनेपन एवं स्नेह की छूही और गेरू से रंगा मन का खुला आंगन था। रंगभरी एकादशी को मंदिर में भगवान को रंग और अबीर-गुलाल चढ़ा होली का आरम्भ हो जाता। होली के दिन सभी अपने बल्लों (गाय के गोबर से बने कटोरीनुमा चपटी वस्तु जिसके बीच में छेद होता) को मूंज की सुतली में गूंथ मालाओं में से एक होलिका को समर्पित करते और दूसरी माला बदल कर घर ले जाते जो वर्ष भर घर में रखी रहती और अगले साल होलिका दहन में अर्पित की जाती। तब त्योहार केवल प्रेम के प्रतीक थे। आपसी मेल-जोल का रंग गाढ़ा था। बड़े-बूढ़ों के प्रति आदर-सम्मान आंखों में झलकता था। होलिका में जलते बल्लों को बाल्टी में डाल घरों में ले जाते और वह आग ‘गोरसी’ में उपला-कंडा लगा सहेज ली जाती। तब माचिस का प्रचलन नहीं था। उसी गोरसी की आग से हर दिन चूल्हा जलता और द्वार पर जाड़े में कौड़ा भी। घर की आग बुझ जाना उस घर की महिलाओं की नासमझी और फूहड़पन का प्रतीक था। तब पड़ोसी के घर से पुरुषों की नजर बचाकर बच्चों द्वारा चोरी-चुपके से आग मंगा ली जाती।‌ ऐसा कोई घर न था जिसकी आग एक-दो बार न बुझी हो। मुझे किसी के यहां से आग मांगना या देने जाना अच्छा लगता था। खपरैल से एक छोटा खपरा निकाल उसमें कंडे की पची आग रख एक हाथ से पकड़ दौड़ते हुए जाते समय आग की आंच अंगुलियों को झुलसाने लगती थी पर बाद में मिलने वाली गुड़ की डली के सामने उस तपिश का कोई कष्ट न होता। धुलेंढ़ी में रंग खेले जाते। पलाश और सेमर के फूलों को दो दिन पहले घड़े-कलशे में पानी डाल भिंगो दिया जाता।‌ उससे लाल रंग तैयार होता। पालक और नीम के पत्ते पीसकर पानी में घोल और कपड़े से छानकर हरा रंग मिल जाता। पीला रंग तो हल्दी का बनता ही था।‌ बड़े लोग पिचकारी की बोतलों में रंग भर लेते। एक बोतल से दिन भर का काम चल जाता। चाचा-ताऊ के हम 7-8 बच्चों को पिता जी आंगन में किशोर वय तरु जम्बू की छांव में बांस की पिचकारी बनाते। महिलाएं पकवान तलतीं। रिफाइंड तेल का जन्म नहीं हुआ था, डालडा वनस्पति मिलने लगा था पर घरों में गाय-भैंसें थीं तो देशी घी में तली गुझिया और सोहारी (पूड़ी) का स्वाद जीभ पर बना रहता। तब त्योहारों पर ही पूड़ियां बनती थीं तो हम बच्चे कड़ाही के इर्द-गिर्द जमा रहते। एक-एक पूड़ी और नमक मिलते ही हम बच्चे कुलांचे भरते अपनी दुनिया में रम जाते। शाम के समय महिलाएं लोटों में रंग लेकर रिश्ते के श्वसुरों को रंग डालतीं, पैर छूतीं और सुखी-संपन्न, संतुष्ट रहने का आशीष पा निहाल हो जातीं। देवर-भौजी की होली के रंग के अलग ही ठाठ होते। वैमनस्यता, कुटिलता एवं ईर्ष्या-द्वेष को तो मानो देश निकाला था। हंसी-ठिठोली के स्वर आंगन में नर्तन करते। हम बच्चे दिनभर के थके-हारे दिन ढलते ही जहां जिसके घर में जगह मिलती नींद में लुढ़क जाते। मैं बचपन की किताब के पन्ने पलट रहा था कि तभी एक मोरनी झप्प से छत पर उतरी तो मेरे हाथ से इंद्रधनुष का सिरा सरक गया और मैं वर्तमान में छत पर दाना चुगती मोरनी के पंख देखने लगा जो योगिराज कृष्ण के किरीट का शीर्ष बन गौरवान्वित हो गये। 

प्रमोद दीक्षित मलय शिक्षक, बाँदा (उ.प्र.)
प्रमोद दीक्षित मलय शिक्षक, बाँदा (उ.प्र.)
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