जलियांवाला बाग: शहीदों की अनकही गाथा और बलिदान की अमर कहानी

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-13 अप्रैल जलियांवाला बाग कांड बलिदान दिवस पर विशेष-

भारत के आजादी के लिय अनथक लड़े गये संग्राम में अप्रैल का महीना अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता हैं। दिसंबर 1914 में  ब्रिटेन के शासकों में से एक जस्टिस सिडनी रोलेट की अध्यक्षता में समिति का गठन किया गया था. और उसके तहत उसने “रोलेट एक्ट” के नाम से जो कानून बनाया था, उसमें बिना कारण के गिरफ्तारी एवं बंद न्यायालय में मुकदमे की सुनवाई एवं किसी भी तरह की अपील पर पाबंदी जैसे प्रावधान थे। इससे भारतीय जनमानस का उद्देलित होना स्वाभाविक हो गया था। रोलेट एक्ट ही भारत में “जलियां वाला बाग” कांड करने के लिये अंतिम रूप से जिम्मेदार था। रोलेट एक्ट के विरोध में सारा देश सुलग उठा था. जगह- जगह उसके खिलाफ आवाजें उठ रही थीं, कही आंदोलन तो कहीं घेराव आदि हो रहे थे। इसी मध्य अप्रैल के महीने में सन् 1919 को इस एक्ट के विरुद्ध जो आंदोलन छेडा गया था, उसी की परिणति जलियांवाला बाग कांड के रुप में हुई। 

जलियांवाला बाग कांड ने सरदार ऊधमसिंह जैसे रण बाकुरे को मारने मरने के लिये खड़ा कर दिया था।  ऊधमसिंह ने पंजाब की धरती पर अमृतसर जिले के सुगम गाँव में एक दलित परिवार में जन्म लिया था। उनकी माता श्रीमती हरनाम कौर और उनके पिता जल्द ही स्वर्ग को सिधार गये। जिससे वे बचपन में ही अनाथ हो गये। ऊपर से दलित होने और उस समय छुवाछूत की भावनाओं के कारण उनका हालचाल लेने वाला कोई भी नहीं था। परंतु ऊधमसिह ने पंजाब के एक अनाथालय में हिंदी, ऊर्दू, अंग्रेजी और पंजाबी भाषा के साथ साथ लकड़ी की दस्तकारी भी सीखी। अमृतसर में ही उन्होंने एक फर्नीचर की दुकान खोली, जिसका नाम उन्होंने “राम मोहम्मद सिंह आजाद फर्नीचर मार्ट” रखा था। उनके इस तरह दुकान का नाम रखने के पीछे भी सर्वधर्म समभाव के साथ देश की एकता की भावना भरी हुई थीं, उन्होंने जैसे राम, हिंदुओं, मोहम्मद, मुसलमानों, सिंह सिक्खों तथा आजाद, भारत की आजादी के लिये रखा था। उधमसिंह अपनी रोजी रोटी के साथ – साथ आजादी संग्राम के भी सक्रिय सिपाही थे। वे अंग्रेजी के विरुद्ध होने वाले हर आंदोलनों में जरुरी हिस्सा बनकर काम करते थे।

        ‌रोलेट एक्ट के विरोध में तीस मार्च से छह अप्रैल 1919 में जो आंदोलन चलाया गया, उसके आगे की रूपरेखा तय करने के लिये 13 अप्रैल 1919 को वैसाखी के दिन अमृतसर में जलियांवाला बाग नामक स्थान पर एक सभा आयोजित की गई। इस सभा का एक तात्कालिक कारण था कि अनेक नेताओं को गिरफ्तार भी कर लिया गया था, जिन्हें रिहाई कराने के लिये एक विशाल बैठक जलियांवाला वाग में बुलाई गई थीं। इस समय पंजाब का गवर्नर माइकल ओ. डायर था। उसे भी इस  बैठक की खबर हो चुकी थी। 

उसने ,जब जलियांवाला बाग की बैठक शुरू हो चुकी थी। वह स्थान आंदोलनकारी से खचाखच भर चुका था तभी बिना किसी चेतावनी के जलियांवाला बाग को चारों तरफ से घेर लिया। सैकड़ों पुलिस कर्मी बंदूकों से लैस उपस्थित जन समुदाय पर रायफल तानकर खड़े हो गए। माइकल ओ. डावर के साथ लेफ्टिनेंट जनरल ई. जी. डायर तथा लाई जैटलैंड भी थे। उन्हें देखकर आंदोलनकारी कुछ समझ पाते कि अकस्मात उस सभा में इन अधिसंख्य एवं निहत्थी जनता पर बिना सावधान किये अंधाधुंध गोलियां चलाने का आदेश दे दिया। उस समय सभा में आजादी का तराना गाते समय नंत्थू लाल को पहली गोली लगी, जो उनके सीने को भेदती चली गई। उस सभा में खचाखच भीड़ में लगभग चार सौ लोगों को मौत की नींद सुला दिया गया। किशोरवय के ऊधमसिंह भी इस समय वहाँ उपस्थित थ। और सौभाग्य से आततायियों की दुदाँत गोलियों से बच गये थे, उन्होंने उपरोक्त तीनों अंग्रेज अधिकारियों जो इस काण्ड के मुख्य रूप से अपराधी थे, उन्हें मृत्युदण्ड देने की कसम खाई। 

1940 में ऊधमसिंह को आखिर लंबे इंतजार के बाद मौका मिल ही गया, जब वो लंदन में ईस्ट इंडिया कंपनी और एशिया सोसायटी की सभा को संबोधित कर रहे थे। उस समय  लेफ्टीनेंट माईकल जी. डायर तथा लार्ड लैटलैंड को ऊधम सिंह ने अपनी गोली का निशाना बनाया। जनरल ई जी डायर पहले ही मर चुका था, और उधमसिंह की गोली के हमले में  दूसरा अपराधी भी मौके पर ही मारा गया। हमले में लार्ड जैडलेड घायल हो गया था बाद में वह भी मारा गया। अंग्रेज सरकार इस घटनाक्रम से इतनी बावरी हो गई कि. उसने अमृतसर की एक गली जिसमें अंग्रेज  पर आंदोलनकारियों ने हमला किया था, उसमें भारतीयों को पेट के बल आने जाने का आदेश दिया था। सैनिकों ने  जनता पर उसका कटटरता व निर्ममता से पालन करवाया। सात दिन बाद यह आदेश वापस लिया गया। 

तात्पर्य यह हैं कि अप्रैल का महिना देश के लोगों के लिये बड़ा पावन महीना हैं, जब देश के शहीदों ने अपनी जान न्यौछावर करके इस देश को आज़ाद कराने की ठानी थी। परंतु आज उन शहीदों की स्मृतियों पर हमारे भौतिक सुखवाद की गर्त पट चुकी है। सरकारी स्तर पर जो उपेक्षा है उसी का परिणाम आम आदमी तक पहुँच रहा हैं। यदि शहीदों की स्मृतियों को ही हम सम्हाल कर नहीं रख पाये तो इससे बड़ा क्या पाप होगा। समय रहते इस पाप को हर स्तर पर हम सभी को धोना है। आईए हम सभी उन अनाम शहीदों को जो  “जलियांवाला  बाग” काण्ड में अपने आपको बलिदान कर दिया था,उन्हें शत् शत् नमन करें….।

सुरेश सिंह बैस "शाश्वत"
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