सच्ची घटना पर आधारित: रॉकी

यह बात उन दिनों की है जब सन 1983- 84 में मैं हायर सेकेंडरी बोर्ड 11वीं में पढ़ाई कर रहा था। हमारा लाल बहादुर शास्त्री हायर सेकेंडरी स्कूल बिलासपुर शहर के हृदय स्थल गोल बाजार के पास स्थित था, जो घर से करीब डेढ़ दो किलोमीटर की दूरी पर पड़ता था। सुबह 11:15 बजे अक्सर मैं स्कूल पैदल ही जाया करता था, मेरे साथ-साथ रास्ते में मेरे सहपाठी और मेरे अभिन्न मित्र भी अपने-अपने घरों से निकल कर के साथ हो जाया करते थे। सो हम सभी बातचीत करते हुए स्कूल पहुंच जाते थे। उन दोनों मेरे अभिन्न मित्रों में प्रदीप उपाध्याय, प्रभात गुप्ता, संतोष तंबोली एवं मोहम्मद अली शामिल थे। हम पांचो की जोड़ी सारे क्लास और स्कूल में प्रसिद्ध थी। 

हम लोग पढ़ने, खेलने कूदने हर समय एक ही साथ रहते थे। हां..यह भी बात थी कि क्लास का कप्तान हममें से ही एक प्रदीप उपाध्याय था, और वॉइस कैप्टन मैं था, इसलिए हम लोगों को क्लास संभालने के भी जिम्मेदारी थी। टीचर के नहीं रहने पर क्लास के अनुशासन बनाए रखना हमको बोला गया था। हम पांचो मित्र क्लास के पहले ही पंक्ति में एक साथ बैठा करते थे, और दूसरे छात्रों को दूसरी तीसरी पंक्ति में बैठना होता था। हम बायोलॉजी विषय लेकर पढ़ रहे थे। पढ़ने में हम सब से होशियार प्रदीप उपाध्याय था।    

हमारे क्लास में करीब करीब पचपन- साठ छात्र एक साथ पढ़ते थे। उन दिनों स्कूल के प्रिंसिपल साहब बापते सर हुआ करते थे, जो काफी स्ट्रिक्ट और अनुशासन प्रिय थे। वे स्कूल में प्रार्थना होने के बाद अगर लेट से छात्र पहुंचते तो फिर वह सभी देर से आने वाले स्टूडेंट की खबर लिया करते थे, और दोनों हाथों में पतले बांस की छड़ी से पांच पांच बार बेंत लगाया करते थे। कभी-कभी हम लोगों से भी देरी होती थी तो हमको भी वह सजा मिलनी थी। यह भी एक दिलचस्प बात है कि हम लोग जब पढ़ते थे तो उसे जमाने में हमारे साथ पढ़ने वाले स्टूडेंट में आज कोई यूनिवर्सिटी का रजिस्टार है तो कोई शहर का मेयर तो कोई वकील और डॉक्टर या अन्य बड़े-बड़े पदों में भी पहुंच चुके हैं। 

वैसे तो हम सभी क्लास के स्टूडेंट पढ़ने में ठीक-ठाक ही थे और क्लास में पढ़ाई का माहौल भी अच्छा था। ज्यादातर हम सभी छात्र अच्छा, जैसे ही थे, हम सभी मिलजुल कर रहते भी थे। लेकिन न जाने क्यों हम पांच की जोड़ी में कई  सहपाठी छात्रों ने घुसने का प्रयास किया पर हम पांचो लोगों ने किसी को ज्यादा भाव नहीं दिया था, ऐसे में और स्टूडेंट हमसे नाराज भी रहते थे कि केवल तुम पांच लोग अपना-अपना प्लान बनाते हो और हम लोग को शामिल नहीं करते हो। 

चूंकि प्रदीप उपाध्याय क्लास मॉनिटर था। इसलिए क्लास के सभी छात्र उसकी बातों को सुनते थे और मानते भी थे। ऐसे ही एक दिन हमारी क्लास चल रही थी। स्कूल की हाफ रिसेस दोपहर 2:00 बजे होती थी जो 2:30 बजे तक खत्म हो जाती थी। एक दिन हम लोगों को यह पता लग गया कि हमारे फिजिक्स वाले सर और बाटनी जूलॉजी के सर छुट्टी में है। इन दोनों सर की क्लास हाफ छुट्टी के बाद ही होती थी। 

 फिर क्या था…..यह जानकर हम सभी क्लास के छात्रों ने मिलकर एक प्लान कर लिया।  हालांकि यह प्लान स्कूल के अनुशासन के विरुद्ध था। लेकिन नादान उम्र और फिल्मी हीरो के क्रेज के कारण हम लोगों ने ये निर्णय ले लिया था। वह प्लान यह था कि आज हाफ छुट्टी के बाद कोई टीचर तो क्लास में पढ़ाने आएंगे नहीं..! सो क्यों ना शहर के बिहार टॉकीज में लगे हुए संजय दत्त की पिक्चर 3 से 6 बजे वाली राकी देखने चलें। वैसे भी उन जमाने में संजय दत्त की यह पिक्चर का बहुत जोर-जोर से प्रचार हुआ था, जिससे हम लोगों की भी इच्छा थी कि यह पिक्चर देखने चलें। 

 फिर आखिर हम सब क्लास के स्टूडेंट का ये फाइनल हो गया कि रिसेस के बाद सब चलेंगे राकी पिक्चर देखने। बिहार टॉकीज हमारे स्कूल से दो ढाई किलोमीटर दूर पड़ता था। जैसे ही रिसेस हुआ हम सब स्टूडेंट जो बत्तीस  लोग थे , सभी के सभी एक साथ  बिहार टॉकीज की ओर पैदल ही निकल पड़े। टॉकीज पहुंचने पर हम लोगों ने देखा कि वहाँ बहुत ज्यादा भीड़ लगी हुई है। टिकट के लिए भी लंबी लाइन लगी हुई थी। यह देखकर हम सब का मुंह उतर गया, कि अब हम लोग पिक्चर कैसे देख पाएंगे।

वैसे भी उन दिनों हम लोगों के पास सीमित पैसे हुए करते थे, जैसे तैसे हम लोगों ने लोअर क्लास की टिकट के लिए पैसे इकट्ठे किए हुए थे। जिसे लेकर हम सब पिक्चर देखने पहुंचे थे। लेकिन टॉकीज परिसर में बहुत भारी भीड़ देखकर के हम लोग निराश हो गए। अब फिर हम लोगों का आपस में चर्चा होने लगा कि अब कैसा किया जाए। तभी हम बातचीत ही कर रहे थे कि एक पतला दुबला सा मरियल सा लड़का जो करीब करीब हमारे ही उम्र का रहा होगा। हम लोग के पास आया और कहने लगा कि आप लोगों को अगर टिकट चाहिए हो तो बताओ मैं टिकट का जुगाड़ कर दूंगा।

यह सुनकर हम लोगों ने उसकी तरफ देखा और कहा-  कैसे टिकट का जुगाड़ करेगा…? यह सुनकर उसने कहा कि  मैं कैसे भी आप लोगों के लिए टिकट का जुगाड़ कर दूंगा। आपलोग उसकी चिंता मत करिए। उसकी बात सुनकर  हम लोगों ने आपस में फिर विचार विमर्श किया और सभी ने एक स्वर में कहा ठीक है। इसी से टिकट मंगवा लेते हैं। फिर यह निर्णय लेकर हमने उस लड़के से पूछा कि हमको टिकट ला करके दे। हम लोग बत्तीस लोग हैं। हम लोगों ने इसे पूछा बत्तीस टिकट मिल जाएगा? तब उसने टपोरिए अंदाज में कहा फिकर नाट…मैं पूरे बत्तीस टिकट ला करके दे दूंगा। लोअर क्लास की टिकट उस जमाने में एक रुपए साठ पैसे की आती थी। उस लड़के ने पर टिकट के लिए दो रूपये के हिसाब से पैसे मांगा। इसपर हम लोगों ने जैसे भी करके दो-दो रुपए के हिसाब से उसे कुल चौंसठ रुपए दे दिए और उस लड़के को कहा कि  पिक्चर शुरू होने के पहले जल्दी से टिकट ला करके दे।  

 उसने कहा मैं पंद्रह बीस मिनट के अंदर आप लोगों के लिए टिकट ला करके दे रहा हूं। इतना कह करके वह लड़का लोअर क्लास की लगी हुई लंबी लाईन में आगे की ओर लोगों के बीच घुस गया और लाइन में लग गया। उसकी यह चालाकी और ढिठाई देख करके हम लोग को विश्वास हो गया कि वह हमें टिकट ला करके दे देगा। सो अब हम निश्चित हो गए कि अब टिकट तो मिल ही जाएगा। 

इसके बाद हम सभी लोग कोई चार चार पांच पांच के ग्रुप में बंट गए कोई पोस्टर देखने में लग गया तो कोई इधर-उधर घूमने लगे, कोई फल्ली चना के लिए चला गया। सब कुल मिलाकर के सब अलग-अलग ग्रुप में बंट के परिसर में ही घूमने लगे। हम लोगों ने एक दूसरे को कह दिया कि तुम उस लड़के को देखे रहना। अब हम सब निश्चित और बेपरवाह हो गए!  अब तो टिकट भी मिल जाएगा और मजे से हम संजय दत्त की राकी पिक्चर देखेंगे, यह सोच-सोच करके हम सभी मन ही मन मजे लेने लग गए। अब जनाब हुआ यूं या कह सकते हैं कि हमारे बेपरवाही का नतीजा निकला कि वह मरियल और दुबला पतला सा  लड़का जो हमारे टिकट के लिए लाइन में लगा हुआ था, वो कहीं गायब हो चुका था। टाईम भी आधे घंटे से अधिक बीत चुका था वहीं होते-होते सारी लाइन भी खत्म हो गई। उधर हाल के अंदर पिक्चर शुरू हो गई। 

उस लड़के का कहीं अता पता नहीं था। हम लोगों ने पूरे टाकीज परिसर में उसे छान मारा…लेकिन वह लड़का जो गायब हुआ की फिर उसका कहीं पता ही नहीं लगा। कुल मिलाकर के वह लड़का हमारे पैसे लेकर के चंपत हो गया था और हम लोगों को बेवकूफ बना गया था। हम लोगों को जब तक यह समझ में आया कि हमको उसे लड़के ने बेवकूफ बना दिया है और हमारे 64 रुपए लेकर के भाग गया है। तब हम लोगों के लिए सर पीटने के अलावा कोई चारा नहीं बचा रहा। सब एक दूसरे से नोंक झोंक करने लगे कि तुम लोगों ने ध्यान नहीं दिया, तुम लोगों को कहा गया था देखना वह दूसरा ग्रुप कहता कि तुम लोगों को कहा गया था तुम लोग ध्यान नहीं दिए। यही लड़ते झगड़ते हम लोग आखिरकार काफी निराश वापस घर की ओर चल पडे़। हम लोग यह चर्चा भी कर रहे थे देखो एक अकेला लड़का हम बत्तीस लड़कों को बेवकूफ बना करके चला गया और हम केवल मुंह देखते रह गए। 

यह हम सभी के लिए बहुत बड़ा झटका भी था और गुस्सा भी था, हम लोग यह भी सोच रहे थे कि अगर वह लड़का मिल जाए तो सब मिलकर उसे दो दो हाथ भी मारेंगे तो साला चौंसठ हाथ में तो अधमरा ही हो जाता। कुल मिलाकर हम सब बुद्धू लौट करके एक दूसरे को कोसते हुए लड़ते हुए निराश अपने-अपने घर की और प्रस्थान कर गए। इसके दूसरे दिन जो हम लोग के साथ हुआ वह और भी अफसोस जनक था। वह यह था कि जब हम दूसरे दिन स्कूल पहुंचे तो स्कूल में सब टीचर्स  को यह पता लग गया था कि हम  हाफ टाइम के बाद स्कूल बंक करके राकी पिक्चर देखने चले गए थे। सो हम लोगों की  प्रिंसिपल साहब के पास पेशी हो गई और उन्होंने हम सब की एक-एक करके अच्छी तरह से खैर ली।

सुरेश सिंह बैस "शाश्वत"
सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”
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