दशहरा: धर्म की जीत और अधर्म के अंत का संदेश

-02 अक्टूबर विजया दशमी के अवसर पर विशेष-

प्राचीन भारतीय संस्कृति में विजयादशमी केवल एक पर्व नहीं, बल्कि वह शाश्वत सत्य है जो हमें हर युग में यह स्मरण कराता है कि बुराई कितनी भी शक्तिशाली क्यों न हो, अंततः उसे सत्य और धर्म के आगे झुकना ही पड़ता है। त्रेता युग में मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने घोर अत्याचारी लंकापति रावण का संहार कर इस शाश्वत सत्य को स्थापित किया था। तभी से दशहरा न केवल राम की विजय का प्रतीक है, बल्कि यह भी सिखाता है कि धर्म की विजय और अधर्म का पतन अनिवार्य है।

रावण का जन्म ब्राह्मण ऋषि विश्रवा और कैकसी के पुत्र रूप में हुआ था। उसके सौतेले भाई कुबेर देवताओं में धन के अधिपति माने जाते हैं। परंतु इतनी ऊँची कुल परंपरा में जन्म लेने के बावजूद रावण अपनी असुर प्रवृत्तियों के कारण विनाश की राह पर चला गया। अपार शक्ति और विद्या प्राप्त करने के बाद भी वह अहंकार, लोभ और अधर्म में डूब गया। उसने देवताओं तक को परास्त किया, स्वर्ग तक पर अधिकार कर लिया और अमरत्व प्राप्त कर लंका को वैभव और ऐश्वर्य का केंद्र बना दिया।

स्वर्णमयी लंका में रावण का राजमहल रत्नों से जड़ा हुआ था, चारों ओर कमल-पुष्पों से भरी खाई, सुगंधित पदार्थों से सुवासित आंतरिक कक्ष और विलासिता की पराकाष्ठा वहाँ विद्यमान थी। किंतु यह वैभव भी उसके अहंकार को शांत न कर सका। उसने स्वयं अपने सौतेले भाई कुबेर से पुष्पक विमान छीन लिया और इन्द्र, वरुण, यम जैसे देवताओं को भी परास्त कर दिया। परंतु कपिराज बाली के सामने उसका साहस जवाब दे देता था। यह विरोधाभास बताता है कि शक्ति और सामर्थ्य के बावजूद अहंकार मनुष्य को पतन की ओर ले जाता है।

मर्यादा पुरुषोत्तम राम: धर्म और सत्य के प्रतीक

राजा दशरथ के पुत्र श्रीराम केवल हिंदू धर्म के ही आराध्य नहीं, बल्कि समस्त मानवता के लिए आदर्श हैं। उन्होंने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मर्यादा, सत्य और धर्म का पालन कर यह संदेश दिया कि शक्ति का सर्वोत्तम उपयोग तभी है जब वह धर्म की रक्षा के लिए किया जाए।

वाल्मीकि, तुलसीदास से लेकर रहीम जैसे मुस्लिम कवियों तक ने राम के आदर्शों का गुणगान किया। यह इस बात का प्रमाण है कि राम केवल एक धर्म या समुदाय के नहीं, बल्कि पूरी मानवता के प्रतिनिधि हैं। वनवास के दौरान श्रीराम ने चित्रकूट के कामदगिरि में व्यतीत किए, जिससे यह स्थल आज भी पवित्र और पूजनीय माना जाता है। यह वही राम हैं जिन्होंने धर्म की रक्षा के लिए अपने प्रियजनों तक को त्याग दिया, और बुराई के प्रतीक रावण को परास्त कर सत्य की विजय सुनिश्चित की।

राम और रावण के बीच का युद्ध केवल दो व्यक्तियों या दो सेनाओं के बीच का संघर्ष नहीं था। यह दो जीवन दृष्टियों, दो संस्कृतियों, धर्म और अधर्म, तथा सत्य और असत्य के बीच का महासंग्राम था। एक ओर राम थे, जो धर्म, मर्यादा और सत्य के मार्ग पर चलकर मानवता के कल्याण का प्रतिनिधित्व कर रहे थे, वहीं दूसरी ओर रावण था, जो ज्ञान और सामर्थ्य होते हुए भी अहंकार, लोभ और अधर्म में डूबा हुआ था। रावण ने कपि सेना को कमज़ोर और तुच्छ समझकर अपनी भूल की। यह उसका घमंड और मतिभ्रम ही था कि उसने राम की सेना को नज़रअंदाज़ किया। लेकिन अंततः कई दिनों तक चले घमासान युद्ध के बाद रावण का अंत श्रीराम के हाथों हुआ।

प्रत्येक वर्ष दशहरे पर हम रावण का पुतला जलाते हैं। हर वर्ष उसका आकार बड़ा होता जाता है, और उसका बाहरी स्वरूप अधिक आकर्षक बनता जाता है। लेकिन प्रश्न यह है कि क्या रावण का अंत केवल उसके पुतले के साथ ही हो जाता है? सत्य यह है कि रावण आज भी हमारे भीतर और हमारे समाज में जीवित है। उसका रूप अब केवल दस सिरों वाला राक्षस नहीं, बल्कि हमारे भीतर की ईर्ष्या, घृणा, लोभ, अहंकार, अन्याय, भ्रष्टाचार और अधर्म के रूप में विद्यमान है। हममें से प्रत्येक को यह आत्ममंथन करना होगा कि क्या हमने अपने भीतर के रावण को जलाया है?

जब तक हम राम के आदर्शों – सत्य, करुणा, धर्म और मर्यादा – को अपने जीवन में नहीं उतारते, तब तक बुराई किसी न किसी रूप में हमारे चारों ओर बनी रहेगी। रावण के पुतले को जलाना केवल एक प्रतीकात्मक क्रिया है, वास्तविक विजय तब होगी जब हम अपने भीतर के रावण को परास्त करेंगे।

विजयादशमी का अर्थ केवल आतिशबाज़ी और पुतला-दहन नहीं है। इसका सच्चा अर्थ है –

  • सत्य के मार्ग पर चलने का संकल्प लेना।
  • धर्म की रक्षा के लिए साहस जुटाना।
  • अहंकार और लोभ को त्यागकर विनम्रता अपनाना।
  • अन्याय और अधर्म के विरुद्ध खड़ा होना।

यदि हम श्रीराम के जीवन और आचरण का किंचित भी अनुसरण कर लें, तो हम न केवल अपने भीतर की बुराइयों पर विजय पा सकते हैं, बल्कि समाज में भी परिवर्तन ला सकते हैं। तब हम भी आज के राम और रावण युद्ध के विजेता कहलाएंगे और हमारा जीवन भी राममय बन जाएगा।

राम और रावण का युद्ध केवल त्रेता युग की कथा नहीं है। यह हर युग, हर समाज और हर व्यक्ति के भीतर चलता रहता है। हर विजयादशमी हमें यह याद दिलाती है कि बुराई कितनी भी शक्तिशाली क्यों न हो, सत्य और धर्म की विजय अपरिहार्य है।

आज भी जब हम रावण का पुतला जलाते हैं, तो वह केवल अतीत की स्मृति नहीं होती, बल्कि वर्तमान और भविष्य के लिए भी एक संदेश होती है –
-कि हमें अपने भीतर के रावण को पहचानकर उसका दहन करना होगा।
-कि हमें श्रीराम के मार्ग पर चलकर जीवन संग्राम में विजेता बनना होगा।

आइए, इस विजयादशमी पर हम सब मिलकर यह संकल्प लें कि न केवल समाज में बल्कि अपने भीतर भी अच्छाई को विजयी बनाएंगे और बुराई को समाप्त करेंगे। तभी यह पर्व अपने सच्चे अर्थों में सार्थक होगा।

सभी पाठकों को विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनाएँ और जीवन संग्राम में विजयी होने की मंगलकामनाएँ!

उमेश कुमार सिंह
उमेश कुमार सिंह
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