मौलाना ने कभी नहीं चाहा देश का बंटवारा

-11 नवंबर मौलाना अब्दुल कलाम आजाद जयंती अवसर पर-

भारत की स्वतंत्रता और भारत की सेवा करने वालों में मौलाना अबुल कलाम आजाद का नाम प्रमुख है। सन 1857 की जंगे आजादी में उनके पिता भी एक सेनानी थे। उस समय उनकी गतिविधियों को देखकर अंग्रेज सरकार बौखला उठी और उनके ऊपर अपने अत्याचारों का शिकंजा कस दिया। उस आफत से बचने के लिए वे दिल्ली छोड़कर अरब स्थित मक्का में चले गए। वहीं सन 1888 में मौलाना आजाद का जन्म हुआ। उनकी सारी तालीम कुछ तो अपने वालिद के कदमों में हुई और कुछ पुराने तर्ज के संकतबों और मदरसों में हुई। उच्च शिक्षा काहिरा की अल अजहर विश्वविद्यालय में ग्रहण किया। छोटी उम्र में ही मौलाना आजाद ने पश्चिम एशिया के कई देशों में जाने का अवसर प्राप्त किया। उन दिनों सारे एशिया में कौमी आजादी की जबरदस्त लहरें उठ रही थी। होनहार  कलाम आजाद की खोजी और पवित्र आत्मा पर इसका बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। यही प्रभाव उनके भारत आने के पश्चात पूरी तरह से मुखरित हुआ।

मौलाना ने कभी नहीं चाहा देश का बंटवारा

‌मौलाना के दादा मौलाना मुहम्मद शाह दानी के उस्ताद और पीर थे। इनके पिता मौलाना मोहम्मद खैरु‌द्दीन मक्के से लौटकर कुछ दिन बंबई में रहने के पश्चात कलकत्ता जाकर बस गए। सन 1908 में उनकी मृत्यु हो गई। मौलाना आजाद बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। फिर ऊपर से उच्च शिक्षा और अनेक देशों में घूमकर प्राप्त किया अनुभव का ज्ञान उनकी सोच एवं विचार को बहुत परिस्कृत एवं प्रभावित कर गया था। वे अंग्रेजी, फारसी, अरबी, उर्दू हिंदी की जुबान फरटि से बोलते थे। आजाद ने पूरब और पश्चिम की दोनों धाराओं को खूब गहरे देखा समझा था, जिसके फलस्वरुप दोनों के मिश्रण से उन्होंने दोनों सभ्यताओं के मंथन पश्चात कई नए विचारें क्रा प्रतिपादन किया।   

 मौलाना ने अपने विचारों को सामान्य जन तक पहुंचाने के लिए सबसे पहले एक साप्ताहिक अखबार “लिसानुल हक” निकाला। जिसका मतलब है सत्य की आवाज इस अखबार ने लोगों के दिलो पर अबुल कलाम आजाद का सिक्का बिठा दिया। मौलाना ने ही देश की स्वतंत्रता की धारा से कटे ओर अलग थलग रहने वाले मुसलिम समुदाय को सियासी हलचलों में जोड़ने की अहम भूमिका निभाई। यह सब देखकर अंग्रेजों के कान एकदम खड़े हो गए। और उन्होंने भी कूटनीतिक चाले चलनी शुरु कर दी। फूट डालो और राज करो की नीति के तहत उन्होंने मुसलमानों को हिंदुओं के खिलाफ भड़काना शुरु कर दिया। अंग्रेज अपने मतव्य में एक हद तक सफल भी हो गए पर धीरे-धीरे दोनों समुदाय के लोगों को यह अच्छी तरह से समझ में आ गया कि हमारे एक रहने में ही सभी की भलाई है।

  अबुल कलाम जैसे युवको की समिति ने इस प्रकार के जन जागरण में महति भूमिका का निर्वहन – किया। कलाम ने अपने उर्दू अखबार “अल हिलाल” के संपादकीय लेखों में निडरता के साथ देश की आजादी पर खुले आम आग उगला। इसका भारतीय मुसलमानों के दिलों और दिमाग पर गहरा और जबरदस्त असर पड़ा। नतीजा यह हुआ कि अलीगढ़, की फिर के वारांना इमारत का सारा ढांचां यहां तक की उसकी जड़ें तक हिल गई। उस इमारत की रक्षा करने वाले अंग्रेजों को डर सताने लगा कि उनकी सारी मेहनत मिट्टी में न मिल जाए, तब अंग्रेजों ने उन्हें पूरे चार वर्ष तक रांची में नजरबंद कर दिया।  

महात्मा गांधी ने इसी समय  अहिंसात्मक असहयोग को भारत की आजादी का जरिया बताकर उसे देशवासियों के सामने पेश किया। तब  मौलाना आजाद और गांधी ने मिलकर देश की आजादी के लिए काम करने का फैसला किया और उस समय से लेकरं जिंदगी के अंत तक मिलकर काम करते रहे। अंग्रेजों के अत्याचार और मुस्लिम लोगो के खिलाफत करने के बावजूद वे थोड़ा भी – अपने पथ से विचलित नहीं हुए। देश की आजादी के खतरों और कांटों से भरे रास्ते, पर चलते रहने का उनके दिल के अंदर अटल संकल्प था। इस दृढ़ विश्वास और इस संकल्प से ही मौलाना आजाद की महानता का सबूत मिलता है।

मौलाना आज़ाद के दृढ़ इरादों को तोड़ने के तरह तरह के हथकंडे अपनाए गए अत्याचार एवं दमन कार्यवाही की झड़ी लगा दी गई। पर फिर भी अंग्रेज सरकार उन्हें तोड़ने में कामयाब नहीं हो पाई। उन्हें बारह बरस से ज्यादा नजरबंदी और जेलखानों के भीतर बिताने पड़े।

जून 1941 में जर्मनी ने सोवियत संघ पर हमला किया और दिसंबर 1914 में जापान ने अमेरिका के नौसेना अड्डे पर पर्ल हार्बर पर हमला किया इसके साथ ही विश्व युद्ध का विस्तार हो गया। फासिस्ट देशों के साथ लड़ने वाले देश के उद्‌देश्य जब सुस्पष्ट हो गए तब उन्होंने सभी राष्ट्रों की स्वाधीनता को अपना समर्थन दिया। जनता द्वारा अपनी पसंद की सरकार बनाने के अधिकार को भी उन्होंने समर्थन दिया। इस प्रकार महायुद्ध सभी देशों की स्वाधीनता के लिए और जनतंत्र के लिए एक शक्तिशाली साध्य बन गया। मगर ब्रिटिश सरकार ने घोषणा की कि आत्मनिर्णय का सिद्धांत भारत पर लागू नहीं होगा। फासिस्ट को मानवता का शत्रु मानने वाले अबुल कलाम आजाद जैसे नेताओं ने कहा कि भारतीय जनता अपने देश की सरकार पर नियंत्रण स्थापित कर लेने के बाद फासिज्म के विरुद्ध लड़ाई में शामिल हो जाएंगी। परंतु समाप्त हो जाने के बाद भारत को स्वाधीनता देने का वादा करने से ब्रिटिश सरकार ने इंकार कर दिया।

सन 1923 में मौलाना पहली बार इंडियन नेशनल कांग्रेस के दिल्ली स्पेशल सेशन के चुने गए। सन 1940 में वे दो बार रामगढ़ कांग्रेस के सदर चुने गए। उक्त से लेकर आजादी मिलने और उसके बाद तक वह बराबर कांग्रेस पार्टी के बड़े कद्रदानों में बने रहे। हिंदुस्तान का बंटवारा उन्हें अदर तक कचोट गया। उनका विचार था मैं अंग्रेजों से कभी नहीं हारा पर अपनों के बंटवारे के निर्णय ने मुझे हरा दिया।

सुरेश सिंह बैस "शाश्वत"
सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”
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