बिलासपुर: शहर की पुरानी बस्ती कतियापारा में स्थित यह इलाका, जिसे वर्षों तक मोपका नाका के नाम से जाना जाता था, आज खामोशी में डूबा पड़ा है। कभी यह स्थान शहर की सबसे सक्रिय आवाजाही वाले चुंगी नाकों में से एक हुआ करता था। अरपा नदी के उस पार बसे गांवों से लोग रोज़मर्रा की आवश्यक वस्तुएँ-लकड़ी, छेना, दूध, दही, घी, अनाज और फल-सब्ज़ियां ,यहीं से शहर में लेकर प्रवेश करते थे।


अरपा नदी पार के कई गांवों से होता था व्यापार
नदी पार के गांव लिंगियाडीह मोपका,चिल्हाटी, गतौरा,खैरा, लगरा,मटियारी, पंधी, धनिया, गुड़ी,ए सीपत, बिजौर, परसाही, खमतराई ,बहतराई, यहां तक की सोंठी, कुली जैसे दूर दराज के गांवों के भी ग्रामीण व किसान अपने सामान लेकर इसी रास्ते से नदी पार करते थे और शहर में अपना व्यापार करते थे।
बैलगाड़ी, कांवर और सिर पर बोझा लेकर लाया जाता सामान
उन दिनों ट्रैक्टर जैसे आधुनिक वाहन नहीं होने के कारण केवल बैलगाड़ी, कांवर में व सिर पर बोझ लेकर व्यापारी ग्रामीण अपने सामान लाते थे। नदी पार से शहर प्रवेश के लिए केवल एक पुराना सरकंडा पुल जो दूर होने के कारण लोग इसी स्थान से नदी को पार करते हुए शहर प्रवेश करते थे। उन दिनों मोपका नाका में बहुत भीड़ भाड़ और ग्रामीणों व्यापारियों की आवाजाही दिनभर लगे रहती थी।

अस्सी दशक के उत्तरार्ध तक चुंगी नाका का अस्तित्व रहा
यह सिलसिला करीब सन 1980 – 82 तक चला। फिर धीरे-धीरे शहर में अरपा नदी पर पुल बनने लगे। सबसे पहले तोरवा पुल फिर शनिचरी रपटा का निर्माण हुआ। आज तो शहर में नदी पार से आने के लिए अनेक पुल बन गए हैं। इन पुलों के बन जाने के बाद चुंगी और नाका सिस्टम भी समाप्त हो गया, लोगों का आना-जाना भी लगभग खत्म हो गया। और इसी समय से जब इसकी आवश्यकता खत्म हो गई तो मोपका नाका में धीरे-धीरे वीरानगी और सन्नाटा भी पसर गया है।
नदी पार से व्यापार आवागमन का प्रमुख केंद्र मोपका नाका
मोपकानाका में पुराने समय में खासकर सुखे दिनों में बैलगाड़ियों और बोझ ढोने वाले मजदूरों के सहारे व्यापार चलता था, वहीं बारिश और बाढ़ के मौसम में नावें इस नाका की जान हुआ करती थीं। दूर-दराज़ के गांवों से व्यापारी और किसान नदी पार कर यहीं से शहर में कदम रखते थे। सभी गतिविधियों का नियंत्रण और चुंगी वसूली की जिम्मेदारी उस समय बिलासपुर म्युनिसिपल के पास थी।
मोपकानाका में रौनक और काफी चहल पल होता था
नाका पर इतनी चहल-पहल होती थी कि सुबह से शाम तक यहां भीड़ कम नहीं होती थी।समय बीतने के साथ जैसे-जैसे शहर में पुल और पक्के मार्ग बने, चुंगी व्यवस्था समाप्त हो गई और मोपका नाका भी धीरे-धीरे अपनी पहचान खोता गया। आज यह इलाका सुनसान पड़ा है। कभी जहां व्यापार की रौनक थी, अब वहां सन्नाटा और वीरानी नज़र आती है।मोपका नाका घाट किनारे मौजूद बरगद और पीपल का एक विशाल पेड़ अब भी उन पुराने दिनों का मूक साक्षी है। इसकी छांव में आने वाले लोग अब केवल अंतिम संस्कार के लिए मुंडन संस्कार व नदी स्नान के लिए आते हैं और अन्य कोई गतिविधियां नहीं दिखाई देते हैं। एक तरफ घाट के एक तरफ बजरंगबली का व्हाट्सएप पुराना सिद्ध मंदिर है वही मंदिर बजरंगबली के मंदिर के पीछे की ओर नव निर्मित भव्य शिव मंदिर भी अब बन चुका है, जो श्रद्धालुओं के आकर्षण का केंद्र है।
मोपका नाका शहर प्रवेश का एक प्रमुख नाका था : वृद्ध जोधन प्रसाद श्रीवास
स्थानीय निवासी जोधन श्रीवास उम्र 77 वर्ष ने बताया कि पहले मोपकानाका में बैलगाड़ी और कांवड़ वालों का भीड़भाड़ लगा रहता था। नाका में बहुत सारे होटल व दुकानें हुआ करती थीं जहां नदी पार के ग्रामीण व्यापारी कुछ देर रुक कर चाय नाश्ता के बाद फिर शहर में आगे बढ़ते थे। पुराने दिनों को याद करते हुए उन्होंने कहा उन दिनों यहां की रौनक बहुत हुआ करती थी। पास में ही उदई चौक में अच्छा खासा बाजार हुआ करता था। जहां हर तरह की दुकानें मौजूद थी। होटल, सब्जी दुकान, पान दुकान,बर्तन दुकान, कपड़े की दुकान, यहां तक की डॉक्टर का क्लीनिक भी हुआ करता था,अब तो उदई चौक में भी सारा कुछ खत्म हो गया है। इन्होंने बताया कि उदई चौक में ही आसाराम महाराज की होटल हुआ करती थी, जो दूर-दूर तक प्रसिद्ध थी।आसाराम महाराज जी के आलू गुंडा खाने के लिए प्रत्येक व्यापारी यहां जरूर रुका करते थे। अब यहाँ पर की वीरानगी और खत्म हो चले रौनक पर अफसोस व्यक्त किया।
