देश की राजधानी में हाहाकार है। वह इसलिए कि राजधानी की लाइफलाइन मानी जाने वाली यमुना उफान पर है। टीवी मीडिया या अन्य मीडिया को देखिये-गुनिये तो ऐसा लगता है कि दर्द से तड़पती राजधानी और हाहाकार करते लोगों के लिए यमुना जिम्मेदार है। मतलब राजधानी को उसकी ही लाइफ लाइन ने दर्द दिया है। सतही तौर पर देखें तो ऐसा ही लगता है। मगर क्या वाकई ऐसा है? जी नहीं। वास्तविकता यह है कि यमुना अपनी राह पर है।
उस राह पर जो उसका था। उस राह पर जिसे हमने विकास के नाम पर उससे छीन लिया था। वास्तव में यह दर्द तो यमुना का है। दशकों बाद उसके सब्र का पैमाना छलक गया है। दशकों तक हम युमना की राह पर थे। जीवनदायिनी को मारने पर तुले थे। आज तो यमुना अपनी राह आई है और हम उसे राजधानी को दिए गए दर्द के लिए जिम्मेदार ठहरा रहे हैं।
मशहूर गांधीवादी और पर्यावरणविद अनुपम मिश्र बार-बार इसकी चेतावनी देते थे। वह नदियों का इतिहास याद दिलाते हुए सचेत करते थे। मिश्र कहते थे कि हर नदी कुछ दशकों या फिर सदियों के बाद अपने पुराने रूप में लौट आती है। तब इंसान का विज्ञान और इंसान का विकास धरा रह जाता है। तब नदियां किसी की नहीं सुनती। मगर देखिये कि इस तथ्य की कैसी अनदेखी की गई। यमुना के तट पर या यमुना की जमीन पर शहर बसा दिए गए।
और तो और यमुना के ठीक किनारे मल्टी स्टोरी फ्लैट्स बना दिए गए। अक्षरधाम मंदिर बनाए गए। यहां तक कि मेट्रो स्टेशन और मेट्रो की पटरियां बिछा दी गई। तलहटी पर कल कारखाने बिछा दिए। यह जानते हुए भी कि भले ही हमने यमुना को मार दिया है। उसे एक गंदे नाले में तब्दील कर दिया है। मगर यमुना है तो एक नदी ही। नदी है तो नदी का अपना स्वभाव यमुना कैसे भूलेगी। ऐसा लगता है कि नाराज यमुना अब राजधानी से अपना हिस्सा मांग रही है। अपने हिस्से में घूम टहल रही है। और हम इसे हाहाकार और बाढ़ का नाम दे रहे हैं।
वैसे यह दृश्य वाकई हृदयविदारक है। घरों में यमुना का पानी घुसने के कारण हजारों परिवार सडक़ों के किनारे डेरा डाले बैठे हैं। यह दृश्य कुछ दूसरी तरह का अहसास दिलाता है। ऐसा लगता है कि माने एक ऊबी नदी ने अपनी छटपटाहट में हजारों परिवारों को अपनी गोद से बाहर फेंक दिया है। शायद ऐसा कर यमुना कुछ याद दिलाना चाहती है।
शायद वह यह कहना चाहती है कि बहुत हो गया। मरती नदी को जीवन दो या फिर खुद मरने के लिए तैयार हो जाओ। यमुना अपना पुराना रूप दिखा कर हमें याद दिलाना चाहती है कि कैसे हमने अपने जीवनदायिनी नदी की धमनियों से लहू निकाल लिया है। एक खूबसूरत नदी को नाले में बदल दिया है। एक जीवंत नदी को गाद से भर दिया।
यमुना बताना चाहती है कि विकास के लिए अंधे हम और आप दरअसल कालीदास की तरह मूर्ख हैं। कालीदास ने उस टहनी को काटा था जिस पर वह बैठा था। और हमने उस नदी का गला घोंट दिया जो लाखों-करोड़ों की जीवनदायिनी मां थी। यमुना बताना चाहती है कि जब उसके पेट को गाद से से भर दोगे, उसके किनारों पर कब्जा कर गला घोंट दोगे, तब अगर अधिक बारिश होगी तो वही होगा जो हो रहा है।
भले ही किसी ने व्यंग्य में लिखा है, मगर यमुना के मामले में यह सच है। किसी ने यमुना के पानी के सुप्रीम कोर्ट की दहलीज पर पहुंच जाने पर खूबसूरत व्यंग्य किया है। उसने लिखा है- यमुना सुप्रीम कोर्ट अर्जी लगाने पहुंची है। उसकी शिकायत है कि उसकी सफाई के नाम पर करोड़ों-अरबों खर्च करने के बावजूद वह पहले से ज्यादा मैली क्यों हो गई? किसी ने यमुना के राजधानी के श्मसान घाट को जलमग्न कर देने पर भी व्यंग्य किया है। किसी ने लिखा दरअसल यमुना बताना चाहती है कि अब श्मसान घाट की जरूरत नहीं क्योंकि उसने जल समाधी की व्यवस्था कर दी है।
अब जरा तथ्य की दृष्टि से समझिये की पूरा मामला क्या है। दरअसल नदी की अपनी एक प्रकृति होती है। बड़ी और मध्यम आकार की नदियों का डूब क्षेत्र पांच से दस किलोमीटर का होता है। इस दृष्टि से यमुना एक बड़ी नदी है। ऐसे में इसका डूब क्षेत्र ही पांच से दस किलोमीटर का है। पहले यमुना का नदी का किनारा ही चार से पांच किलोमीटर का होता था।
उसमें अब औसत डूब क्षेत्र को जोड़ दीजिये। मतलब जहां यमुना बह रही है उसके दोनों ओर पांच से दस किलोमीटर पर कोई निर्माण होना ही नहीं चाहिए था। अब इस नदी के उद्गम स्थल से इसके इलाहाबाद में गंगा से मिल जाने तक की यात्रा करिए। अब बताईये की इस सैकड़ों किलोमीटर की यात्रा में आपको एक भी जगह नजर आई जहां यमुना के लिए पांच से दस किलोमीटर की जगह छोड़ी गई हो। किलोमीटर की बात यहां बेमानी है। सच्चाई यह है कि निर्माण कार्य करते समय यमुना के लिए कई जगहों पर सौ मीटर क्षेत्र भी नहीं छोड़े गए।
इसके लिए आपको ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं है। यमुना पर बने आईटीओ पुल के आसपास ध्यान से देखिये। पता कीजिये कि कॉमनवेल्थ विलेज यमुना से कितनी दूर है। अक्षरधाम मंदिर और अक्षरधाम मेट्रो स्टेशन कितनी दूर है। बस महज चंद मीटर की दूरी पर। इस व्यवस्था ने विकास के नाम पर नदी को जंजीरों से जकड़ दिया। इससे भी पहले एक मुगल बादशाह ने 17वीं शताब्दी में यमुना का अतिक्रमण का लाल किला बनवाया।
उसे लगा कि उसने प्रकृति पर विजय प्राप्त कर ली है। यह नहीं सोचा कि प्रकृति को कोई बांध नहीं सकता। नदियों पर बंदिश नहीं लगाई जा सकती। विकास और आपका विज्ञान प्रकृति के समक्ष कुछ भी नहीं है। नदी अपने पुराने स्वरूप में लौटती ही है। गाद भरा होगा तो उफनती भी है। तब नदियां इंसानों की लालसा और लालच से बने घर की परवाह नहीं करती। तब नदियां यह भी नहीं देखती कि किसी बादशाह ने उसका अतिक्रमण किया था, इसलिए उसका सम्मान किया जाए। आज तीन सदी के बादअ लालकिला बंद है।
दरअसल यह जीवनदायिनी यमुना को नहीं खुद को कोसने का व्यक्त है। अपनी असीमित और हाहाकारी लालसाओं को कोसने का वक्त है। यह उस राजनीतिक व्यवस्था और विकास का मानक तय करने वाली उस मानसिका तो कोसने का वक्त है, जिसने क्षणिक लाभ के लिए मौत का कुंआ खोदा है। यह समय उस राजनीतिक व्यवस्था में घुस आए भ्रष्टाचार को कोसने का वक्त है, जिसने यमुना, गंगा सहित कई नदियों को जीवन देने के नाम पर उसके मौत का सौदा किया है।
यमुना तो हमसे और आपसे और राजनीतिक व्यवस्था से अपना हिसाब मांगने आई है। यमुना अपनी ही जमीन पर इस समय बस टहल रही है। यमुना का यह टहलना एक चेतावनी है। वह बताने आई है कि वह अपनी जमीन, अपने घर पर दौड़ भी लगा सकती है। जरा सोचिये, जब यमुना के एक करवट लेने पर हाहाकार का स्तर इतना बड़ा है तो उसके उठ खड़ा होने पर क्या होगा? फिलहाल शुक्र मनाईये कि यमुना ने बस करवट बदली है।
जरूरी यह है कि हम युमना के उठ खड़े होने का इंतजार न करें। यमुना उठ खड़ी होगी तो क्या होगा, वर्तमान स्थिति इसका महज एक संकेत है। यमुना यही संकेत देने राजधानी के अपने कुछ हिस्से में दस्तक देने आई है।