अंगदान : जीवन का उपहार

अंगदान में एक व्यक्ति से स्वस्थ्य अंगों और उतकों को दूसरे व्यक्ति में प्रत्यांरोपित करने के लिये लिया जाता है। ये अंग केवल किसी व्यक्ति की स्वाभाविक मृत्यु के पश्चात् या जब व्यक्ति को ब्रेन डेड मानसिक रूप से मृत घोषित किया जाता है जो भारत में ‘मानव अंगों के प्रत्यारोपण अधिनियम (ट्रांसप्लां टेशन ऑफ हृयुमन आर्गेन एक्टअ)’ 1994 के अंतर्गत वैध है, तभी लिये जाते हैं। इस अधिनियम के पश्चात ही ब्रेन डेड दाता से कईं अंगों के प्रत्यारोपण की गतिविधियों को किया जाना संभव हुआ। नि:संदेह, गुर्दे, हृदय, लीवर, अग्नािश्यक, आंतें, फेफड़े, हड्डियां, बोन मैरो, त्वचा और कार्निया  सभी को दान किया जा सकता है और उस रोगी में प्रत्यारोपित किया जा सकता है जो अंग प्रत्या रोपण की प्रतीक्षा कर रहे हैं, इस प्रकार से, उसके जीवित रहने के अवसर बढ़ जाते हैं और उसे जीवनदान मिल जाता है।   

चिकित्सा विज्ञान की प्रगति के साथ, मानव अंग दान तेजी से उपचार का एक प्रमुख अंश बन रहा है और इसे बहुत सारी घातक बीमारियों के लिये उपचार का सबसे बहतरीन उपाय स्वीकार किया गया है। हालांकि, अंग प्रत्याारोपण सर्जरियों की सफलता की दर के बावजूद, भारत अभी भी उन लोगों की संख्या में बहुत पीछे है जो शव के अंगदान कार्यक्रम के लिये आगे आते हैं। 

गुर्दा प्रत्यारोपण

अंग दान और अंग प्रत्यारोपण हर साल हजारों लोगों को नई जिंदगी देता है, लेकिन हर साल सैकड़ों भारतीय अंग प्रत्यारोपण के इंतजार में मर जाते हैं। इसकी वजह है अंग दान करने वालों और प्रत्यारोपण का इंतजार कर रहे लोगों के बीच जबरदस्त असंतुलन। हर साल 2.1 लाख भारतीयों को गुर्दा प्रत्यारोपण की जरूरत होती है, लेकिन सिर्फ  3000 से 4000 गुर्दा प्रत्यारोपण ही हो पाते हैं। ऐसा नहीं है कि भारत में लोग अंग दान नहीं करना चाहते, लेकिन अस्पतालों में ब्रोन डेथ की पहचान करना और उनके प्रमाणन का कोई तंत्र मौजूद नहीं है।

जिस व्यक्ति की मस्तिष्क की मृत्यु हो चुकी हो और जिसे मृत्यु बाद अंग दान कहा जाता है वह अभी भारत में बहुत कम है। अब प्रश्न यह है कि आखिर इतने कम मरीज ही इलाज क्यों करवा पाते हैं? इसके पीछे भी कई कारण हैं  एक तो व्यक्ति को गुर्दे व इससे संबधित बीमारियों की जानकारी कम है, दूसरा देश के बहुत कम अस्पतालों में ही इसके इलाज की सुविधा है, तीसरा कारण है इसका इलाज बहुत मंहगा है और अधिकांश लोग व्यय के लिए संसाधन नहीं जुटा पाते  हैं। एक मुख्य कारण यह भी है कि हमारे देश में आर्गन डोनेट करने की दर बहुत कम है। जिसकी वजह से रोगी को समय पर दान की हुई किडनी नहीं मिल पाती।  जबकि एक सच यह भी है कि अगर आदमी का एक गुर्दा निकाल दिया जाय तो एक गुर्दे से भी जीवन सुचारू रूप से जिया जा सकता है।

कौन गुर्दा प्रत्यारोपण करवा सकते हैं:-

यदि मरीज युवा है तो प्रत्यारोपण डायलिसिस की तुलना में बेहतर समझा जाता है। गुर्दा प्रत्यारोपण एक व्यक्ति कों अध्ययन, यात्रा, काम करने के लिए अनुमति देता है, दूसरे शब्दों में रोगी एक सामान्य जीवन जी सकता है। बुजुर्ग रोगियों (65 वर्ष से अधिक उम्र) को डायलिसिस पर रखना बेहतर होता है आम तौर पर जो रोगी किसी भी अन्य गंभीर रोग यानी दिल की बीमारी या असाध्य रोग से ग्रसित नहीं है वो लोग गुर्दा प्रत्यारोपण तो रोगी के के लिए उम्मीदवार हैं । जब गुर्दा प्रत्यारोपण कि उपयुक्तता की बात आती है लिए भावनात्मक स्थिरता एक मुख्य कारक है इसके अलावा लत का कोई इतिहास न होना एक व्यक्ति को प्रत्यारोपण से गुजरने के लिए एक बेहतर स्थिति प्रदान करता है।

कौन गुर्दे दान कर सकते हैं:-

रोगियों के निकट रिश्तेदार जिनका रक्त समूह मिलता है तथा उनकी उम्र 21 -65 वर्ष की उम्र के बीच हे गुर्दा दान कर सकते है जिसके लिये परिजनों को ऊतक मिलान परीक्षण सहित परीक्षणों की एक श्रृंखला से गुजरना होता है तब गुर्दा दान के लिए उनकी उपयुक्तता का पता लगता है रोगी के परिवारिक संबंधी के अलावा अन्य लोगों को आमतौर पर दान करने की अनुमति नहीं है।

गुर्दा प्रत्यारोपण:-

गुर्दा प्रत्यारोपण में एक स्वस्थ गुर्दे को (जो दानकर्ता) दान करता है। त्वचा के नीचे गहराई से कूल्हे की हड्डी के पास स्थापित किया जाता है। गुर्दा प्रत्यारोपण में ब्लड ग्रुप का मेल खाना जरूरी है। जैसे प्रत्यापित गुर्दे दो स्त्रोतों से आते हैं.

जीवित दाता- परिवारजन। मृत्यु के पश्चात अपने शरीर के अंगों का दान करने के इच्छुक दान दाता।

आपरेशन के बाद मरीज 10 दिन अस्पताल में रहता है जब कि दान दाता 3-7 दिन में डिस्चार्ज हो जाता है। दान दाता का स्वास्थ्य एकदम ठीक रहता है तथा वह पहले की तरह सामान्य काम करता है। गुर्दा लेने वाला मरीज गुर्दा प्रत्यारोपण में 2-3 माह बाद अपना सारा काम कर सकता है। जिन मरीजों के पास दानदाता नहीं होते वे अब स्वैपिंग (दानदाता की अदलाबदली) जो दो परिवारों के बीच संभव है, करा सकते हैं। अब कैडवर ट्रांसप्लांट कार्यक्रम के अन्तर्गत ग्राफ्ट किडनी को नये सॉल्यूशन के साथ लंबे समय तक प्रिजर्व किया जाता है जिससे ऑर्गन आसानी से ट्रांसपोर्ट हो जाता है। यहां तक कि बिना ह्मदयगति वाले डोनर की किडनी को भी आसानी से ट्रांसप्लांट किया जा सकता है।

नेत्र दान से संभव है कॉर्निया प्रत्यारोपण

यदि राष्ट्रीय नेत्रहीनता नियंत्रण कार्यक्रम (एनपीसीबी) के आंकड़ों पर यकीन करें तो देश में फिलहाल लगभग 1.20 लाख लोग कॉर्निया दृष्टिहीनता से पीडि़त हैं। कॉर्निया में आई खराबी के कारण यदि किसी की दृष्टि चली जाती है तो उसकी आंख के उस हिस्से में केराटोप्लास्टी तकनीक या लैमेलर केराटोप्लास्टी तकनीक से स्वस्थ कॉर्निया प्रत्यारोपित की जाती है। लेकिन कॉर्निया प्रत्यारोपण की सबसे बड़ी दिक्त यह है कि अन्य अंगों की तरह इसे किसी प्रयोगशाला या फैक्टरी में नहीं बनाया जा सकता बल्कि स्वस्थ व्यक्ति द्वारा नेत्रदान किए जाने से ही प्रकृति-प्रदत्त कॉर्निया का प्रत्यारोपण के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है।

कॉर्निया दरअसल आंखों की ऊपरी परत होता है जो आंख के सामने वाले हिस्से को कवर करता है। कॉर्निया आंख की फोकसिंग क्षमता को 2/3 गुना अधिक करने की जिम्मेदारी निभाता है। हमारा कॉर्निया अपने पीछे बने चौंबर में आंसुओं और आंखों के पानी से ही पोषित होता रहता है। अच्छी दृष्टि के लिए कॉर्निया की सारी परतों को धुंधलाहट या अपारदर्शिता से मुक्त होना जरूरी होता है। जब किसी रोग, जख्म, संक्रमण या कुपोषण के कारण कॉर्निया पर धुंधली परत जम जाती है तो हमारी दृष्टि खत्म या कमजोर पड़ जाती है। हाल के दशक में लैमिलर ग्राफ्ट तकनीक का आविष्कार होने से कॉर्निया की अलग-अलग परतों का प्रत्यारोपण संभव हो पाया है। यह थोड़ी जटिल तकनीक है लेकिन इसके परिणाम काफी सफल रहे हैं। इसमें मरीज का संपूर्ण कॉर्निया नहीं बदला जाता है बल्कि उसकी क्षतिग्रस्त आंतरिक या बाहरी किसी भी परत को बदल दिया जाता है।

लैमिलर ग्राफ्ट तकनीक में रिकवरी और देखने की क्षमता बड़ी तेजी से बढ़ती है और साथ इसकी विफलता दर बहुत कम होती है। इस तकनीक का एक और फायदा यह है कि दान किए गए एक ही कॉर्निया का इस्तेमाल तीन-तीन व्यक्तियों की आंखों की रोशनी वापस लाने में किया जा सकता है।

लिवर ट्रांसप्लांटेशन

 लिवर ट्रांससप्लांट यानी यकृत एक सर्जिकल प्रक्रिया है। इसके तहत ठीक से काम न कर रहे लिवर को एक स्वस्थ लिवर से बदला जाता है। शरीर का यह सबसे लंबा आंतरिक अंग कई तरह के जरूरी काम करता है, जैसे रक्त की सफाई, संक्रमणों से बचाव तथा उन प्रोटोनी का निर्माण जो चोट लगने पर रक्त का थक्का बनाने में मदद करते हैं। इन्हीं वजहों से लिवर का ठीक से काम करना बहुत जरूरी है। यही कारण है कि बीमार लिवर को पहले तो मेडिकली मैने किया जाता है वहीं लिवर के फेल होने की दशा में लिवर ट्रांसप्लांट जरूरी हो जाता है।

लिवर अपने नाम की ही तरह लिविंग यानी जीने के लिए बहुत जरूरी अंग है। यह रक्त की सफाई के साथ-साथ रोग प्रतिरोधक क्षमता को बनाए रखने, कई तरह के प्रोटीन्स व एंजाइम्स के निर्माण आदि में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इन्हीं में से एक प्रोटीन चोट लगने पर रक्त का थक्का जमाने का काम करता है ताकि रक्त स्राव अधिक न हो पाएं। बीमार लिवर के संकेत एवं लक्षण से ज्वान्डिंस, फ्लूइड रेटेंशन, गैस्ट्रोइंटेस्टिनल ब्लीडिंग एंव एनसिफैलोपैथी नींद के पैटर्न में बदलाव, मतिभ्रम के बाद क्रमश:कोमा में जाना कुछ मुख्य लक्षण है, जिनमें तत्काल चिकित्सकीय देखभाल की जरूरत होती है।

 इस सर्जिकल प्रक्रिया में क्षतिग्रस्त लिवर को स्वस्थ लिवर से बदला जाता है। यह विकल्प उन मरीजों के लिए है, जिनका एकाएक या लंबे वक्त के दौरान इतना बीमार हो चुका हो कि दवाओं से उसे मैनेज न किया जा सकता हो। यह ट्रांसप्लांटेशन आमतौर पर दो परिस्थितयों में किया जाता है।

 लिविंग डोनर ट्रांसप्लांट तथा डिसीस्ड डोनर ट्रांसप्लांट। पहली श्रेणी में जीवित व्यक्ति के लिवर का कुछ हिस्सा लेकर उसे बीमार व्यक्ति में ट्रांसप्लांट कर दिया जाता है। देने वाले एंव लेने वाले दोनों ही के लिवर कुछ सप्ताह में सामान्य साइज में आ जाते हैं। इसमें दानकत्र्ता रक्त संबंधी, पति या पत्नी, मित्र या अन्य कोई भी हो सकता है, लेकिन उसका शारीरिक व मानसिक तौर पर स्वास्थ्य तथा लिवर डोनेशन के लिए तैयार होना आवश्यक है। दानकत्र्ता का ब्लड टाइप, बॉडी साइज व उम्र भी देखी जाती है। दूसरी श्रेणी में मृत व्यक्ति लिवर ट्रांसप्लांट के लिए लिया जाता है, जो क्लिनिकली ब्रेन डेड हो। ट्रांसप्लांट से पहले दानकर्ता को आईसीयू में रखा जाता है एवं ट्रांसप्लांट के दौरान लाइफ स्पोर्ट हटाया जाता है।

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