इंडिया महागठबंधन की बड़ी बाधा न बन जाये ‘आप’

आज की राजनीति सत्ताकांक्षी अधिक है, जबकि उसका मूल लक्ष्य राष्ट्र-निर्माण एवं राष्ट्र उन्नति कहीं गुम हो गया है। हर राजनैतिक दल राष्ट्रहित नहीं, अपने स्वार्थ की सोच रहा है। जैसे-जैसे पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव एवं अगले वर्ष आम चुनाव नजदीक आते जा रहे हैं, हर दल येन-केन-प्रकारेण ज्यादा-से-ज्यादा वोट प्राप्त करने की तरकीबें निकाल रहे हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों के महागठबंधन ‘इंडिया’ के बनने से पहले ही उसमें सीटों एवं शीर्ष नेतृत्व को लेकर फूट, अलग सुर, ऊंची महत्वाकांक्षा और बेतरतीब तालमेल दिखने लगा हैं।

इसमें सबसे ज्यादा अति-महत्वाकांक्षी आम आदमी पार्टी सेंध लगा रही है। राजस्थान, मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में लगभग सभी सीटों से चुनाव लड़ने की उसकी घोषणा ने इंडिया में खलबली मचा दी है। निश्चित ही वर्तमान राजनीति परिवेश में आम आदमी पार्टी ने अपनी स्वतंत्र जगह बनाई है, भविष्य में यह दल प्रमुख विपक्षी दल के रूप में उभर कर सामने आ जाये तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है।

राजनीति में अक्सर यह कहा जाता है कि जो दिखता है वह होता नहीं और जो होता है वह दिखता नहीं। विपक्षी गठबंधन इंडिया की 14 सदस्यीय को-ऑर्डिनेशन कमेटी की पहली बैठक दिल्ली में बेनतीजा रही। इसमें नेतृत्व के मुद्दे और सीटों को लेकर फैसला लिया जाना था, उस पर अब भी आपसी सहमति नहीं बन पाई है। सहमति बनाना आसान भी नहीं दिख रहा है। महागठबंधन में सबकुछ ठीक दिख नहीं रहा है। कोलकाता में भी ममता दीदी को नेतृत्व करने के लिए आवाज उठ रही है। महागठबंधन में भले ही कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस साथ दिख रहे हों लेकिन कांग्रेस के लोकसभा में नेता अधीर रंजन चौधरी ही ममता को राष्ट्रपति द्वारा दिए गए जी-20 के भोज में शामिल होने पर कटाक्ष कर चुके हैं।

दिल्ली में भी अरविंद केजरीवाल के लिए आम आदमी पार्टी के नेता नेतृत्व की मांग कर चुके हैं। आगामी विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी राजस्थान में सभी सीटों पर अकेले चुनाव लड़ने की घोषणा कर पहले ही महागठबंधन के अंदर की स्थिति को जगजाहिर कर चुकी है। हर राज्य में अमूमन कुछ न कुछ यहीं स्थिति है। ऐसे में महागठबंधन की राह आसान तो कतई नहीं है।

आम आदमी पार्टी ने पिछले कुछ सालों कई राज्यों तक अपना विस्तार कर लिया है। दिल्ली के बाद उसने पंजाब में सरकार बनाई है, गुजरात में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई है और मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भी किस्मत अजमाने के साथ इसी कड़ी में बिहार में भी चुनाव लड़ने जा रही है। असल में गतदिनों दिल्ली में आम आदमी पार्टी ने अपने बिहार के कार्यकर्ताओं के साथ एक बैठक की। उस बैठक के बाद ही आम आदमी पार्टी के राष्ट्रीय संगठन महामंत्री संदीप पाठक ने बताया कि पार्टी बिहार में भी चुनाव लड़ेगी।

उनके मुताबिक चुनाव लड़ने या ना लड़ने का सवाल ही नही उठता है, चुनाव में तो उतरना ही पड़ेगा। अब आम आदमी पार्टी के इन मंशाओं एवं घोषणाओं का इंडिया महागठबंधन पर असर होना स्वाभाविक है। आरजेडी नेता और सांसद मनोज झा ने दो टूक कहा है कि जिस समय विपक्षी एकता की नींव रखी गई थी, ये साफ किया गया था कि सभी पार्टियों को कुछ नियमों को पालन करना होगा। उन्होंने उम्मीद जताई है कि आम आदमी पार्टी भी उन सिद्धांतों का पालन करेगी। वैसे आम आदमी पार्टी के लिए बिहार कोई पहला राज्य नहीं है जहां वो दूसरे दलों के विरोध के बीच उतरने की बात कर रही हो।

कुछ दिन पहले ही आप संयोजक अरविन्द केजरीवाल ने कहा था कि वे मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में चुनाव लड़ने जा रहे हैं। दोनों ही राज्यों में उनकी तरफ से कांग्रेस पर निशाना भी साधा गया। इसी कड़ी में दिल्ली में कांग्रेस ने भी तल्ख तेवर दिखाते हुए कह दिया कि सातों सीटों पर चुनाव लड़ा जाएगा। यानी कि हर तरफ इंडिया गठबंधन के लिए चुनौती वाली स्थिति बन रही है। अब आम आदमी पार्टी की मंशा यह भी है कि लोकसभा चुनाव 2024 में कांग्रेस दिल्ली और पंजाब में चुनाव न लड़े। विपक्षी गठबंधन की पटना बैठक के दौरान आप नेताओं ने अपने बयानों में इस बात का जिक्र भी किया था।

आप नेताओं ने ऐसा करने पर कांग्रेस के साथ आगामी विधानसभा चुनाव वाले राज्यों में सहयोग करने के लिए राजी होने के संकेत दिए थे, पर इस मसले पर कांग्रेस नेताओं के अलग-अलग विचार हैं, जिसकी वजह से बात अभी तक नहीं बन पाई है। आप पार्टी एवं उसके नेता केजरीवाल की राजनीति एवं सोच अति महत्वाकांक्षी है, उनका व्यवहार झूठा है, चेहरों से ज्यादा नकाबें उन्होंने ओढ़ रखी है, उन्होंने सारे लोकतांत्रिक एवं राजनीतिक मूल्यों को धराशायी कर दिया है। ऐसी महत्वाकांक्षी राजनीति के चलते इंडिया महागठबंधन के भविष्य को लेकर ऊहापोह की स्थिति बन रही हैं। वक्त आ गया है कि देश की राजनीतिक संस्कृति की गौरवशाली विरासत को सुरक्षित रखने के लिये सतर्क एवं सावधान होना होगा। दिशाशून्य हुए विपक्षी नेतृत्व को नये मानदण्ड स्थापित करने होंगे।

बड़ी-बड़ी बातें करने वाली आम आदमी पार्टी के नेता राघव चड्ढा कहते हैं कि गठबंधन को सफल बनाने के लिए इसमें शामिल प्रत्येक राजनीतिक दल को तीन चीजों का त्याग करना होगा- महत्वाकांक्षा, मतभेद और मनभेद। पर खुद आप की कथनी और करनी में गहरा फासला है। जो राजनीतिक दल फर्जीवाडे़ एवं भ्रष्टाचार को सामान्य मानते हैं, हर कहीं जनता की आंखों में धूल झोंकने के लिए कुछ भी कह दो, कुछ भी कर लो और उजागर होने पर माफी मांगकर आगे बढ़ जाओ की विकृत सोच, चालाकी एवं अवसरवादी राजनीति पर नियंत्रण करना होगा। दरअसल गठबंधन में शामिल सभी पार्टियां महत्वाकांक्षा को त्यागने के दावे तो बहुत करती हैं पर वास्तव में कोई तैयार नहीं होता है।

इंडिया महागठबंधन में आम आदमी पार्टी सीटों के प्रश्न पर सबसे ज्यादा जड़ बनी हुई है। हरियाणा- दिल्ली और पंजाब में आम आदमी पार्टी की बढ़ती राजनीतिक इच्छाएं मुश्किल का सबब बन रही हैं। दिल्ली और पंजाब में कांग्रेस हो या आम आदमी पार्टी कोई भी अपना हित छोड़ने को तैयार नहीं है। दिल्ली-पंजाब और हरियाणा में कांग्रेस और आम आदमी पार्टी की राज्य इकाइयां खुलकर आमने-सामने हैं। ऐसी स्थितियांे में इंडिया का एजेंडा कैसे आगे बढ़ेगा? निश्चित ही इन स्थितियों में भारतीय जनता पार्टी की राह आसान होती हुई दिखाई दे रही है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को चुनौती देने की इंडिया एवं आम आदमी पार्टी की इच्छा आकार लेती हुई दूर तक दिखाई नहीं दे रही है। भले ही 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले मोदी को चुनौती देने के लिए केजरीवाल खुले तौर पर इंडिया महागठबंधन में शामिल हो गए। लेकिन केजरीवाल के कई अगर-मगर हैं।

वह खुद के बुते ही चुनाव लड़ने की मानसिकता के शिकार है। इसीलिये ‘आप’ रोजी-रोटी के मुद्दों और आम आदमी से जुड़े मुद्दों पर ध्यान केन्द्रित कर रही है। केजरीवाल हिन्दू मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए नरम हिन्दुत्व का खेल भी खेल रही हैं। केजरीवाल मुफ्त की पेशकश कर मतदाताओं को लुभाना चाहते हैं लेकिन उत्तर की रणनीति दक्षिणी राज्यों में कितनी कारगर हो सकती है, कहा नहीं जा सकता। आप की एक और दिक्कत है कि वह केजरीवाल तक ही केन्द्रित है। जबकि केजरीवाल को दूसरी पंक्ति के राज्य के नेताओं  का निर्माण करने की जरूरत है। पार्टी के संस्थापक सदस्य जैसे कि प्रशांत भूषण, योगेन्द्र यादव, शाजिया इलमी, कुमार विश्वास, आशुतोष और सिविल सोसायटी के सदस्य पिछले एक दशक में केजरीवाल की उच्चता का विरोध करते हुए आम आदमी पार्टी छोड़ चुके हैं। लगभग यही स्थिति इंडिया में बनने लगे तो कोई आश्चर्य नहीं?

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