कब भूखमरी एवं भूखें लोगों की दुनिया से निजात मिलेगी?

-विश्व खाद्य दिवस-16 अक्टूबर, 2024-

विश्व खाद्य दिवस 16 अक्टूबर को दुनिया भर में हर साल मनाया जाने वाला एक अंतरराष्ट्रीय दिवस है। 1945 में संयुक्त राष्ट्र खाद्य और कृषि संगठन की स्थापना उपलक्ष्य में यह दिवस भूख और खाद्य सुरक्षा से संबंधित कई अन्य संगठनों द्वारा व्यापक रूप से मनाया जाता है, जिसमें विश्व खाद्य कार्यक्रम, विश्व स्वास्थ्य संगठन और कृषि विकास के लिए अंतर्राष्ट्रीय कोष शामिल हैं। डब्ल्यूएफपी को भूख से लड़ने, संघर्ष क्षेत्रों में शांति में योगदान देने और युद्ध और संघर्ष के लिए हथियार के रूप में भूख के इस्तेमाल को रोकने में अग्रणी भूमिका निभाने के लिए 2020 का शांति का नोबेल पुरस्कार मिला। साल 2024 की थीम है बेहतर जीवन और बेहतर भविष्य के लिए भोजन का अधिकार।’ आज भारत एवं अन्य देशों में भोजन की बर्बादा को रोकना भी प्रमुख प्राथमिकता बननी चाहिए। भारत सरकार भी हर व्यक्ति तक भोजन की पहुँच और विशेष रूप से कमज़ोर वर्ग के लिए ‘प्रधानमंत्री गरीब कल्याण अन्न योजना’ व अंत्योदय अन्न योजना जैसे कार्यक्रम चलाती है।

विश्व की करीब दो अरब तीस करोड़ आबादी को भूखमरी एवं भूख का सामना करना पड़ रहा है। दो वक्त की भोजन सामग्री जुटाने के लिए इस आबादी को जिन मुश्किलों, संकटों एवं त्रासद स्थितियों का सामना करना पड़ रहा है, वह विश्व की सरकारों एवं व्यवस्थाओं के विकास के बयानों को बेमानी सिद्ध करता है। संयुक्त राष्ट्र की इस रिपोर्ट के मुताबिक, कोरोना महामारी और उसके बाद रूस-यूक्रेन युद्ध ने भूखमरी को विकट बनाने में अहम भूमिका निभाई है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि दुनिया 2030 तक सभी रूपों में भूख, खाद्य असुरक्षा, स्वास्थ्य और कुपोषण को खत्म करने के अपने लक्ष्य से और दूर जा रही है। लेकिन भारत-सरकार के प्रयासों से भारत में कुपोषण एवं भूखमरी से उबरने की सफल कोशिशें हो रही है। भारत की टिकाऊ और स्वस्थ खाने की आदतों की दिशा में प्रगति स्पष्ट है। खेत से लेकर मेज तक का आंदोलन जोर पकड़ रहा है, जो उपभोक्ताओं को ताजा, स्थानीय रूप से प्राप्त उपज से जोड़ रहा है। खाद्य उद्यमियों की सफलता की कहानियाँ लचीलापन और नवाचार को दर्शाती हैं, जो एक जीवंत खाद्य परिदृश्य में योगदान देती हैं। अत्याधुनिक खाद्य प्रौद्योगिकी नवाचारों के साथ, भारतीय खाद्य उद्योग विकसित हो रहा है, जिससे दक्षता और कम बर्बादी सुनिश्चित हो रही है।

कुपोषण और भुखमरी से जुड़ी वैश्विक रिपोर्टें न केवल चौंकाने बल्कि सरकारों की नाकामी को उजागर करने वाली ही होती हैं। विश्वभर की शासन-व्यवस्थाओं का नाकामी एवं शैतानों की शरणस्थली बनना एक शर्मनाक विवशता है। लेकिन इस विवशता को कब तक ढोते रहेंगे और कब तक दुनिया भर में कुपोषितों का आंकड़ा बढ़ता रहेगा, यह गंभीर एवं चिन्ताजनक स्थिति है। लेकिन ज्यादा चिंताजनक यह है कि तमाम कोशिशों और दावों के बावजूद कुपोषितों और भुखमरी का सामना करने वालों का आंकड़ा पिछली बार के मुकाबले हर बार बढ़ा हुआ ही निकलता है। रिपोर्टें बताती हैं कि ऐसी गंभीर समस्याओं से लड़ते हुए हम कहां से कहां पहंुचे है। इसी में एक बड़ा सवाल यह भी निकलता है कि जिन लक्ष्यों को लेकर दुनिया के देश सामूहिक तौर पर या अपने प्रयासों के दावे करते रहे, उनकी कामयाबी कितनी नगण्य एवं निराशाजनक है।

कुपोषण, गरीबी, भूख में सीधा रिश्ता है। यह दो-चार देशों ही नहीं, बल्कि दुनिया के बहुत बड़े भूभागों के लिए चुनौती बनी हुई है। दुनिया से लगभग आधी आबादी इन समस्याओं से जूझ रही है। इसलिए यह सवाल तो उठता ही रहेगा कि इन समस्याओं से जूझने वाले देश आखिर क्यों नहीं इनसे निपट पा रहे हैं? इसका एक बड़ा कारण आबादी का बढ़ना भी है। गरीब के संतान ज्यादा पैदा होती है क्योंकि कुपोषण में आबादी ज्यादा बढ़ती है। विकसित राष्ट्रों में आबादी की बढ़त का अनुपात कम है, अविकसित और निर्धन राष्ट्रों की आबादी की बढ़त का अनुपात ज्यादा है। भुखमरी पर स्टैंडिंग टुगेदर फॉर न्यूट्रीशन कंसोर्टियम ने आर्थिक और पोषण डाटा इकट्ठा किया, इस शोध का नेतृत्व करने वाले सासकिया ओसनदार्प अनुमान लगाते हैं कि जो महिलाएं अभी गर्भवती हैं वो ऐसे बच्चों को जन्म देंगी जो जन्म के पहले से ही कुपोषित हैं और ये बच्चे शुरू से ही कुपोषण के शिकार रहेंगे। एक पूरी पीढ़ी दांव पर है।’’ अफ्रीकी देशों से आने वाली तस्वीरें डराती हैं।

खाने के एक-एक पैकेट के लिए हजारों की भीड़ उमड़ पड़ती है। ऐसे में पौष्टिक भोजन की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती। महंगाई के कारण मध्य और निम्न वर्ग के लोग अपने खान-पान के खर्च में भारी कटौती के लिए मजबूर होते हैं। ऐसे में एक स्वस्थ व्यक्ति के लिए निर्धारित मानकों वाले खाद्य पदार्थ उनकी पहुंच से दूर हो जाते हैं। पौष्टिक भोजन के अभाव में लोग गंभीर बीमारियों की जद में आने लगते हैं। गरीब मुल्कों की मदद के लिए विश्व खाद्य कार्यक्रम को तेज करने की जरूरत है। विकासशील देशों को ऐसी नीतियां बनानी होंगी जो गरीबी, कुपोषण एवं भुखमरी दूर कर सकें। सत्ताएं ठान लें तो हर नागरिक को पौष्टिक भोजन देना मुश्किल भी नहीं है। लेकिन इसकी सबसे बड़ी बाधा शासन-व्यवस्थाओं में बढ़ता भ्रष्टाचार है। गलत जब गलत न लगे तो यह मानना चाहिए कि बीमारी गंभीर है।

बीमार व्यवस्था से स्वस्थ शासन की उम्मीद कैसे संभव है? संयुक्त राष्ट्र की ताजा वैश्विक खाद्य सुरक्षा रिपोर्ट में दुनिया में भुखमरी की स्थिति पहले के मुकाबले ज्यादा विकराल होने की स्थितियां तमाम विकास की तस्वीरों पर एक बदनुमा दाग है। दुनिया में उभरती आर्थिक महाशक्तियों, व्यवस्थाओं एवं विकास के बीच भूखे लोगों की तादाद में इजाफा होना दुनिया के विकास एवं संतुलित समाज की संरचना पर एक गंभीर प्रश्न है। कहीं-ना-कहीं दुनिया के विकास मॉडल में खामी है या वर्तमान सरकारों की कथनी और करनी में फर्क है। ऐसा लगता है कि विकास के लुभावने स्वरूप को कामयाबी माना जाने लगा है, लेकिन इसके बुनियादी पहलुओं को केंद्र में रखकर जरूरी कदम नहीं उठाए गए या उन पर अमल नहीं किया गया, तभी भूखमरी एवं भूखे लोगों की विडम्बनापूर्ण स्थितियां सुरसा की भांति बढ़ती ही जा रही है। यह कैसी संवेदनहीनता एवं उपेक्षापूर्ण मानसिकता है कि भूखमरी एवं कुपोषण की त्रासद एवं खौफनाक मसले पर किसी नई रिपोर्ट पर हैरानी तक नहीं होती, मगर इससे इतना जरूर पता चलता है कि विश्वभर में नीतियां बनाने और उन्हें लागू करने को लेकर कोई संतुलित रुख नहीं अपनाया जाता। यह शासन व्यवस्थाओं की नीति एवं नियत में खोट को ही दर्शाता है।

हमारी दुनिया विरोधाभासी एवं विडम्बनाओं से ग्रस्त है। एक तरफ भूखमरी तो दूसरी ओर महंगी दावतों और धनाढ्य वर्ग की विलासिताओं के अम्बार, बड़ी-बड़ी दावतों में जूठन की बहुतायत मानवीयता पर एक बदनुमा दाग है। इस तरह व्यर्थ होने वाले भोजन पर अंकुश लगाया जाए, विज्ञापन कंपनियों को भी दिशा निर्देश दिए जाएं, होटलों और शैक्षिक संस्थानों, दफ्तरों, कैंटीनों, बैठकों, शादी और अन्य समारोहों और अन्य संस्थाओं में खाना बेकार न किया जाए। इस भोजन का हम अपने समाज की बदहाली, भूखमरी और कुपोषण से छुटकारे के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं। सरकारों के भरोसे ही नहीं, बल्कि जन-जागृति के माध्यम से ऐसा माहौल बनाना चाहिए। आखिर में खुद से पूछना चाहिए कि क्या हम अशांत, अस्थिर, हिंसक और अस्वस्थ समाज चाहते हैं या उसे बदलना चाहते हैं? क्या हम भूखमरी एवं भूखें लोगों की दुनिया के नागरिक होना चाहते है या खुशहाल एवं साधन-सम्पन्न नागरिकों की दुनिया के नागरिक?

ललित गर्ग
ललित गर्ग

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