भ्रष्ट होते चुनावों से लोकतंत्र के धुंधलाने का संकट

चुनाव चाहे लोकसभा के हो या विधानसभा के या फिर नीचे के लोकतांत्रिक संगठनों के, जहां नीति, नैतिकता एवं पवित्रता की बात पीछे छूट जाती है, वहां न केवल लोकतंत्र बल्कि राष्ट्र भी कमजोर हो जाता है। तीन राज्यों में चुनाव हो चुके हैं और दो राज्यों में चुनाव होने वाले हैं। स्वच्छ और निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए तिथियों की घोषणा के साथ ही आदर्श आचार संहिता लागू कर दी जाती है। अधिक संख्या में पुलिस बल और प्रशासनिक कर्मियों की तैनाती भी होती है। इन प्रयत्नों एवं सतर्कताओं के बावजूद चुनावों में व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार एवं अनैतिकताएं सामने आना दुर्भाग्यपूर्ण एवं लोकतंत्र के सामने गंभीर संकट है। तमाम तरह की सावधानियों के बावजूद राजनैतिक पार्टियां और उनके उम्मीदवार मतदाताओं को लुभाने के लिए नगदी, शराब, उपहार आदि का वितरण करते हुए देखे जा रहे हैं।

यह बीमारी लोकतांत्रिक प्रक्रिया के हर स्तर- पंचायत से लेकर लोकसभा चुनाव- तक जा पहुंची है और लगातार बढ़ती भी जा रही है। यदि चुनाव को पवित्र संस्कार नहीं दिया गया तो भारत के लोकतंत्र का आदर्श धुंधला एवं दुर्बल ही होता जायेगा। जबकि निष्पक्ष एवं पारदर्शी मतदान से ही जन प्रतिनिधियों का चुनाव लोकतांत्रिक व्यवस्था को मजबूती दे पायेगा। उम्मीदवारों और राजनीतिक दलों से अपेक्षा की जाती है कि वे मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिए अवैध तरीके नहीं अपनायें और मतदाता को लुभाने एवं गुमराह करने की कोशिशों से बाज आये। जीत-हार की राजनीति में आकंठ डूबे राजनेता अब राजस्थान एवं तेलंगाना विधानसभाओं के चुनावों में लगे हैं। इसके कुछ महीनों बाद समूचा देश केन्द्र की सत्ता चुनने में लग जाएगा, लेकिन ऐसे में क्या हमारी मौजूदा दूषित होती चुनाव प्रक्रियाओं के हालातों पर विचार करना मौजूं नहीं होगा? क्या इन चुनावों के बहाने आजादी के साढ़े सात दशकों में हासिल वर्तमान परिस्थितियों की समीक्षा नहीं करना चाहिए?

इस माह पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव हो रहे हैं। चुनाव आयोग के अनुसार, इन राज्यों में अब तक 1,760 करोड़ रुपये की नगदी, शराब, उपहार आदि की बरामदगी हुई है, चुनाव प्रक्रिया के अंत तक इसमें बढ़ोतरी का अनुमान है। मतदाताओं को रिश्वत देने, रेवडियां बांटने एवं लुभाने का यह चलन किस गति से बढ़ रहा है, इसका अंदाजा इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इन राज्यों में इस साल बरामद नगदी और चीजों का मूल्य 2018 के चुनाव की तुलना में सात गुना से भी अधिक है। सबसे अधिक बरामदगी तेलंगाना और राजस्थान में हुई है। इन दो राज्यों में मतदान अभी होना है। मिजोरम, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में वोट डाले जा चुके हैं। राजस्थान में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी एवं मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने मतदाताओं को लुभाने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। अब चुनाव प्रचार के दौरान भी मतदाताओं को अपनी ओर आकर्षित करने के लिये सभी राजनीतिक दल जायज-नाजायज तरीके अपना रहे हैं।

जबकि आचार संहिता के उल्लंघन और भ्रष्टाचार को रोकने के लिए इस बार चुनाव आयोग ने निगरानी को सुदृढ़ करने के लिए तकनीक का भी सहारा लिया है ताकि केंद्रीय और राज्य स्तर की विभिन्न एजेंसियों के बीच बेहतर तालमेल हो सके। बावजूद इन सख्तियों के उम्मीदवार मतदाताओं को नगदी, शराब, उपहार आदि देने के रास्ते निकाल ही रहे हैं। यहां मतदाता भी प्रलोभन में आकर अपनी जिम्मेदारी से भाग रहा है। छोटे-छोटे प्रलोभनों में वे अपनी बड़ी जिम्मेदारी से मुंह फेर रहे हैं। जो जनता अपने वोटों को चंद चांदी के टुकड़ों में बेच देती हो, सम्प्रदाय  एवं जाति के उन्माद में योग्य-अयोग्य की पहचान खो देती है, अपने निष्पक्ष मतदान की जिम्मेदारी को किन्हीं स्वार्थों की भेंट चढ़ा देती है, वह जनता योग्य, जिम्मेदार एवं पात्र उम्मीदवार को कैसे विधायी संस्थाओं में भेज पाएंगी? स्वस्थ एवं आदर्श लोकतंत्र की स्थापना का दायित्व जनता का ही है। वोट देते हुए वह जितनी जागरूक होगी, उतना ही देश का हित होगा।

इन पांच राज्यों- मिजोरम, छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश, राजस्थान एवं तेलंगाना में हर बार की तरह इस बार भी जमकर चुनावी भ्रष्टाचार देखने को मिला है। इन चुनावों में हर राजनैतिक दल अपने स्वार्थ की बात सोचता रहा तथा येन-केन-प्रकारेण ज्यादा-से-ज्यादा वोट प्राप्त करने की तरकीबें निकालता रहा। इसके लिये उसने पूर्व की अपेक्षा इस बार ज्यादा गलत, असंवैधानिक, अनैतिक एवं भ्रष्ट तरीकों का  इस्तेमाल किया है। जबकि आयोग पूर्व की अपेक्षा अधिक सक्रिय और सतर्क हुआ है। चुनावी प्रक्रिया में शामिल प्रशासनिक अधिकारियों एवं कर्मियों में भी अधिक सचेतना देखी गयी है। लेकिन विडम्बना देखिये कि इतना सब होने के बावजूद स्वच्छ, पारदर्शी एवं शुद्ध चुनाव संभव नहीं हो पा रहे हैं। चुनावों में धन-बल का इस्तेमाल बढ़ा है, साम्प्रदायिक एवं जातीय दावपेंच बढ़े हैं। नगद धन, शराब एवं उपहार खुलेआम बांटे गये हैं।

जबकि ये स्थितियां चुनाव आचार संहिता का खुला उल्लंघन है। इन पर नियंत्रण की प्राथमिक जिम्मेदारी और जवाबदेही आयोग की है तो राजनीतिक दलों की भी है। बढ़ता चुनावी भ्रष्टाचार एक गंभीर समस्या है, जिस प्रकार प्रत्याशियों के विरुद्ध दर्ज मामलों की जानकारी सार्वजनिक की जाती है, उसी तरह यह भी मतदाताओं को बताया जाना चाहिए कि जो अवैध नगदी और अन्य चीजें बरामद हुई हैं, वे किस उम्मीदवार की हैं। जिस उम्मीदवार ने ऐसा दुस्साहस किया हो, उसकी उम्मीदवार की पात्रता को अवैध घोषित किया जाना चाहिए। चुनावी भ्रष्टाचार रोकने में मतदाताओं को भी सकारात्मक भूमिका निभानी चाहिए। अनेक मतदाताओं को अपने हिताहित का ज्ञान नहीं है, इसलिये वे हित-साधक उम्मीदवार एवं दल का चुनाव नहीं कर पाते हैं। अनेक मतदाता मोहमुग्ध होते हैं, इसलिये उनका मत शराब की बोतलों एवं छोटी-मोटी धनराशियों एवं स्वार्थों के पीछे लुढ़क जाता है। यह हमें समझना होगा कि जो भ्रष्टाचार के सहारे जीतेगा, वह कभी जनता की सेवा को प्राथमिकता नहीं देगा। इसलिए, चुनावी भ्रष्टाचार के रोग का उपचार आवश्यक है।

हकीकत यह भी है कि चुनाव सुधार की मांग समय-समय पर उठती रही है और खासकर उस समय जब चुनाव नजदीक आए अथवा चुनावी प्रक्रियाओं के समय चुनाव में सुधारात्मक कदम उठाने की बात ज्यादा की जाती रही है। लेकिन प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि इन मसलों का हल चुनाव से पहले ही क्यों नही निकाल लिया जाता है? इसका उत्तर यह कदापि नहीं है कि चुनाव आयोग शक्तिहीन हो चुका है। आज भी चुनाव आयोग में संपूर्ण शक्तियां विद्यमान हैं और वह निष्पक्षता से काम भी कर रहा है। लेकिन पिछले कुछ दशकों से यह देखा जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट तो सदैव चुनाव सुधार की बात करता है, लेकिन राजनीतिक दल सदैव इसमें असहयोग और विरोध ही प्रकट करते रहे हैं। शायद यह कयास लगाना गलत नहीं होगा कि चुनाव सुधार से राजनीतिक दलों को यह भय सताता रहा होगा कि उनके मनमानी और आपराधिक संलिप्तता तथा धन का अथाह उपयोग पर रोक लग जाने से चुनावों में जीत को सुनिश्चित करना असंभव हो जायेगा। वैसे भी भारत में चुनावों में बड़ी मात्र में धन की जरूरत एक कड़वी सच्चाई है, इसके लिए निर्धारित खर्च की सीमा निरर्थक साबित होती रही है और जिसका शायद ही पालन किया जाता है।

अनेक खामियों के कारण ही चुनाव शुद्धि के अनुकूल बहुत कुछ हो नहीं सका। वैसे इस संबंध में बहुत से प्रासंगिक सुधारों एवं सख्त कदमों की आवश्यकता है। धन-बल के बढ़ते उपयोग से चुनावों में भ्रष्टाचार मजबूती से अपनी जड़ें जमा लेता है, जो अंततः सारी व्यवस्था को अपने लपेटे में लेकर भ्रष्ट और कमजोर बना देता है। अक्सर ऐसे चुनावी धन का स्रोत अपराध में छिपा होता है। चुनावों में बेहिसाब धन अपराधी तत्वों द्वारा इस उम्मीद से लगाया जाता है कि चुनाव बाद वे सरकारी ठेके और दलाली पर काबिज हो सकेंगे तथा खर्च की गई रकम को सूद समेत वसूल कर लेंगे। यहीं से राजनीतिक भ्रष्टाचार की शुरुआत होती है और इसी से चुनाव भ्रष्टाचार में संलिप्त होते हैं। लोकतंत्र को सही अर्थाे में ‘लोगों का तंत्र’ बनाने बाबत केंद्र सरकार ने चुनाव सुधार संबंधी विधेयक लाकर सार्थक पहल कर दी है।

इस विधेयक से हम अनुमान लगा सकते हैं कि सरकार की इच्छाशक्ति बहुत मजबूत है। लेकिन अभी चुनाव सुधार के क्षेत्र में काफी कुछ ठोस पहल करना अपेक्षित है। जिसमें नगद, शराब एवं उपहार से आगे बढ़कर पेड न्यूज को चुनावी अपराध बनाना होगा। साथ ही चुनाव अवधि के दौरान जनमत सर्वेक्षण को विनियमित करना व राजनीतिक पार्टियों के प्रचार खर्च की सीमा निर्धारित करना होगा। चूंकि राजनीतिक पारदर्शिता से ही लोकतंत्र को वैधता मिलती है, ऐसे में महत्वपूर्ण चुनावी सुधारों को लागू कराना भी बहुत जरूरी है।

ललित गर्ग
ललित गर्ग
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