प्रकृति एवं पर्यावरण में जहर घोलने से बढ़ी जानलेवा गर्मी

ललित गर्ग –

लोकसभा चुनाव के प्रचार की गर्मी भले ही समाप्त हो गयी हो लेकिन प्रकृति से जुड़ी गर्मी सौ-डेढ़ सौ वर्षों का रिकार्ड तोड़ते हुए कहर बरपा रही है। दिल्ली का पारा 50 डिग्री से तो ज्यादा ही रहा है। देश के 17 से अधिक शहरों में तापमान उच्चतम स्तर पर चल रहा है। यह एक तरह का प्राकृतिक आपातकाल है। हीटवेव या यों कहें कि लू के थपेड़ों ने जनजीवन को मौत के मुहाने पर खड़ा कर दिया है। लू या हीटवेव या तापघात के कारण देश के विभिन्न हिस्सों में मौत के समाचार भी आ रहे हैं। तस्वीर का एक पहलू यह है कि अभी तक सही मायने में हमारे देश में हीटवेव को डिजास्टर मैंनेजमेंट में पूरी तरह से शामिल नहीं किया गया है। वैज्ञानिक बता रहे हैं कि शहरों में हीट आइलैंड बन रहे हैं, जिसके लिए मुख्य रूप से सीमेंट-तारकोल और कृत्रिम वातानुकूलित (एसीवाली) जीवनशैली जिम्मेदार है। कंक्रीट और तारकोल के जंगलों का विस्तार करने को जब तक हम अपनी जरूरत समझते रहेंगे तब तक हरे-भरे जंगलों को कटने से कोई नहीं रोक सकेगा। दुनिया की तीसरी आर्थिक महाशक्ति बनने की ओर अग्रसर देश जब तक जीडीपी से विकास को मापेगा, बेहिसाब औद्योगीकरण एवं शहरीकरण की होड़ रहेगी, तब तक पर्यावरण असंतुलन एवं गर्मी का प्रकोप ऐसे ही विनाश का कारण बनता रहेगा।

इस बार बढ़ती गर्मी ने सारे रेकॉर्ड तोड़ दिये हैं जो हमारे लिए चौंकाने से ज्यादा गंभीर चिंता की बात है। राजधानी दिल्ली के एक इलाके में अधिकतम पारा 52.9 डिग्री सेल्सियस दर्ज किया गया जो देश के इतिहास का सबसे ज्यादा तापमान है। राजस्थान के चुरु और फलोदी आदि का पारा तो 50 के आसपास या ऊपर ही चल रहा है। जैसलमेर आदि स्थानों पर गर्मी इतने तेज है कि धरती तवे की तरह तप रही है, लोगों ने पापड़ सेक कर या आमलेट बनाते हुए दृश्य सोशल मीडिया पर दिखाये हैं। पानी की कमी, बिजली कटौती और गर्म लू के कारण बीमारी के हालात गंभीर होते जा रहे है। इतनी तेज गर्मी में पेयजल की उपलब्धता, बिजली की आपूर्ति व ट्रिपिंग की समस्या से निजात पाना मुश्किल हो रहा है। सवाल यह है कि इस भीषण लू या यों कहें कि हीटवेव के लिए बहुत कुछ हम और हमारा विकास का नजरिया भी जिम्मेदार है। आज शहरीकरण और विकास के नाम पर प्रकृति को विकृत करने में हमने कोई कमी नहीं छोड़ी है। पेड़ों की खासतौर से छायादार पेड़ों की अंधाधुंध कटाई एवं गांवों में हो या शहरों में आंख मींचकर कंक्रिट के जंगल खड़े करने की होड़ के दुष्परिणाम प्रकृति एवं पर्यावरण की विकरालता के रूप में सामने हैं। जल संग्रहण के परंपरागत स्रोतों को नष्ट करने में भी हमने कोई गुरेज नहीं किया। अब विकास एवं सुविधाओं और प्रकृति के बीच सामंजस्य की और ध्यान देना होगा नहीं तो आने वाले साल और अधिक चुनौती भरे होंगे। कंक्रिट के जंगलों से लेकर हमारे दैनिक उपयोग के अधिकांश साधन एवं विकास की भ्रामक सोच तापमान को बढ़ाने वाले ही हैं।

विडंबना यह है कि ग्लोबल वार्मिंग की दस्तक देने के बावजूद विकसित व संपन्न देश पर्यावरण संतुलन के प्रयास करने तथा आर्थिक सहयोग देने से बच रहे हैं। ऐसा नहीं है कि मौसम की मार से कोई विकसित व संपन्न देश बचा हो, लेकिन प्राकृतिक संसाधनों के क्रूर दोहन से औद्योगिक लक्ष्य पूरे करने वाले ये देश अब विकासशील देशों को नसीहत दे रहे हैं। निश्चित रूप से बढ़ता तापमान उन लोगों के लिये बेहद कष्टकारी है, जो पहले ही जीवनशैली से जुड़े रोगों एवं समस्याओं से जूझ रहे हैं। जिनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता असाध्य रोगों की वजह से चूक रही है। ऐसा ही संकट वृद्धों के लिये भी है, जो बेहतर चिकित्सा सुविधाओं व सामाजिक सुरक्षा के अभाव में जीवनयापन कर रहे हैं। वैसे एक तथ्य यह भी है कि मौसम के चरम पर आने, यानी अब चाहे बाढ़ हो, शीत लहर हो या फिर लू हो, मरने वालों में अधिकांश गरीब व कामगार तबके के लोग ही होते हैं। जिनका जीवन गर्मी में बाहर निकले बिना या काम किये बिना चल नहीं सकता। निष्कर्षतः कह सकते हैं कि उन्हें मौसम नहीं बल्कि गरीबी मारती है।
जलवायु परिवर्तन का असर अब ज्यादा स्पष्ट तौर पर दिखने लगा है। अगर गर्मी पड़ रही है तो पिछले कई दशक के रिकॉर्ड तोड़ रही है। अगर बारिश हो रही है तो कुछ घंटों में ही पूरे मॉनसून की बरसात के बराबर पानी गिर रहा है। सर्दी भी साल-दर-साल नए रिकॉर्ड बना रही है। कुल मिलाकर हर मौसम अब अप्रत्याशित क्रूरतम रुख दिखा रहा है। वैज्ञानिकों के मुताबिक, अल नीनो और कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन की दोहरी मार के कारण धरती के तापमान में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। इससे धरती पर मौजूद सभी जीव-जंतुओं, वनस्पति और इंसानों को भीषण गर्मी का सामना करना पड़ रहा है। अनेक लोगों की भीषण गर्मी में जान चली गयी, बिहार की स्कूली छात्राएं बड़ी संख्या में बेहोश हो गयी। इन जटिल स्थितियों को देखते हुए गर्मी के मौसम में काम के घंटों का निर्धारण एवं स्कूलों में गर्मी की छुट्टियों की अवधि मौसम की अनुकूलता के अनुरूप ही होनी चाहिए। आसन्न संकट को महसूस करते हुए दीर्घकालीन रणनीति, इस चुनौती से निपटने के लिये बनाने की जरूरत है।

दुनियाभर में अगले 20 साल के भीतर कूलिंग सिस्टम्स यानी एयरकंडीशन की मांग में कई गुना बढ़ी है। सुविधावादी जीवनशैली एवं तथाकथित आधुनिकता ने पर्यावरण के असंतुलन को बेतहाशा बढ़ाया है। तापमान में भी साल-दर-साल बढ़ोतरी दर्ज की जा रही है। जहां तापमान ने नए रिकॉर्ड्स बनाने शुरू कर दिए हैं वहीं, भारी बारिश के कारण बाढ़ के हालात बन रहे हैं। ग्लोबल वार्मिंग के कारण मौसम को लेकर अनिश्चितता बढ़ती जा रही है। सरकारों को नीतिगत फैसला लेकर बदलते मौसम की चुनौतियों को गंभीरता से लेना होगा। समय रहते बचाव के लिये नीतिगत फैसले नहीं लिए गए तो एक बड़ी आबादी के जीवन पर संकट मंडराएगा। यह संकट तीखी गर्मी से होने वाली बीमारियों व लू से होने वाली मौतें ही नहीं होंगी, बल्कि हमारी कृषि एवं खाद्य सुरक्षा शृंखला भी प्रभावित होगी। हालिया अध्ययन बता रहे हैं कि मौसमी तीव्रता से फसलों की उत्पादकता में भी कमी आई है। दरअसल, मौसम की यह तल्खी केवल भारत ही नहीं ,वैश्विक स्तर पर नजर आ रही है। एशिया के अलावा यूरोप व अमेरिकी देशों में भी तापमान में अप्रत्याशित बदलाव नजर आ रहा है।

सरकारों को मानना होगा कि वैसे तो प्रकृति किसी तरह का भेदभाव नहीं करती मगर सामाजिक असमानता के चलते वंचित समाज इसकी बड़ी कीमत चुकाता है। सरकार रेड अलर्ट व ऑरेंज अलर्ट की सूचना देकर अपने दायित्वों से पल्ला नहीं झाड़ सकती। खासकर ऐसे समय में जब हरियाणा व राजस्थान में पारा पचास पार करके गंभीर चुनौती का संकेत दे रहा है। स्कूल-कालेजों के संचालन, दोपहर की तीखी गर्मी के बीच कामगारों व बाजार के समय के निर्धारण को लेकर देश में एकरूपता का फैसला लेने की जरूरत है। कुछ जगह धारा 144 लागू की गई है, जो इस संकट का समाधान कदापि नहीं है। कभी संवेदनशील भारतीय समाज के संपन्न लोग सार्वजनिक स्थलों में प्याऊ की व्यवस्था करते थे। लेकिन आज संकट यह है कि पानी व शीतल पेय के कारोबारी मुनाफे के लिये सार्वजनिक पेयजल आपूर्ति को बाधित करने की फिराक में रहते हैं। सरकारें भी जल के नाम पर राजनीति करती है। दिल्ली के अनेक इलाकों में बढ़ती गर्मी के साथ जल आपूर्ति एक बड़ी समस्या बनी हुई है। हमारे राजनीतिज्ञ, जिन्हें सिर्फ वोट की प्यास है और वे अपनी इस स्वार्थ की प्यास को पानी से बुझाना चाहते हैं। विभिन्न प्रांतों के बीच का यह विवाद आज हमारे लोकतांत्रिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर रहा है, जनजीवन से खिलवाड़ कर रहा है। जीवनदायक वस्तुएं प्रभु ने मुफ्त में दे रखी है। पानी, हवा एवं प्यार और आज वे ही विवादास्पद, दूषित और झूठी हो गयी हैं। इस तरह की तुच्छ एवं स्वार्थ की राजनीति करने वाले नेता क्या गर्मी एवं जल-समस्याओं का समाधान दे पायेंगे?

ललित गर्ग
ललित गर्ग
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