9 मई वीर शिरोमणि महाराणा प्रताप जयंती पर विशेष
“महाराणा प्रताप” यह नाम एक ऐसा नाम हैं। जो लेते ही शरीर में झुरझुरी भी भर देता है, साथ ही एक नया जोश, उत्साह और वीरता, साहस एवं संघर्ष का तीव्र एहसास जगा देता हैं। सहसा ही अपनी क्षमताओं पर दोगुना विश्वास होने लग जाता है। ऐसा चमत्कारी हैं महाराणा प्रताप का नाम । स्वाभाविक हैं जिसने भी इतिहास या महाराणा प्रताप की जीवनी पढी हैं वह उनके अदम्य साहस और वीरता के साथ उनके विशाल व्यक्तित्व से प्रभावित हुये बिना नहीं रह सकता। शायद ही भारतीय इतिहास में और दूसरा उदाहरण हमें मिले, जो. महाराणा प्रताप के शौर्य की बराबरी कर सके। वह समय ऐसा था कि महाराणा प्रताप की वीरता का डंका का लोहा चारों तरफ बज रहा था उनकी वीरता का ही प्रताप था की महाराणा प्रताप के सामने युद्ध में आने की हिम्मत मुगल सम्राट अकबर ताजिंदगी नहीं कर सका। महाराणा प्रताप की वीरता की ऐसी पराकाष्ठा थी की हाथी के सामने चीटी जैसी हैसियत के साथ हाथी को भी दाँत खट्टे कर देने पर मज़बूर कर देने वाला ऐसा महान योद्धा मुझे तो कहीं नहीं दिखाई देता है।

महाराणा प्रताप भारत की राज़पूताना भूमि अर्थात आज के राजस्थान की धरती पर पले बढ़े थे। वहाँ के मेवाड़ राज्य का यह सौभाग्य है कि उसने ऐसे प्रतापी राजा की महानता को अपनी आँखों से देखा। महाराणा प्रताप के पिता उदयसिंह के समय चित्तौड़गढ़ पराधीन हो चुकी थी, उस समय उदयसिंह ने ही बड़ी वीरता के साथ उसे बनवीर के कब्जे से निकालकर पुनः अपने राज्य में शामिल कर राजपूतीय शान में वृद्धि की थी। इसके बाद ही उन्होंने अपना राजतिलक कराया था। इस समय महाराणा प्रताप की आयु मात्र तीन वर्ष की थी। यह दुर्भाग्य ही था कि उदयसिंह अपने शासन व्यवस्था को सुदृढ़ भी नहीं कर पाये थे कि शेरशाह नामक मुस्लिम शासन ने चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया। उदयसिंह के किले को उसने बड़ी मज़बूती से घेर लिया। उसकी भारी भरकम सेना के सामने चित्तौड़ किले के मुट्ठी भर सैनिकों के साथ आमने सामने की लड़ाई का परिणाम भी निश्चित तौर पर हार ही दिख रहा था। तब इस परिस्थिति में उदय सिंह ने अपने यश कीर्ति के विरुद्ध चतुराई पूर्ण निर्णय लेते हुये किले की चाबी बाहर शेरशाह को भिजवा दी थीं ऐसा करके उन्होंने भीषण रक्तपात एवं किले की सुरक्षा कर ली। और इसके बाद पुनः चतुराई से अपने किले की रक्षा कर ली।

