प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी ने नई दिल्ली स्थित विज्ञान भवन में आयोजित आचार्य श्री विद्यानंद जी मुनिराज के शताब्दी समारोह को संबोधित करते हुए उनके तप, त्याग, ज्ञान, और राष्ट्र सेवा के प्रेरणादायी जीवन पर विस्तार से प्रकाश डाला। यह आयोजन न केवल एक आध्यात्मिक संत की जन्म शताब्दी का उत्सव था, बल्कि भारत की प्राचीन ज्ञान परंपरा, सेवा भाव और सांस्कृतिक चेतना के महत्त्व का स्मरण भी था।

आचार्य श्री विद्यानंद जी: एक युगद्रष्टा संत का जीवन परिचय
प्रधानमंत्री ने अपने भावपूर्ण संबोधन में आचार्य श्री विद्यानंद जी को ‘युग दृष्टा’ बताते हुए कहा कि उनका जीवन तपस्या, ज्ञान और करुणा का अनुपम संगम था। उनका जन्म 22 अप्रैल 1925 को कर्नाटक की पावन भूमि पर हुआ और उन्हें ‘विद्यानंद’ नाम मिला। नंगे पांव हजारों किलोमीटर की यात्रा कर, 150 से अधिक ग्रंथों की रचना कर, उन्होंने भारतीय युवाओं को शास्त्रों, संस्कृति और धर्म के मूल्यों से जोड़ने का कार्य किया।
उनकी वाणी में जहाँ गहन ज्ञान था, वहीं उनकी भाषा इतनी सहज और सरल थी कि सामान्य जन भी उसे समझ सकें। प्रधानमंत्री ने कहा कि उनके लिए आचार्य जी केवल एक संत नहीं, बल्कि ज्ञान और आध्यात्मिकता की जीवंत धारा थे।
आचार्य की उपाधि: विचार और करुणा की आध्यात्मिक यात्रा की शुरुआत
28 जून 1987 को आचार्य श्री को औपचारिक रूप से ‘आचार्य’ की उपाधि प्रदान की गई थी। प्रधानमंत्री ने इसे मात्र उपाधि न मानते हुए, एक आध्यात्मिक धारा की शुरुआत बताया, जिसने जैन परंपरा को विचारशीलता, अनुशासन और करुणा से समृद्ध किया। उन्होंने कहा कि जब पूरा राष्ट्र उनके शताब्दी समारोह को मना रहा है, यह तिथि उस ऐतिहासिक क्षण की गूंज भी है।

स्मारक सिक्के और डाक टिकट: सम्मान का प्रतीक
इस शुभ अवसर पर विशेष स्मारक सिक्के और डाक टिकट भी जारी किए गए, जो आचार्य श्री के योगदान और उनके अमर तप की स्मृति को चिरस्थायी बनाने का प्रयास है।
प्रधानमंत्री ने आचार्य श्री प्रज्ञा सागर जी का आभार व्यक्त किया, जिनके नेतृत्व में लाखों अनुयायी आज भी पूज्य गुरु के दिखाए मार्ग पर चल रहे हैं। प्रधानमंत्री को ‘धर्म चक्रवर्ती’ की उपाधि से सम्मानित किया गया, जिसे उन्होंने विनम्रता से भारत माता के चरणों में समर्पित करते हुए, इसे आशीर्वाद के रूप में स्वीकार किया।
ज्ञान, संगीत और राष्ट्रसेवा का त्रिवेणी संगम
प्रधानमंत्री ने आचार्य श्री की बहुआयामी प्रतिभा की सराहना की। कन्नड़, मराठी, संस्कृत और प्राकृत भाषाओं के विद्वान, साहित्य और धर्म में गहरी समझ, शास्त्रीय संगीत में गहन रुचि, और राष्ट्र सेवा के प्रति समर्पण—इन सभी क्षेत्रों में उन्होंने उच्चतम आदर्श प्रस्तुत किए।
उन्होंने उन्हें न केवल एक महान संगीतज्ञ, बल्कि एक प्रखर देशभक्त, स्वतंत्रता सेनानी और पूर्ण वैराग्य के प्रतीक के रूप में एक दृढ़ दिगंबर मुनि बताया।
सामाजिक और सांस्कृतिक पुनर्निर्माण में संत की भूमिका
प्रधानमंत्री ने कहा कि आचार्य विद्यानंद जी ने अपना जीवन केवल साधना तक सीमित नहीं रखा, बल्कि उसे सामाजिक और सांस्कृतिक जागरण का माध्यम बनाया। प्राकृत भवन और कई शोध संस्थानों की स्थापना कर, उन्होंने ज्ञान की ज्योति को नई पीढ़ियों तक पहुँचाया।
उन्होंने ‘जैन दर्शन’ और ‘अनेकांतवाद’ जैसे मौलिक ग्रंथों की रचना की, जिससे दार्शनिक चिंतन को गहराई और समावेश की दिशा मिली। मंदिरों के जीर्णोद्धार से लेकर वंचितों की शिक्षा तक, हर कार्य में आत्म-साक्षात्कार और जनकल्याण की भावना झलकती है।
भारत की सेवा भावना: आचार्य की शिक्षाओं से प्रेरित
प्रधानमंत्री ने भारत की सेवा भावना को आचार्य श्री की सोच से जोड़ते हुए कहा कि सेवा हमारे देश का स्वभाव है—यह शर्तों से परे और निस्वार्थ भावना से प्रेरित होती है। उन्होंने प्रधानमंत्री आवास योजना, जल जीवन मिशन, आयुष्मान भारत और मुफ्त खाद्यान्न वितरण जैसी योजनाओं का उल्लेख करते हुए कहा कि ये आचार्य के विचारों से प्रेरित लोककल्याणकारी कार्य हैं।
कालातीत शिक्षाओं की प्रासंगिकता
उन्होंने जैन धर्म के पांच महाव्रत, अणुव्रत, त्रिरत्न और छह आवश्यक को आज के समय में और भी प्रासंगिक बताया। प्रधानमंत्री ने आचार्य श्री द्वारा ‘वचनामृत’ अभियान के माध्यम से जैन धर्म को सरल भाषा में प्रस्तुत करने और भक्ति संगीत के माध्यम से व्यापक जनमानस तक पहुँचाने के प्रयासों की विशेष प्रशंसा की।
प्राकृत भाषा और सांस्कृतिक संरक्षण
प्रधानमंत्री ने आचार्य विद्यानंद जी द्वारा प्राकृत भाषा के संरक्षण और प्रचार के प्रयासों को रेखांकित किया। उन्होंने बताया कि प्राकृत भाषा, जिसमें भगवान महावीर ने उपदेश दिए, को लुप्त होने से बचाने के लिए अब यह राष्ट्रीय प्रयास बन चुका है।
सरकार ने प्राकृत को शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया है और डिजिटल माध्यम से जैन ग्रंथों और पांडुलिपियों को संरक्षित किया जा रहा है। उच्च शिक्षा में मातृभाषाओं को बढ़ावा देने के संकल्प को उन्होंने पुनः दोहराया।
नव संकल्प: राष्ट्र निर्माण का नैतिक आधार
प्रधानमंत्री ने नवकार मंत्र दिवस के अवसर पर साझा किए गए नौ संकल्पों को दोहराते हुए उन्हें आचार्य श्री विद्यानंद जी की शिक्षाओं से जोड़कर प्रस्तुत किया।
- जल संरक्षण – हर बूंद का मूल्य जानना
- ‘एक पेड़ माँ के नाम’ – प्रकृति और मातृत्व के बीच संबंध
- स्वच्छता – आंतरिक और बाहरी पवित्रता का प्रतीक
- स्थानीय उत्पादों का समर्थन – ‘वोकल फॉर लोकल’
- भारत को जानना और समझना
- प्राकृतिक खेती को अपनाना
- स्वस्थ जीवनशैली अपनाना
- योग और खेल को जीवन में शामिल करना
- गरीबों की मदद करना – सेवा का सबसे पवित्र रूप
इन संकल्पों को भारत की चेतना का हिस्सा बताते हुए उन्होंने विश्वास व्यक्त किया कि नागरिक इन पर चलकर भारत को विकसित राष्ट्र बनाने में योगदान देंगे।