-विश्व मृदा दिवस-
क्षिति जल पावक गगन समीरा, पंचतत्व रचि अधम सरीरा ; संत तुलसीदास ने इस चौपाई के माध्यम से प्राणिमात्र की नश्वर देह के निर्माण में सहायक तत्व मिट्टी के महत्व को रेखांकित किया है। प्रकारांतर से यह पंक्ति मिट्टी के आध्यात्मिक एवं दार्शनिक पक्ष को उद्घाटित करती है। लोक जीवन के व्यापक संदर्भों को सहेजे मिट्टी मानव की सामाजिक एवं सांस्कृतिक भूमिका की भी व्याख्या करती है। मिट्टी प्राणियों के जीवन का आधार तत्व है। मिट्टी की प्रतिष्ठा लोक के विविध आयोजनों में दृष्टव्य है। मिट्टी शुचिता, शुद्धता एवं सम्पन्नता का प्रतीक है। मिट्टी में जहां स्थिरता का भाव है, वहीं वह दृढता एवं कोमलता का संगम भी है। मिट्टी जीवन निर्मिति की राह है और मुक्ति का पथ भी। मिट्टी आशा, विश्वास का सम्बल है और धैर्य, सहनशक्ति एवं जिजीविषा का अतुल अवलम्बन भी। मिट्टी पोषण की कुक्षि है और अध्यात्म दर्शन की अक्षि भी। मिट्टी का गुण गंध है, जो अन्यान्य उत्पादों में स्वाद-सुगंध बन बिखरती है। मिट्टी मानव जीवन के ताने-बाने में रची-बसी है। मिट्टी से ही सुख, शांति एवं समृद्धि है। मिट्टी है तो तो संसृति एवं संस्कृति है। मिट्टी की गुण-गरिमा संस्कृत वांग्मय एवं कवियों की रचनाओं में समावृत एवं समादृत है। विश्व मृदा दिवस न केवल मृदा के महत्व को रेखांकित करता है अपितु मृदा संरक्षण हेतु प्रेरित-प्रोत्साहित भी करता है।

वसुधा को सौंदर्य तथा जल, जंगल, जन, जानवर को जीवन प्रदायिनी मिट्टी का वर्तमान संकट में है। पृथ्वी की ऊपरी परत मृतप्राय है। माटी का मरना वास्तव में जीवन का प्राणरहित हो जाना ही है क्योंकि जीवन के पोषण एवं गतिशीलता के लिए आवश्यक जल, भोजन एवं वायु का आधार मिट्टी ही है। इस मिट्टी के महत्व से आमजन को परिचित कराने, खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने, आर्थिक व्यवहार को गति देने, जैव विविधता का संरक्षण करने तथा सतत विकास के लिए मिट्टी के योगदान को समझने हेतु प्रत्येक वर्ष 5 दिसम्बर को संयुक्त राष्ट्रसंघ द्वारा विश्व मृदा दिवस का आयोजन किया जाता है। इस आयोजन के इतिहास पर दृष्टिपात करें तो पाते हैं कि थाईलैंड के राजा भूमिबल अतुल्यतेज के मिट्टी के संरक्षण हेतु किए अतुलनीय योगदान की स्मृति हेतु उनके जन्मदिन 5 दिसम्बर को विश्व मृदा दिवस के रूप में मनाने की पैरवी वर्ष 2002 में अंतरराष्ट्रीय मृदा संघ ने की थी, जिसे विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन ने जून 2013 में स्वीकृति प्रदान की। संयुक्त राष्ट्रसंघ की 68वीं आमसभा दिसम्बर 2013 में इस प्रस्ताव को पारित कर प्रत्येक वर्ष 5 दिसम्बर को विश्व मृदा दिवस मनाने का संकल्प लिया गया।
5 दिसम्बर, 2014 को पहली बार वैश्विक स्तर पर थीम आधारित आधिकारिक आयोजन किया गया। वर्ष 2025 की थीम है- स्वस्थ शहरों के लिए स्वस्थ मृदा, जो न केवल प्रासंगिक है अपितु शहरीकरण की नीति एवं कार्ययोजना में मिट्टी के लिए जगह सुरक्षित रखने का आह्वान करती है। उल्लेखनीय है कि शहरों में अत्यधिक कंक्रीट बिछाने, सड़कों पर तारकोल-डामर डालने एवं पक्की नालियां बनाने तथा पेड़ों की कटान से मिट्टी को समुचित जल, वायु, ताप नहीं मिल पा रहा। शहरी नियोजन में अधिकाधिक खुली जगह छोड़ने की नीति बनाने की जरुरत है ताकि मिट्टी स्वस्थ रहे और पेड़-पौधों और पशु-पक्षियों एवं मनुष्यों का जीवन स्वस्थ, सुखमय एवं सुरक्षित हो सके। विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन द्वारा इस अवसर पर मृदा संरक्षण के लिए विशेष योगदान देने वाले व्यक्ति को ‘राजा भूमिबल अतुल्यतेज विश्व मृदा दिवस पुरस्कार’ दिया जाता है।
मिट्टी के प्रति हमारी आम सोच बहुत सतही और सामान्य है क्योंकि हम अपने चतुर्दिक मिट्टी ही तो देख रहे हैं। किंतु यह जानकर आश्चर्य होगा कि मानवीय हस्तक्षेप से यह मिट्टी अपना स्वरूप, गुण एवं संघटन बदल रही है। स्मरणीय है कि दो-तीन सेमी मिट्टी बनने में लगभग 1000 वर्ष की समयावधि लगती है। धरती की बनावट को समझें तो इसकी ऊपर सतह का वह भाग जो कार्बनिक एवं अकार्बनिक कणों से मिलकर बनता है, मिट्टी कहलाता है। मिट्टी की इस परत के नीचे स्थित चट्टानों की प्राकृतिक अपक्षय प्रक्रिया से मिट्टी का निर्माण होता है। मिट्टी में नाइट्रोजन, पोटेशियम, फास्फोरस, कैल्सियम, मैग्नीशियम, मैगनीज, सोडियम, कार्बन, आक्सीजन, हाइड्रोजन, लौह, तांबा, निकल, कोबाल्ट, सल्फर आदि तत्व पाये जाते हैं। गर्मी, वर्षा, जल एवं वायु के सम्पर्क एवं दबाव से मिट्टी प्रभावित होती है।
इन तत्वों की कम-अधिक उपस्थिति से मिट्टी का रंग निर्धारित होता है। भारतीय क़ृषि अनुसंधान संस्थान ने भारत भूमि की मिट्टी को आठ समूहों में विभाजित किया है- जलोढ़ या दोमट मिट्टी, काली मिट्टी, लाल-पीली मिट्टी, लैटराइट मिट्टी, पर्वतीय-वन मिट्टी, मरुस्थलीय शुष्क मिट्टी, जैविक एवं लवणीय मिट्टी। गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र, गोदावरी, कावेरी नदियों का मैदान बाढ़ में लाई मिट्टी से बना है जो गेहूं, धान, आलू के लिए उपयुक्त एवं अत्यन्त उर्वर है। कपास के लिए उपयोगी काली मिट्टी महाराष्ट्र एवं गुजरात क्षेत्र में है तो अरहर, ज्वार, बाजरा, मूंगफली के लिए अनुकूल लाल मिट्टी मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखंड, उड़ीसा में पाई जाती है। पीली मिट्टी केरल में, चाय-कॉफी के लिए उपजाऊ लैटराइट मिट्टी असम कर्नाटक, तमिलनाडु में मिलती है। बागवानी के लिए उत्तराखंड, हिमाचल एवं कश्मीर की पर्वतीय मिट्टी में सेब, संतरा, फालसा, माल्टा, आड़ू, खुबानी उगाये जाते हैं।
राजस्थान की शुष्क मिट्टी तिलहन के लिए तथा जैविक दलदली मिट्टी पश्चिम बंगाल में धान-पान एवं जूट के लिए उपयोगी है। हरियाणा-पंजाब लवणीय मिट्टी के लिए जाने जाते हैं। मिट्टी की प्रकृति एवं उर्वरता को पीएच मान से मापा जाता है। अम्लीय मिट्टी 1से 6 पीएच, लवणीय 6 से 8.5 पीएच तथा 8.5 से 14 पीएच मान क्षारीय मिट्टी का होता है। मृदा संरक्षण के लिए 1953 में केंद्रीय मृदा संरक्षण बोर्ड की स्थापना हुई थी जो मृदा सुधार के लिए काम करता है। जलोढ़ दोमट मिट्टी सर्वाधिक उपजाऊ और हल्की होती है। मानव एवं पशुओं का 95 प्रतिशत भोजन मिट्टी से उत्पादित होता है। पौधों के लिए आवश्यक 18 रासायनिक तत्वों में से 15 तत्व मिट्टी से मिलते हैं। मिट्टी के अध्ययन को मृदा विज्ञान या पेडोलॉजी कहा जाता है। मृदा विज्ञान का जनक रूसी भू-विज्ञानी वासिली दोकुचोव को माना जाता है, भारत के संदर्भ में मृदा सम्बंधित अनुसंधान, शोध एवं वर्गीकरण का काम जे डब्ल्यू लेदर ने किया था, उन्हें भारत के मृदा विज्ञान का पिता कहा जाता है।
लोकजीवन में मिट्टी का विविध प्रयोग पुरखों की उस दूरदृष्टि पर मुहर लगाता है जो एक प्रकार से मिट्टी के संरक्षण एवं महत्व से आगामी पीढ़ी को परिचित कराने के लिए किया गया होगा। विवाह के अवसर पर मातृका पूजन, नागपंचमी के दिन खेत से मिट्टी लाकर दोनों-डलियों में मिट्टी भर गेहूं बोने की परंपरा, अक्षय तीज के दिन नये घड़े में जलभर कर उसके नीचे मिट्टी के चार छोटे ढेले रखने की संस्कृति मिट्टी की पहचान, जल धारण एवं अंकुरण क्षमता तथा परिवार को छोटे बच्चों को अपनी माटी से जोड़ने के ही हिस्सा थे। आंगन एवं द्वार की लाल, पीली और सफेद मिट्टी से पुताई-लिपाई मिट्टी के प्रति लोकजीवन की आत्मीयता का प्रकटन ही तो था।
बैसाख-जेठ के महीनों में खेत-तालाब की मिट्टी लाकर घर में एकत्रित करना और बारिश बाद क्वांर-कातिक महीनों में वर्षा से उखड़े आंगन-बखरी को उस मिट्टी में गोबर-पुआल मिला मोटा लेप लगाना मनुष्य और मिट्टी की पारस्परिक निर्भरता का सुवासित अध्याय ही तो है। किंतु खेतों में फेंके जाते प्लास्टिक पन्नियों, डिस्पोजल सामग्री से माटी की सांसें टूट रही हैं। मेड़ों पर खड़े पेड़ कटकर ईंट-भट्ठों और फर्नीचर की भेंट चढ़ गये। फलत: माटी भीषण ताप से कराह रही है। विश्व मृदा दिवस के अवसर पर पौधारोपण, प्लास्टिक रहित दैनिक व्यवहार करने, मिट्टी पर कार्यशाला, संवाद, वाद-विवाद, भाषण, निबंध प्रतियोगिताओं का आयोजन करने और माटी के प्रति सम्मान का भाव रखकर हम मरती मिट्टी को जीवन दे सकते हैं। मिट्टी बचेगी तो हम बचेंगे और बचेगी जीवन में माटी सी गुरुता एवं गरिमा तथा स्वास्थ्य एवं समृद्धि भी।

शिक्षक, बाँदा (उ.प्र.)