पांच राज्यों के चुनावों की सरगर्मियां उग्र से उग्रत्तर होती जा रही है, चुनाव प्रचार अब धीरे-धीरे चरम पर पहुंच रहा है। विशेषतः राजस्थान, मध्यप्रदेश एवं छत्तीसगढ़ में सत्ता के दावेदारों में लोक-लुभावन वादों एवं रेवड़ियां बांटने की होड़ लगी हुई है। येन-केन-प्रकारेण सत्ता हथियाना इन चुनावों का चरम लक्ष्य है। इन तीनों ही प्रांतों में चुनावों की सबसे खास बात यह है कि इन राज्यों में कांग्रेस पार्टी एवं भाजपा के बीच सीधा मुकाबला है। जैसे-जैसे उम्मीदवारों की सूचियां सामने आ रही है, विरोध का स्वर उभर रहे हैं, उग्र विरोध को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि इन चुनावों में परायों से अधिक डर इस बार ‘अपनों’ का चुनौती बनेगा।
वर्ष 2023 के ये चुनाव अनेक दृष्टियों से महत्वपूर्ण बन रहे हैं। जटिल से जटिलतर होते हालातों एवं राजनीतिक परिदृश्यों में यह स्पष्ट हो रहा है कि इन राज्यों के ये चुनाव लोकसभा चुनावों का सेमीफाइनल बन रहा है। जबकि मतदाताओं के सामने राज्य व राष्ट्र के बारे में अलग-अलग विचार व अवधारणाएं होती हैं। दोनों ही प्रमुख पार्टियां मतदाताओं को लुभाने एवं उनकी मानसिकता को समझते हुए चुनावी मुद्दों को उछाल रही है। कांग्रेस पार्टी का अलग-अलग राज्यों का क्षेत्रीय नेतृत्व वे मुद्दे उठा रहा है जिनसे राज्यों के लोग ज्यादा से ज्यादा जुड़ें जबकि भाजपा की कोशिश है कि राज्यों के मुद्दों को केन्द्र में रखते हुए राष्ट्रीय विकास को मतदाताओं के सामने रखा जाये। भाजपा का मुख्य जोर विकास कार्यों एवं राष्ट्र विकास की योजनाओं पर है। दोनों पार्टियों में एक और मूलभूत अन्तर है कि भाजपा जहां प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम पर चुनाव अभियान को गति दे रहा है, वहीं कांग्रेस क्षेत्रीय नेताओं को आगे कर रही है। जहां तक चुनावों में जा रहे तेलंगाना व मिजोरम राज्यों का सवाल है तो इनमें भी कांग्रेस पार्टी इन राज्यों की जरूरत के मुताबिक अपना विमर्श खड़ा करने की कोशिश कर रही है और भारत राष्ट्र समिति व मिजो नेशनल फ्रंट पार्टियों के सामने कड़ी चुनौती पेश करना चाहती है।
भाजपा इन चुनावों में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्राथमिकता दे रही है। भाजपा ने टिकट वितरण में इस बार तीनों राज्यों के क्षत्रपों की जगह भारतीय जनता पार्टी के केन्द्रीय संगठन और संघ की राय को महत्त्व दिया है। भाजपा ने जीत को सुनिश्चित करने के लिये अनेक मोर्चों एवं स्तरों पर कार्यकर्ताओं की टीमों का गठन किया है, एक और बड़ा बदलाव उम्मीदवारों के चयन में पार्टी ने यह किया है कि पहली बार पार्टी ने बड़ी संख्या में सांसदों पर दांव खेला। कई सांसदों को न चाहते हुए भी विधानसभा चुनाव लड़ना पड़ रहा है। जारी हुई सूचियांे में अनेक विधायकों के टिकट कट गये हैं जिससे पार्टी में बगावत के स्वरों एवं तेवरों की तीव्रता सामने आई है, जो आलाकमान की चिन्ताओं को बढ़ा रहा है।
सभी टिकट घोषित होने के बाद असंतोष के सुर तेज होने की व्यापक संभावनाओं को देखते हुए राजस्थान में पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा ने तो मध्यप्रदेश में गृहमंत्री अमित शाह ने कमान संभालते हुए नाराजगी को दूर करने का बीड़ा उठाया है। राज्य स्तर पर बगावती स्वरों से उत्पन्न नुकसान को नियंत्रित करने के लिये टीम बनाई गई है। चूंकि प्रत्याशी चयन में संघ की भूमिका रही है इसलिए पर्दे के पीछे बगावत को शांत करने का जिम्मा भी संघ को सौंपा गया है।
कांग्रेस पार्टी भी लगभग ऐसी ही चुनौतियों से जूझ रही है। उसके सामने राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अपनी सत्ता को दोहराने एवं मध्यप्रदेश में भाजपा को पछाड़ने की पूरी आस है, आशा एवं संभावनाभरे इन परिदृश्यों में उसे भी लग रहा है कि विरोधियों से मुकाबले में ‘अपनों’ से जूझने की समस्या है। कांग्रेस ने क्षेत्रीय नेताओं एवं कार्यकर्ताओं को प्राथमिकता दी है एवं स्थानीय मुद्दों को आगे किया है। टिकट के दावेदारों और उनके समर्थकों के उग्र तेवर से कांग्रेस आलाकमान भी सकते में है। प्रश्न है कि नाराज कार्यकर्ताओं का असली विरोध चुनावी रणक्षेत्र में क्या रंग दिखाता है। दोनों ही प्रमुख पार्टियों के सामने विरोधियों से ज्यादा अपनो का खतरा मंडरा रहा है।
अक्सर चुनावों में इन स्थितियों का परिणामों पर सीधा असर पड़ता रहा है। जो भी चुनाव परिणाम आयेंगे उनसे कांग्रेस एवं भाजपा दोनों ही पार्टियों का भविष्य सीधे अगले साल होने वाले लोकसभा चुनावों से बंध जायेगा। उत्तर भारत के हिन्दी क्षेत्र के लिये भाजपा ही सर्वप्रिय पार्टी मानी जाती है। इन राज्यों में राजस्थान, मध्य प्रदेश व छत्तीसगढ़ माने जाते हैं। इन तीनों ही राज्यों में इस बार व्यापक फेरबदल की संभावनाएं स्पष्ट दिखाई दे रही है। भले ही पिछले 2018 के चुनावों में भी ऐसा ही उलटफेर हुआ हो और कांग्रेस ने तीनों ही राज्यों में सरकारें बनाई थीं मगर कुछ महीने बाद ही हुए लोकसभा चुनावों में भाजपा ने कांग्रेस का सूपड़ा साफ कर दिया था। भारत के राजनीति में कुछ भी निश्चित नहीं कहा जा सकता, विशेषतः मतदाताओं के बदलते मिजाज के बारे में कोई आकलन नहीं किया जा सकता है। विधानसभा में जीत दिलाने वाले मतदाता लोकसभा चुनावों में हार का सेहरा बांध देते हैं।
कांग्रेस पार्टी भाजपा की चुनावी रणनीतियों पर गहरी नजरे गढ़ाए हुए है। कुछ मामलों में वह भाजपा की नीतियों को अपनाने में भी कोई हर्ज नहीं मान रही है। कतिपय मामलों में कांग्रेस पार्टी भी इन राज्यों के चुनावों को क्षेत्रीय के साथ-साथ राष्ट्रीय मुद्दों को अपनाते हुए आगे बढ़ रही है। पांच राज्यों के ये चुनाव वास्तव में असाधारण चुनाव हैं क्योंकि राजस्थान व छत्तीसगढ़ में सत्ता पर काबिज कांग्रेस को अपने पिछले पांच सालों के काम के बूते पर जनता का मत एवं मन जीतना है और मध्यप्रदेश में यही काम भाजपा को करना है। जिस प्रकार इन तीनों राज्यों की सरकारों ने जनकल्याण एवं सामाजिक सुरक्षा की विभिन्न योजनाएं शुरू की हैं, लोकलुभावन घोषणां एवं मुफ्त की रेवडियां बांटी है।
राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने चुनाव की आहट के साथ बहुत सी ऐसी योजनाएं शुरू की हैं जिनसे गरीब व कम आय वाले लोगों के साथ किसानों को भी लाभ पहुंचा है। लेकिन मूलभूत प्रश्न है कि चुनाव से ठीक पहले ही सत्ताधारी दलों को जन-कल्याण की चिन्ता क्यों सताने लगती है? प्रश्न है कि लोक कल्याणकारी राज के सिद्धान्त के अनुरूप गरीब वर्गों की सामाजिक व आर्थिक सुरक्षा का ढांचा खड़ा करने की वैधानिक व्यवस्था ये राजनीतिक दल क्यों नहीं करते? राजस्थान में गहलोत सरकार ने अपनी कुछ जनकल्याण की योजनाओं को कानूनी जामा भी पहनाया है परन्तु शिक्षा व स्वास्थ्य क्षेत्र में जन उपकारी योजनाओं को वह कानूनी रूप में देखना चाहते हैं। बात केवल राजस्थान की नहीं है, सभी प्रांतों एवं केन्द्र में ऐसी व्यवस्था बननी ही चाहिए और ऐसे ही मुद्दें चुनावी मुद्दें भी बनने चाहिए।
चुनावी मौसम में ही मुफ्त की रेवड़िया बांटना एवं लोकलुभावन वादों की होड़ लगाना क्या लोकतंत्र का मखौल नहीं है?
मतदाता को ठगने एवं लुभाने की इन चेष्टाओं पर सुप्रीम कोर्ट एवं चुनाव आयोग अनेक बार चेता चुका है, लेकिन नसीहत देने से आगे बढ़कर कठोर कदम उठाने होंगे। कठोर कार्रवाई के अभाव में ही हमारा लोकतंत्र कितनी ही कंटीली झाड़ियों में फँसा पड़ा है। विडम्बना है कि आज जनता की बुनियादी समस्याओं का हल एवं उसकी खुशहाली का रास्ता चुनावों से होकर नहीं जाता। हर चुनाव में आभास होता है कि अगर इन कांटों के बीच कोई पगडण्डी नहीं निकली तो लोकतंत्र का चलना दूभर हो जाएगा। फिर भी कोई सारथि नहीं बनता। लोकतंत्र में जनता की आवाज की ठेकेदारी राजनैतिक दलों ने ले रखी है, पर ईमानदारी से यह दायित्व कोई भी दल सही रूप में नहीं निभा रहा है। ”सारे ही दल एक जैसे हैं“ यह सुगबुगाहट जनता के बीच बिना कान लगाए भी स्पष्ट सुनाई देती है। राजनीतिज्ञ पारे की तरह हैं, अगर हम उस पर अँगुली रखने की कोशिश करेंगे तो उसके नीचे कुछ नहीं मिलेगा। सभी दल राजनीति नहीं, स्वार्थ नीति चला रहे हैं। क्या पांच राज्यों के चुनाव एक बार फिर इसी स्वार्थ-नीति के शिकार होंगे? मतदाता को जागना होगा।