12 नवंबर देवउठनी एकादशी तुलसी विवाह के अवसर पर-
तुलसी विवाह का कार्तिक शुक्ल पक्ष से भी महत्व जुड़ा हुआ है। तुलसी से हम सभी भलीभाँति परिचित हैं। शायद ही कोई ऐसा घर होगा जिसके आँगन में या आसपास तुलसी का पेड़ न हो। तुलसी एक परम पवित्र पौधा है। हिंदू धर्म में इसकी विधि विधान से पूजा की जाती है। ऐसा माना जाता है कि कार्तिक शुक्ल एकादशी को होने वाले तुलसी विवाह के बाद से ही वैवाहिक कार्यक्रमों व शुभ मुहूर्तों की शुरुआत होती है। अर्थात तुलसी विवाह एक ऐलान है एक इजाज़त है जो विवाह कार्यक्रमों को प्रारंभ करने एवं उन्हें संपन्न करने की अनुमति प्रदान करता है।
पतिव्रता स्त्री वृंदा के साथ भगवान विष्णु द्वारा छल किये जाने और अंततः उसे तुलसी रूप में वरण करने की मान्यता के साथ शुभ कार्यों का श्रीगणेश भी इसी दिन से किया जाता है। कार्तिक शुक्ल एकादशी को प्रबोधनी एकादशी भी कहते हैं। अवध के ग्रामीण क्षेत्रों में’देवोत्थानी एकादशी को डिढ़वन के रूप में मनाया जाता है। ऐसी मान्यता कि इस दिन भगवान विष्णु जो क्षीर सागर में सोये हुये थे, वे चार माह पश्चात जागते हैं। विष्णु के जागने के बाद से ही सभी मांगलिक कार्य, शुभकार्य प्रारंभ किये जाने का विधान है। ऐसा कहा जाता है कि ऐसा करने से वे सभी कार्य अवश्य निर्विघ्न संपन्न हो जाते हैं। विष्णु जी के शयनकाल के चार मासों मे विवाहादिक मांगलिक कार्यों का निषेध रहता है।
व्रती स्त्रियों द्वारा इस दिन प्रातः काल भगवान को शंख, घंटा आदि बजाकर जगाया जाता है। इसके बाद पूजा करके कथा सुनी जाती है। तुलसी विवाह के संबंध में पौराणिक मान्यता के अनुसार समुद्र मंथन करते समय जब देवताओं के नेत्रों से अश्रुपात हुआ, तब उन आंसुओं से तुलसी का जन्म हुआ, तुलसी को हिंदू संस्कृति में पवित्र पौधा मानकर पूजा जाता है। इसीलिये प्रायः प्रत्येक हिंदू के घर में तुलसी का पौधा आवश्यक रूप से पाया जाता है, तुलसी को हिंदू संस्कृति में पवित्र पौधा मानकर पूजा जाता है। इसीलिये प्रायः प्रत्येक हिंदू के घर में तुलसी को एक चबूतरे में रोपकर प्रतिदिन जल चढ़ाने एवं पूजा करने की विधि एवं परंपरा है। प्राचीन काल से ही ऋषि मुनियों ने तुलसी के चमत्कारिक गुणों को जान लिया था, यही कारण है कि आज हमारे प्राचीन चिकित्सा ग्रंथ तुलसी के गुणों से भरे पड़े हैं। तुलसी, का लैटिन नाम ओसियन स्पोसाज है। इसकी सौ से भी अधिक प्रजातियाँ अभी तक विश्व में पाई जाती हैं। प्रायः घरों में पाई जाने वाली तुलसी में टी बी तथा कैंसर के कीटाणु नष्ट करने की प्रबलतम क्षमता रहती है। जिस घर में हरा भरा तुलसी का पौधा होता है वहाँ बिजली नहीं गिरती। ऐसा माना जाता है। प्राय: ऐसा देखा भी गया है। जहाँ तक इसका वैज्ञानिक संबंध भी हो सकता है कि जहाँ तुलसी के पौधे होते हैं वहाँ पर बिजली नहीं गिरती ।
तुलसी को अनेक औषधियों के रूप में प्रयुक्त किया जाता है। यह छोटा सा पौधा हमारे कितने काम आता है। वहीं हम इसकी श्रद्धाभक्ति से उपासना एवं पूजा भी करते हैं और इसे हम तुलसी विवाह के रूप में त्यौहार मानकर परंपरानुसार तुलसी का आदर करते चले आ रहे हैं तुलसी विवाह दीपावली के ठीक ग्यारह दिनों पश्चात् अर्थात अमावस्या के बाद पड़ने वाली एकादशी को मनाया जाता है। इस दिन सुबह से स्नान कर स्वच्छ कपड़े पहने जाते हैं। फिर सुबह से शाम तक तुलसी पूजा की तैयारी की जाती है। घर को भी लीप-पोतकर चमकाया जाता है। कई लोग तो इस अवसर पर वैवाहिक तैयारियों जैसे पांडाल एवं विद्युत सजावटों से घर को झकाझक कर तैयारी करते हैं। घर के आँगन में रंगोली डाली जाती है। यथा शक्तिनुसार घर को सजाया जाता है। हिंदू धर्म में तुलसी को माँ का दर्जा प्राप्त है।तुलसी को घर के आँगन में रोपना बहुत शुभ माना गया है। इसके लिये तुलसी को एक सुंदर से चबूतरे का निर्माण कर उसे लीपकर उस पर अनेकों चित्र जैसे, डोली, कहार, सांप, बिच्छू, चिड़िया, फूल आदि बनाये जाते हैं। फिर हिंदू धर्म के अप्रतिम प्रतीक “स्वास्तिक” का चिन्ह बनाकर शुभ लाभ लिखा जाता है। इस अवसर पर अनेक पकवान एवं मिष्ठान बनाये जाते हैं। सायं को सूर्यास्त होने के बाद गन्ने से मंडप तैयार किया जाता है। इसके बाद शुरु होता है तुलसी विवाह की रश्म, इसमें सबसे पहले तुलसी पर जल अर्पित किया जाता है। फिर चंदन-वंदन, हल्दी, कुमकुम लगाया जाता है। गाय के गोबर से गौरी गणेश बनाकर स्थापित किया जाता है। पान सुपाड़ी एवं नौ हल्दी रखी जाती है। कलश बनाकर उस पर दीया जलाया जाता है। तोरण बनाकर घर के चौखट पर लगाया जाता है। इसके बाद फूल फल, कपड़े एवं श्रृंगार की सभी ‘चीजें चढ़ाई जाती है। फिर आरती की जाती है। धूप दशांग जलाकर तुलसी पूजा एवं विवाह की समस्त क्रियायें कर विवाह संपन्न किया जाता है। ऐसी भी धार्मिक मान्यता है कि तुलसी विवाह के पूर्व गन्ना नहीं खाना चाहिये।
तुलसी विवाह के एक अन्य पौराणिक किवदंती के अनुसार तुलसी (वृंदा) का विवाह एक दैत्यराज के साथ हुआ था। वृंदा बहुत पतिव्रता स्त्री थी। तुलसी के पति का नाम जलंधर था। वह अपनी शक्ति के मद में घोर अत्याचारी हो चला था। उसके अत्याचारों से ऋषिमुनि, देव, मानव, किन्नर, गंधर्व सभी त्राहि त्राहि कर उठे। जलंधर को मारने के देवताओं से अनेक उपाय किये। पर वे स्वयं उससे बुरी तरह पराजित हो गये। तब ‘देवताओं ने भगवान विष्णु की शरण ली तब भगवान विष्णु ने उन्हें बताया कि जलंधर की शक्ति एवं उसके अपराजेय होने का राज है उसकी पतिव्रता स्त्री का सतीत्व। जब तक उसके सतीत्व को भँग नहीं किया जायेगा। कोई भी जलंधर का कुछ भी नहीं, बिगाड़ सकता। यहाँ तक कि स्वयं मैं भी ऐसा नही कर सकता। भगवान विष्णु ने ऐसा कहा तो देवताओं ने उनसे विनय किया कि भगवान फिर इस संकट से उबरने का आप ही कोई उपाय करें। तब उन्हें भगवान विष्णु ने निश्चिंत करते हुये कहा कि ठीक है मैं ही कुछ उपाय करता हूँ। इसके पश्चात भगवान विष्णु ने जलंधर का रुप धारण कर तुलसी के सतीत्व को भँग करने तुलसी के पास पहुँच गए। तुलसी उन्हें नहीं पहचान पाई। वह उन्हें अपना पति जानकर तरह तरह से उनके आव भगत में लग गई। पर जैसे ही उन्होंने विष्णु का स्पर्श किया। वैसे ही उनकी पवित्रता (सतीत्व) भँग हो गई। उधर तुलसी के सतीत्व के भँग होते ही युद्ध क्षेत्र में लड़ रहा जलंधर देवताओं द्वारा मारा जाता है। जलंधर की मृत्यु हो जाने के पश्चात भगवान विष्णु अपने असली रुप में आ गये। यह देखकर वृंदा जान गई कि उसके साथ छल किया गया। वह बहुत दुःखी एवं आक्रोशित हो जाती है। सती का यह रूप देखकर देवतागण डर जाते हैं कि वृंदा अपने पवित्रता के भंग होने एवं पति की मुत्य के कारण भयंकर शाप न दे डालें… , जिससे सर्वत्र सर्वनाश हो सकता है। तब यह आशंका देवताओं की देखकर भगवान विष्णु वृंदा को समझाते हैं और उन्हें शांत करते हैं।
सभी देवतागण भी देवी वृंदा से क्षमा याचना करते हैं एवं उन्हें उम्र भर सुहागन रहने का आशीर्वाद प्रदान करते हैं। स्वयं भगवान विष्णु ने उन्हें वरदान दिया “कि हे वृंदा तुम्हारे सतीत्व भंग होने का कारण मैं हूँ अतः तुम्हें तुलसी के रुप में तुम्हारा वरण करता हूँ। तुम्हें यह भी वरदान देता हूँ कि तुम्हें सदा सम्मान की दृष्टि से देखा जायेगा। विवाह की सारी प्रक्रियायें भी तुम्हारे ही विवाह के बाद से प्रारंभ हो सकेगी। बस तब से पतिव्रता वृंदा ने तुलसी रुप में आज भी हिन्दू धर्म में अपना स्थान सर्वोच्च बना रखा है।