संसदीय अवरोध, विपक्षी दलों के 143 सांसदों के निलम्बन एवं उपराष्ट्रपति की मिमिक्री करने की घटनाओं से आक्रामक हुए राजनैतिक माहौल के बीच 28 पार्टियों का इंडिया गठबंधन विपक्षी दलों के साथ चौथी बार फिर से दिल्ली में एक छत के नीचे आया। बैठक का उद्देश्य था कि विपक्षी दलों के बीच सीट शेयरिंग एवं संयोजक के नाम पर सहमति सहित कई मुद्दों पर एक राय कायम करना। लेकिन इंडिया गठबंधन की इस बैठक में दल भले ही आपस में मिले, लेकिन दिल नहीं मिल पाये। लोकतंत्र की मजबूती के लिये सशक्त विपक्ष बहुत जरूरी है, लेकिन विपक्षी दलों की संकीर्ण सोच, सिद्धान्तविहीन राजनीति एवं सत्तालालसा ने विपक्ष की राजनीति को नकारा कर दिया है।
सोचा गया था कि इंडिया गठबंधन विपक्ष से जुड़ी लोकतांत्रिक भागीदारी की लौ को फिर से प्रज्वलित कर सकेगा और ऐसी सोच एवं राजनीति प्रणाली का निर्माण करेगा जो वास्तव में लोगों की, लोगों द्वारा और लोगों के लिए हो। लेकिन ऐसा न होना इंडिया गठबंधन की बड़ी असफलता है और आने वाले वर्ष 2024 के लोकसभा में उसकी भूमिका टांय-टांय फिस ही होती हुई नजर आ रही है। क्योंकि चुनाव से पहले ही इंडिया गठबंधन में एकजुटता की बातें हवा हो रही है। न संयोजक और न ही प्रधानमंत्री और न ही नरेन्द्र मोदी के सामने कौन चुनाव लडे़ के नाम पर सहमति बन पायी है।
आज दुनियाभर में लोकतंत्र विश्वास के संकट का सामना कर रहा है। भारत में विपक्ष की नकारात्मक स्थितियों के कारण यह संकट ज्यादा बड़ा है। इसका कारण है विपक्ष से जुड़े संस्थानों, राजनीतिक हस्तियों और लोकतांत्रिक निर्णयों का आधार बनने वाली प्रणालियों पर धीरे-धीरे कम हो रहा भरोसा। विश्वास का यह संकट तत्काल कार्रवाई की मांग करता है। आज हमें विपक्षी राजनीतिक तंत्र पर मौलिक विचार मंथन के बाद पुनर्मूल्यांकन कर इन्हें पुनर्स्थापित करने की आवश्यकता है ताकि बदलती हुई सामाजिक एवं राष्ट्रीय जरूरतों के साथ सामंजस्य स्थापित किया जा सके और सरकार एवं शासन की प्रक्रिया को और अधिक प्रभावी बनाया जा सकें जिसमें राजनीतिक प्रक्रियाओं का नहीं बल्कि नागरिकों की लोकतांत्रिक आकांक्षाओं का महत्त्व हो।
इंडिया गठबंधन की प्रथम अपेक्षा है कि इससे जुड़े सभी दलों में आपसी सहमति एवं एकजुटता बने। लेकिन चौथी बैठक में ऐसा होता हुई नहीं दिखा।
सबसे खास बिहार के मुख्यमंत्री और इंडिया गठबंधन की नींव रखने वाले नीतीश कुमार ने जल्द से जल्द सीट शेयरिंग के मुद्दे पर आम सहमति बनाने की अपील की, लेकिन जिस बात का डर शुरू से था वही हुआ। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने एक ऐसा प्रस्ताव रख दिया, जिससे विपक्षी एकजुटता में सेंध लगी और राजनीतिक माहौल गरमा गया। ममता दीदी ने चाल चलते हुए मल्लिकार्जुन खड़गे का नाम प्रधानमंत्री/संयोजक पद के लिए रख दिया जबकि इस नाम के लिए नीतीश प्रारंभ से लामबंदी कर रहे थे। खड़गे का नाम सुनते ही ना सिर्फ नीतीश बल्कि नीतीश के नाम के पीछे अपने बेटे तेजस्वी का भविष्य तलाशने वाले लालू यादव भी नाराज हो गए। नाराजगी ऐसी कि दोनों दिग्गज लालू और नीतीश कुमार गठबंधन की बैठक के बीच से ही निकल गए और साझा प्रेस कॉन्फ्रेंस में भी शामिल नहीं हुए। ऐसे में ये भी सवाल उठता है कि क्या गठबंधन में सिर्फ बैठकें होंगी या फिर कुछ निष्कर्ष भी निकलेगा। क्या गठबंधन लोकसभा चुनाव की कोई प्रभावी एवं सार्थक चुनावी प्रक्रिया तय कर पायेगी? क्योंकि लोकसभा चुनाव में अब 6 महीने से भी कम का समय बचा है। मोदी के रथ पर सवार बीजेपी को हराने के लिए इंडिया गठबंधन ऐड़ी चोटी का जोड़ तो लगा रही है, लेकिन सभी दल एक मुद्दे पर सहमत नहीं हो पा रहे हैं।
ऐसा प्रतीत होता है कि विपक्षी दलों का इंडिया गठबंधन कोरा सत्ता के लिए प्रयत्नशील हैं लेकिन लोकतांत्रिक आदर्श के लिए नहीं। ऐसा माना जाता है कि सत्ता समझौतों पर टिकी होती है और आदर्श सिद्धांतों पर। दोनों में संतुलन और सामंजस्य की स्थितियां दुर्लभ होती जा रही है। विपक्षी दल चाहे कितनी ही समस्याएं पैदा करते हों, लेकिन अगर वे अलग-अलग मुद्दों से ज्यादा नीतिगत प्रश्नों पर ध्यान दें तो उन्हीं के जरिए लोगों को आकर्षित कर सकते हैं। कोई भी दल सत्ता में आने के लिए गठबंधन तब करता है जब अकेले सरकार बनाने या जीतने की स्थिति में नहीं होता। लेकिन आदर्शवादी राजनीति सोच इसे सत्तामोह और समझौतावाद कहते हैं। इसका अर्थ यह है कि सिद्धांतवादी दलों को किसी से गठजोड़ नहीं करना चाहिए, भले उसका परिणाम राजनीतिक असफलता ही क्यों न हो। लेकिन राजनीति में गठबंधन एक विवशता बनती जा रही है, क्योंकि किसी भी विपक्षी दल में सिद्धान्त एवं मूल्यों की राजनीति करने का माद्दा नहीं उभर पा रही है।
इंडिया गठबंधन लोकतंत्र की ताकत बनना चाहिए क्योंकि इसने एकदलीय सत्ता का युग खत्म होने के बाद राजनीतिक अस्थिरता और खर्चीले चुनावों के खतरे के प्रति सचेत होकर गठबंधन की सीख बहुत जल्दी ले ली। लेकिन गठबंधन की बुनियादी सोच को विकसित किये बिना ऐसा करना जल्दबाजी एवं सत्ता मोह का निर्णय ही अधिक प्रतीत हो रहा है जिसका कोई सार्थक परिणाम आता हुआ दिखाई नहीं दे रहा है। भले ही विपक्षी दल सिद्धांत और विचारधारा के बदले आर्थिक विकास और व्यापार-रोजगार जैसे नारों से लोगों को लुभा लें। लेकिन ऐसा करते हुए वे अवसरवाद की पुष्टि और विचारधारा के अवमूल्यन के लिए उदाहरण ही प्रस्तुत करते हैं। ऐसे दलों के नेताओं का चरित्र एवं साख भी कोई प्रभावी रंग नहीं दिखा पाती। वे एक दल से दूसरे दल में बेहिचक आते-जाते हैं, पितृदल छोड़ कर नए-नए दल बनाते हैं। यह सब राजनीतिक विचारधारा के अंत का सूचक है।
यह देश का दुर्भाग्य है कि राजनीति में सिद्धांतों और मूल्यों की बातें मजाक होकर रह गई है। बड़ी सोच एवं बड़ी दृष्टि इन विपक्षी दलों में पनप ही नहीं पा रही है। इंडिया गठबंधन में कुछ संभावना बनी थी, लेकिन उसमें भी न तो बड़ी दृष्टि है न देश की सही समझ और न ही बड़ी लड़ाई लड़ने का दम और जीवट दिखाई पड़ता है। अगर वाकई देश को राजनीतिक विनाश के रास्ते से हटा कर सही एवं सकारात्मक रास्ते पर लाना है तो जीवट नेतृत्व की अपेक्षा है। ऐसा विपक्षी नेतृत्व उभरे जिसमें समझ और तप दोनों का समावेश हो। राष्ट्र एवं समाज को विनम्र करने का हथियार मुद्दे या लॉबी नहीं, पद या शोभा नहीं, ईमानदारी है। और यह सब प्राप्त करने के लिए ईमानदारी के साथ सौदा नहीं किया जाना चाहिए, क्योंकि यह भी एक सच्चाई है कि राष्ट्र, सरकार, समाज, संस्था व संविधान ईमानदारी से चलते हैं, न कि झूठे दिखावे, आश्वासन एवं वायदों से। दायित्व और उसकी ईमानदारी से निर्वाह करने की अनभिज्ञता संसार में जितनी क्रूर है, उतनी क्रूर मृत्यु भी नहीं होती। मनुष्य हर स्थिति में मनुष्य रहे।
अच्छी स्थिति में मनुष्य मनुष्य रहे और बुरी स्थिति में वह मनुष्य नहीं रहे, यह मनुष्यता नहीं, परिस्थिति की गुलामी है।
हमारा विपक्षी नेतृत्व अपने पद की श्रेष्ठता और दायित्व की ईमानदारी को व्यक्तिगत अहम् से ऊपर समझने की प्रवृत्ति को विकसित कर मर्यादित व्यवहार करना सीखें अन्यथा शतरंज की इस बिसात में यदि प्यादा वज़ीर को पीट ले तो आश्चर्य नहीं। बहुत से लोग काफी समय तक दवा के स्थान पर बीमारी ढोना पसन्द करते हैं पर क्या वे जीते जी नष्ट नहीं हो जाते? खीर को ठण्डा करके खाने की बात समझ में आती है पर बासी होने तक ठण्डी करने का क्या अर्थ रह जाता है? लोगों के दिलों को जीतने की राजनीति ही सार्थक परिणाम लाती है, विपक्षी दल यह बात भूल कर कब तक अंधेरे में तीर चलाते रहेेंगे। विपक्षी दलों को लोगों के विश्वास का उपभोक्ता नहीं अपितु संरक्षक बनना होगा। भारत न केवल अपने आकार के कारण, बल्कि तेजी से बदलती दुनिया में अनुकूलन और पनपने की अपनी क्षमता के कारण दुनिया की एक महाशक्ति बन रहा है, इन बदलती स्थितियों में भारत के लोकतांत्रिक ढांचे को मजबूती देने के लिये विपक्षी दलों को एक आदर्श मॉडल के रूप में अपनी सहभागिता देनी चाहिए।