-12 जनवरी विवेकानंद जयंती पर विशेष –
विश्व वन्दनीय स्वामी विवेकानंद जैसी महान विभूति ने शायद हिन्दुत्व जागरण जैसे महान कार्य के लिये अपना सारा जीवन ही अर्पित कर दिया था। और यही कारण है कि स्वामी जी का स्थान आज विश्व में सर्वोत्तम है। परम अवतार पुरुष रामकृष्ण परमहंस स्वामीजी के गुरु थे। स्वामीजी के कार्य साधना के प्रेरणा स्त्रोत भी वही थे। कलकत्ते में 12 जनवरी सन् 1863 ई. में संक्रांति के पवित्र त्यौहार दिवस मे स्वामीजी का जन्म विश्वनाथ दत्ता बाबू के यहां हुआ था। इनकी माता का नाम भुवनेश्वरी देवी था। माता इन्हें प्यार से “बिले” कहती थी। वैसे इनका नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था। स्वामीजी से परिचित होने के लिये कुछ घटनाओं का जानना अत्यंत आवश्यक है जो निम्न है।
- दयालु बिले: एक बार की बात है विश्वनाथ ‘दत्त के यहां कई साधु-सन्यासी भिखारी लगभग रोज खाना और पैसे के लिये दरवाजे पर आया करते थे। बिले उन्हें जो कुछ हाथ लगता दे देता। इस पर मां कहती यदि बिले इसी तरह देता रहा तो मैं कैसे घरगृहस्थी चला पाऊंगी?
इसी कारण एक दिन उन्होंने उसे अटारी मे बंद कर दिया। और बोली कि वह अब घर की चीजें नहीं दे पायेगा। एकदम अकेले अटारी पर बंद बैठे बिले उदास हो गया। तुरंत ही उसने एक भिखारी की आवाज सुनी। बिले भिखारी को कुछ देने के लिये सामान खोजने लगा। तभी शाल और कम्बल दिखे उसने तुरंत ही खिड़की से उस भिखारी जो चीथड़ों से ढंका था। उसके शरीर में हड्डी के सिवाय कुछ नहीं था। बिले यह देखकर बहुत दुःखी हो गया और तुरंत उस भिखारी को वह शाल- कम्बल प्रसन्नता पूर्वक दे दिया! बेचारा भिखारी नन्हें बालक की दयालुता’ पर गद्गगद् हो गया।
- सत्यवादी बिले: एक बार भूगोल की कक्षा मे मास्टर ने बिले से एक सवाल पूछा। बिले ने उत्तर तो दे दिया, लेकिन मास्टर ने कहा कि उत्तर गलत है। बिले ने कहा “नही उत्तर बिलकुल सही है।” मास्टर बहुत गुस्सा हुए। उन्होंने उसे न केवल डांटा ही नहीं, बल्कि एक थप्पड़ भी रसीद कर दिया। लेकिन जब मास्टर घर पहुंचे तो इन्हें मालूम हुआ कि बिले ने जो कुछ बताया था, वही ठीक था। वे बिले के घर खेद प्रकट करने बिले के घर गये।
एक दूसरे मौके पर जब मास्टर कक्षा में पढ़ा रहे थे। बिले बातों में लगा था। मास्टर ने उनसे कुछ सवाल पूछे उनका अनुमान था कि वह उत्तर नहीं दे सकेगा, और तब उसे बात करने की सजा दे सकेंगे। लेकिन बिले ने सभी सवालों के जवाब खटाखट दे दिये। इस पर मास्टर ने कहा- “ओह, मैं गलती पर था। तुम वह लड़के नहीं हो जो बातें कर रहा था। तब बिले ने कहा “मास्टर जी. यह सच है कि मैने आपके सवालों का जवाब दे दिया, लेकिन में ही वह लड़का हूं जो बातें कर रहा था।”
- कुशाग्र बिले: स्वामीजी बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि के थे। पिता प्रयास करते थे कि किताबी शिक्षा के अलावा नरेन्द्र का चारो ओर से बुद्धि का विकास हो। पिता-पुत्र के बीच तर्क वितर्क भी होता था। अक्सर ही बिले के तर्क के सामने पिता विश्वनाथ बाबू पराजय स्वीकार करने में थोड़ा भी संकोच नहीं करते थे।
18 वर्ष के होते-होते उन्होंने परमहंस की शिष्यता ग्रहण कर ली जब 16 जून 1885 को रामकृष्ण ने अपना शरीर त्याग किया तो उन्होंने स्वामीजी को संन्यास धारण करने की सलाह दी थी। और अंतिम समय कहा था कि नरेन्द्र संन्यास धारण करने के बाद ही राष्ट्र में में हिन्दुत्व जागरण के कार्य को आसानी से कर सकोगे। “जीवन भर अनवरत आगे बढ़ते रहो। रूक जाना अवनति की निशानी है” – स्वामी विवेकानन्द ।
शिक्षा का उद्देश्य है मनुष्य के अंदर रौशनी पैदा करना, एक ऐसी रोशनी जो उसे जीवन भर मार्ग दर्शन कराती रहे, उसे भटकते न दे।
“स्वामी विवेकान्द”
नरेन्द्र का नया नाम स्वामी विवेकानन्द पड़ गया, जब उन्होंने सन्यास ‘धारण किया और हिंदुत्व जागरण के लिये उन्होंने भारत भ्रमण की लम्बी यात्रा का निश्चय किया। वे देखना चाहते थे कि भारत के विभिन्न भागों के लोगों का रहन सहन कैसा है। इनकी यात्रा के समय एक जोड़ी कपड़ा, एक कमंडल, कुछ पुस्तकें और एक दण्ड था। वे गांव-गांव नंगे पैरों से गुजरते लोगों की हालत देखते और उन्हें हिन्दुत्व का उपदेश देते आगे बढ़ते रहे। कभी पेड़ो के नीचे, कभी गरीब की कुटिया कभी, राजमहल उनका आश्रय बनता था। स्वामी जी वाराणसी ,हिमालय, राजस्थान के मरूस्थल, बंबई, बंगलौर,कोचीन, म.प्र. महाराष्ट्र मदुराई होते हुए रामेश्वरम गए। वे जहां जहां भी गये, वहां उन्होंने गरीबों की तकलीफ ही देखी। स्वामीजी यह सब देखकर भीतर से रो पड़े। वे सोचने लगे भारत का अतीत कितना गौरवमय था। यही महान भारत आज कितना गिर गया है। स्वामी जी सोचते रहते कि हमारा देश फिर कैसे अपना खोया गौरव हासिल कर सकता है।
अपनी यात्रा के अंतिम पड़ाव में वह कुमारी द्वीप कन्याकुमारी जा पहुंचे। वही के एक सागरीय शिला से उन्होंने यह घोषित किया था कि “मुझे राह मिल गई”। जब अमेरिका में सर्वधर्म सम्मेलन का आयोजन होने वाला था तब स्वामीजी ने हिन्दुत्व के जागरण के लिये वहां जाने का निश्चय कर लिया। 31 मई सन् 1893 को स्वामी जी शिकागो (अमेरिका) रवाना हुए। धर्म महासभा की बैठक 11 सितम्बर 1893 से शुरू हुई। सभी धर्मो के प्रतिनिधिगण एक के बाद एक बोले। स्वामीजी तनिक भयभीत थे। आखिकार वे खड़े हुए और मंच में आगे आये और बोले -“”मेरे अमरीकी बहनों और भाईयों।” तुरंत ही जनता में हर्षोल्लास उमड़ पडा। हजारों श्रोता बार-बार करतल ध्वनि करने लगे। वे पहली बार इतना आत्मीय संबोधन सुनकर गदगद हो उठे थे।
स्वामीजी ने गेरूये परिधान में सात हजार लोगों के सामने जो भाषण दिया वह सीधे जाकर लोगों के अंतर को छु रहा था। उनकी तेजस्वी वाणी गुंज रही थी- “भारत भूमि दर्शन, अध्यात्म, नैतिकता, प्रेम तथा शिष्टाचार की जन्म भूमि है। अपने अनुभव के आधार पर मैं दृढ़ता से कह सकता हूं कि भारत आज भी इस संबंध में दुनिया का अग्रणी है। इसे महान कार्य करने हैं……आश्चर्यजनक शक्ति प्राप्त करनी है। हमें दूसरे राष्ट्रों को बहुत सी बातें सिखलानी है।
स्वदेश में लौटने पर स्वामीजी का जगह-जगह भव्य स्वागत किया गया। बंगाल में उन्होंने कहा था- “वे निर्भिक बने और शक्ति उत्साह एवं विश्वास के साथ अपना सब कुछ देश के लिये बलिदान देने को तैयार हो जाएं। हमारे पूर्वजों ने हमें जो आध्यात्मिक थाती सौंपी है। उससे विश्व की परिचित करावें। तभी तो भारत अपना समुन्नत आध्यात्मिक पद एक बार फिर से प्राप्त कर सकेगा।” “वाराणसी में उन्होंने कहा था- “तुम तब तक हिन्दु कहलाने के अधिकारी नहीं हो सकते, जब तक इस नाम को धारण करने वाला कोई अंकिचन भी दुख दारिद्र्य से पीड़ित है।