कुछ कर गुजरने की तमन्ना ही युवावस्था की पराकाष्ठा है

-12 जनवरी राष्ट्रीय युवा दिवस पर विशेष-

युवावस्था जीवन की सबसे महत्वपूर्ण अवस्था होती है। इस अवस्था में व्यक्ति, सामर्थ्यवान, शक्तिशाली, चैतन्यवान, स्फूर्तिवान इत्यादि अनेक गुणों से लबालब होता है, इसके बाद इन गुणों में क्रमशः कमी आती जाती है प्रायः वैसे देखा जाये तो भारतीय युवक दुनिया के अन्य देशों की अपेक्षा अधिक संयत और समझदार पाये जाते हैं। पश्चिमी दुनिया के युवक नशों के शिकंजे में अपने आपको जकड़ चुके हैं। वे मानव सभ्यता के विकास और सामाजिक जीवन की मर्यादाओं पर जरा भी विश्वास नहीं करते​। उनका कहना है कि मानव समाज का संगठन प्रारंभ से ही कुछ ग़लत धारणाओं के आधार पर किया गया है। ऐसे समाज की जड खोदकर उसे समाप्त कर देना उनकी दृष्टि में एक पुण्य कार्य है। वही वे मर्यादाहीन उच्छृंखलता की सारी हदें पारकर चुके हैं।- जबकि भारतीय युवा जगत में अभी ऐसी मर्यादाहीन उच्छृंखलता देखने को नहीं मिलती हैं। 

  अब से पचास साठ वर्ष पूर्व तक यहाँ का युवा वर्ग परिवार और समाज द्वारा अनुशासित था। अंग्रेजी शासन. सरकारी नौकरी में चुनाव के समय युवकों की शिक्षा और व्यक्तिगत योग्यताओं के साथ-उनके पारिवारिक परम्पराओं को भी महत्व देता था। इसलिये वाह्य व्यावहारिक जीवन में से आधुनिक होते हुये भी प्रायः जीवन के उन मूल्यों और अंधविश्वासों तक के प्रति आस्थावान बने रहते थे, जो उनके कुल में प्राचीनकाल से चले आ रहे थे। महात्मा गाँधी ने सन् 1920 में युवा वर्ग को असहयोग आंदोलन में शामिल होने का आह्वान किया। उक्त आंदोलन में सम्मिलित होने का अर्थ ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकना ही नही था वरन अप्रत्यक्ष रूप से परम्परागत रीति, रस्म रिवाज़ों के प्रति विद्रोह करके बहुत सी पारिवारिक और सामाजिक मर्यादाओं को छिन्न भिन्न करना भी उसके अंतर्गत था। फिर पुन: सन 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात देश में युवा आंदोलन का दूसरा दौर शुरू हुआ। युवा वर्ग में इस समय यह भावना थी कि वे एक स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक है और उनकी भावना की कदर होना चाहिये। दूसरी ओर नया शासक वर्ग ब्रिटिश शासनकाल से चली आई शिक्षा पद्धति को बिना बदले उन्हें अपनी मान्यताओं के अनुसार मर्यादाओं के नये सांचों में ढालना चाहता था।

सन् 1965 के बाद से भारतीय युवा आंदोलन में एक नया मोड़ आया, समझदार युवकों ने देखा कि रोज़गार के दफ्तर खुले होने के बाद भी बेरोज़गारी बढ़ती जा रही है। वंही दी जाने वाली शिक्षा का वास्तविक और व्यावहारिक जीवन में उपयोगी नहीं हो पा रहा हैं फिर भ्रष्टाचार और महँगाई निरंतर बढती जा रही है नैतिकता नाम की चीज़ समाज में नहीं रह गई है। गरीब और गरीब और अमीर पे अमीर होते जा रहे हैं, तब युवा वर्ग की अपनी निरुददेश्य उच्छृंखलता का परिज्याग कर निर्माण को किसी दिशा की ओर ले जाने वाले आंदोलन की आवश्यकता का एहसास हुआ। वे गम्भीर होकर विचार करने और अपने आंदोलन को सोद्देश्य पूर्ण बनाने की चेष्टा भी करने लगे। तभी गुजरात राज्य में भ्रष्टाचार के विरुद्ध हुआ आंदोलन एवं विधानसभा भंग करो आंदोलन का श्रीगणेश हुआ था।

 हमारे देश  में युवा वर्ग की कुल जनसंख्या चालीस करोड़ के आसपास है, पर यह इतनी बड़ी शक्ति संगठन के अभाव में बिखरी पड़ी हैं। युवावर्ग की ऐसी कोई संस्था नहीं हैं जो इस शक्ति का प्रतिनिधित्व कर सकें। देश के विभिन्न राजनैतिक दल अपनी अपनी ‘विचारधारा के अनुसार इसे संगठित करने का प्रयत्न करते हैं फिर उनका उपयोग अपने ही उद्देश्यों की पूर्ति के लिये  करने लग जाते हैं।

 भारतीय युवक के सामने आज सबसे बड़ी समस्या अपने दिमाग की दृढ़ता और नैतिकता को कायम रखने की आवश्यकता है। हमारा देश आज राजकीय पुँजीवाद एकाधिकार तथा निजी पूँजीवाद एकाधिकार के कठिन संघर्ष के बीच से गुजर रहा है। दोनों ही अपने अपने तरीके से युवा वर्ग को आकर्षित करने का प्रयत्न कर रह है। बाहर से युवा वर्ग को नीति न्याय और सिद्धांत की बहुत सी बातें बताई जाती हैं। समाजवाद जनतंत्र और धर्म निरपेक्षता के ऊंचे आदर्श उनके सामने रखे जाते हैं — किंतु युवक के सामने जब उन आदर्शो का हनन होता है तभी युवा आक्रोश जाग उठता है । 

अध्यापक अभिभावक और सामाजिक नेता छात्रो को प्रत्यक्ष रूप में कुछ सिखाते हैं और ठीक उसके विपरीत आचरण करने के लिये अप्रत्यक्ष रूप से प्रेरित करते हैं। युवक अपने स्वभाव से सच्चा ईमानदार और नैतिकता पूर्ण आचरण पसंद करने वाला होता है। आज आवश्यकता इस बात की है कि युवक को दी जाने वाली शिक्षा जीवन के लिये उपयोगी बनाई जाए और युवा शक्ति को रचनात्मक दिशा देने का प्रयास किया जाय।    कहते है जिस प्रकार अग्नि के शांत होते ही उसकी प्रचण्ड लगने वाली ज्वाला समाप्त हो जाती है वैसे ही मनोविकारों को मिटाते ही बुद्धि शुद्ध हो जाती हैं। युवा वर्ग को इसीलिए सर्वप्रथम आवश्यकता है अपना विकारों पर पूर्ण नियंत्रण। उन्हें पनपने का जरा भी मौका न मिले, इसका ख्याल अगर युवा वर्ग कर लें तो निसंदेह आगे बढ़ने से उन्हें कोई नहीं रोक सकता।

सुरेश सिंह बैस "शाश्वत"
सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”

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