राजमाता विजया राजे सिंधिया मिलनसार, स्नेही तथा जनसेवी भावना से ओतप्रोत महिला थीं, साथ ही एक कुशल राजनीतिज्ञ भी थीं। उनकी जनसेवा का प्रभाव देखें उनके नहीं रहने के बाद भी आज भी कई शैक्षणिक संस्थान, चिकित्सा संस्थान व समाज उपयोगी कार्य अनवरत उनके आशीर्वाद से चल रहे हैं। अपने निजी जीवन में वे बहुत सादगी पसंद थी। लेकिन कर्मठता पूर्वक कार्य उन्होंने ताउम्र ऐसा किया कि उन्हें नजदीक से जानने वाले उनकी अनथक कार्यशैली को देखकर दांतो तले ऊँगली दबा लेते थे। राजमाता विजयाराजे सिंधिया का जन्म मध्य प्रदेश के सागर जिले में हुआ था। उनके पिता ठाकुर ठाकुर महेंद्र सिंह ब्रिटिश हुकुमत में डिप्टी कलेक्टर थे। अल्पावस्था से ही अपने नाना नानी के सानिध्य में रही, जिनके संस्कारों से अभिभूत राजमाता पर बहुत गहरा असर पड़ा।
एक फरवरी 1969 के चुनाव माहौल में जब अटल बिहारी वाजपेई वाराणसी पहुंचे थे तो बेनिया बाग में आमसभा रखी गई थी, जिसमे राजमाता का भी भाषण था। वे जब बोल चुकीं तब बाजपेयी जी भाषण देने खड़े हुए। उनके संबोधन पश्चात प्रथम संवाद के-” कहिये सुना आपने राजमाता का भाषण….! कितना ओज है कितनी वेदना है उनके भाषण में! रानजीति के क्षेत्र में है कोई दूसरा, जो इनके साथ तुलना कर सकें। अपने राजमहल के सब सुख छोड़कर वे आज जनता का दुःख बंटाने निकल पड़ी हैं। अटल जी ने भी राजमाता को हमेशा बड़प्पन और सम्मान दिया, उन्होंने तो उनके ऊपर से लेख भी लिखे हैं। राजमाता का आत्मबल काफी ओजता लिये हुये था। वे कोई भी निर्णय लेने और उसे कार्यरूप में परिणित करने में जरा भी नहीं सकुचाती थीं। जनता के हितों के लिये वे किसी भी खतरे का सामना करने के लिये सदा तैयार रहती थीं। जनहित के लिये कितना भी बड़ा त्याग करने के लिए वे तत्पर रहती थीं । इसका एक उदाहरण है। जब ग्वालियर राज्य का विलय भारतीय गणराज्य में हुआ तो उस समय उन्होंने कहा कि हमारा राज्य खत्म हो रहा है जरूर, अपितु जनता के कल्याण के लिये यदि प्रजातंत्र ज्यादा हितकर है तो उसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार किया। जनता के विकास और कल्याण के लिये ही उन्होंने ने राजनीति में कदम रखा।
1965 के आम चुनाव के बाद का मध्य प्रदेश के महाकौशल और विंध्य के क्षेत्र में सूखे के कारण भयंकर अकाल पड़ा था। सो वहां लोगों का जीवन दूभर हो गया था। जिन लोगों की यह जिम्मेदारी थी कि वे ऐसी विकट परिस्थितियों से वहां की जनता को निजात दिलाने का प्रयास करें। उन ऐसे सत्ताधीश भूखीनंगी जनता के समक्ष जाने की बजाय पचमढ़ी की सुरम्य वादियों पर पिकनिक मना रहे थे। तब ऐसी स्थिति को देखकर राजमाता से रहा नहीं गया। और वे अपने स्वास्थ्य और सुखचैन की चिंता किये बगैर उस सूखे और प्रचंड गर्मी में धुंआधार दौरा किया। जहां वे लोगों के बीच जाकर उनके दुःख दर्द को सुनकर उन्हें दिलासा देती और जितना मदद करते बन सका वे अपनी क्षमतानुसार उनके दर्द को कम करने का कार्य किया। राजमाता ने कभी भी कुर्सी का मोह नहीं किया। वे चाहती तो कभी की मुख्यमंत्री सहित बड़े पदों पर सुशोभित हो सकती थीं। पर उन्होंने जनसेवा में आने, इसे गौण समझा और यही शैली इन्हें जनता में लोकप्रिय और विजय शालिनी बनाने में हमेशा सहायक सिद्ध होता रहा। उन्होंने हमेशा नारी जाति को स्वावलंबी और उसकी शक्ति को महसूस कराने का कार्य किया।
16 मई 1969 को मध्यप्रदेश के विधान सभा चुनाव में उन्होंने तभी तो उज्जैन की नारियों से एक सभा में कहाकि मैं जानती हूं कि महिलाओं में कार्य करने की असीम शक्ति है आवश्यकता इस बात की है कि वे किसी कार्य का संकल्प धारण कर कार्य में जुटें। समानता के प्रचार का उपयोग कर उन्हें देश सेवा में लग जाना चाहिये। ऐसे कठिन काल में जबकि समाज में नैतिकता, चरित्र और धर्म का लोप होने का समय हैं, महिलाओं को आगे बढ़कर अपनी संस्कृति, धर्म और देश की परम्पराओं की रक्षा करनी चाहिये। राजमाता के जीवन में हिन्दुत्व के प्रबल पोषक और आजादी के प्रतीक महाराणा प्रताप और शिवाजी के चरित्र का गहरा प्रभाव और बहुत कुछ अनुकरणीय भाव परिलक्षित दिखाई देता है।
राजमाता ने राजनीति में प्रवेश कांग्रेस पार्टी की सदस्यता ग्रहण करने के साथ किया। और सर्वप्रथम उन्होंने 1962 में ग्वालियर से लोकसभा चुनाव लड़ा। जिसमें बहुती भारी मतों से विजयी रही। इसी वर्ष वज्राघात स्वरुप उनके पति महाराज का भी निधन हो गया। 1966 आते आते उनका कांग्रेस पार्टी में मोहभंग हो गया और उन्होंने जनसंघ पार्टी की सदस्यता ग्रहण कर लिया। और जब भारतीय जनता पाटी का जन्म हुआ तो पार्टी को जन्म देने वाले लोगों में प्रमुख रूप से राजमाता भी शामिल थीं ।