– सुरेश सिंह बैस शाश्वत
महुआ जिसका वानस्पतिक नाम मधूचा लोंगफोलिओ है, एक भारतीय उष्णकटिबन्धीय वृक्ष है जो उत्तर भारत के मैदानी इलाकों सहित मध्यप्रदेश एवं सपूर्ण छत्तीसगढ़ के जंगलों में बड़े पैमाने पर पाया जाता है। यह एक तेजी से बढ़ने वाला वृक्ष है जो लगभग पचीस मीटर की ऊँचाई तक बढ़ सकता है। इसके पत्ते आमतौर पर वर्ष भर हरे रहते हैं। यह पादपों के सपोटेसी परिवार से सम्बन्ध रखता है। यह शुष्क पर्यावरण के अनुकूल ढल गया है, यह मध्य भारत के उष्णकटिबंधीय पर्णपाती वन का एक प्रमुख पेड़ है। सामाजिक कार्यकर्ता राकेश देवड़े बिरसावादी ने बताया कि-“महुआ के पेड़ और प्राचीन आदिवासी समाज का बहुत गहरा नाता है, जब अनाज नहीं था तब आदिम आदिवासी समाज के लोग महुआ के फल को खाकर अपना जीवन गुजारते थे, आदिवासी समाज के पारंपरिक सांस्कृतिक लोकगीतों में महुआ के गीत गाए जाते हैं। विशेष प्राकृतिक अवसरों पर आज भी महुआ के पेड़ की पूजा की जाती है।
मधुक अथवा महुआ एक कल्पवृक्ष जो इंसान समेत पृथ्वी के अन्य प्राणियों के लिए सबसे ज्यादा फायदेमंद हैं। महुआ के फूल, सुंदर, और मीठी सुंगंध वाले, जब पुष्पित होते हैं तो वातावरण में नशीली खुशबू छा जाती है। महुआ, आम आदमी का पुष्प और फल दोनों हैं। आम आदमी का फल होने के कारण यह जंगली हो गया, और जंगल के प्राणियों का भरपूर पोषण किया। आज के शहरी लोग इसे आदिवासियों का अन्न कहते हैं। सच तो यह है कि गांव में बसने वालों उन लोगों के जिनके यहां महुआ के पेड़ है, बैसाख और जेठ के महीने में इसके फूल नाश्ता और भोजन हैं। पांचवे दशक में महुआ ग्रामीण जन-जीवन का आधार होता था। प्रत्येक घर में शाम को महुआ के सूखे फूल को धो-साफ कर चूल्हों में कंडा-उपरी की मंद आंच में पकाने के लिए रख देते थे। रातभर वह पकता, पक कर छुहारे की तरह हो जाता। ठंडा हो जाने पर उसे दही, दूध के साथ खाने का आनन्द अनिर्वचनीय होता। कुछ लोग आधा पकने पर कच्चे आम को छीलकर उसी में पकने के लिए डाल देते। वह खटमिट्ठा स्वाद याद आते ही आज भी मुंह में पानी आ जाता है। लेकिन न वे पकाने वाली दादियां रहीं न, माताएं अब तो सिर्फ उस मिठास की यादें भर शेष हैं। इसे डोभरी कहते, इसे खाकर पटौंहा में कथरी बिछाकर जेठ के घाम को चुनौती दी जाती थी। लगातार दो महीने सुबह डोभरी खाने पर देह की कान्ति बदल जाती थी। डोभरी का अहसास आज भी जमुहाई ला देता है।