पुलों का ढहना शासन-तंत्र की भ्रष्टता का प्रमाण

बिहार में एक पखवाड़े के भीतर लगभग एक दर्जन छोटे-बड़े पुलों के ध्वस्त होने की घटनाएं हैरान करने के साथ-साथ चिंतित करने वाली हैं। जैसी खबरें हैं, अकेले बुधवार, यानी 3 जुलाई को ही राज्य के विभिन्न हिस्सों में पांच पुल-पुलिया धराशायी हो गए। इनमें सिवान में छाड़ी नदी पर बने दो पुल शामिल हैं। इससे पहले दिल्ली के इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर टर्मिनल-1 पर छत गिरने की घटना से भी हर कोई हैरान है। इस हादसे के कारण अनेक वाहन क्षतिग्रस्त हुए एवं एक व्यक्ति की मौत हो गई और 8 लोग घायल हुए थे। सभी को इस बात की हैरानी हो रही है कि देश के सबसे प्रमुख हवाईअड्डे पर इस तरह का हादसा कैसे हो सकता है? मुंबई में भी घाटकोपर का होर्डिग गिरना 14 लोगों की मौत का कारण बना था।

इन पुलों के गिरने एवं अन्य सरकारी निर्माणों के ध्वस्त होने की घटनाओं ने एक बार फिर यही साबित किया है कि निर्माण कार्यों में फैले व्यापक भ्रष्टाचार और शासन तंत्र में बैठे लोगों की मिलीभगत के बीच ईमानदारी, नैतिकता, जिम्मेदारी या संवेदनशीलता जैसी बातों की जगह नहीं है। आज हमारी व्यवस्था चाहे राजनीति की हो, सामाजिक हो, पारिवारिक हो, धार्मिक हो, औद्योगिक हो, शैक्षणिक हो, चरमरा गई है, दोषग्रस्त हो गई है। उसमें दुराग्रही इतना तेज चलते हैं कि ईमानदारी बहुत पीछे रह जाती है। जो सद्प्रयास किए जा रहे हैं, वे निष्फल हो रहे हैं। पुल के गिरने से जितने पैसों की बर्बादी हुई, उसकी भरपाई आखिर किससे कराई जाएगी? बिहार में पुल गिरने की ताजा घटनाएं कोई पहली नहीं है। इससे पहले पिछले साल भर में सात पुलों के ढह जाने की खबरें आईं थी।

जाहिर है, इन पुलों के ढहने एवं गिरने से कई गांवों का आपस में सीधा संपर्क टूट गया है और मानसून के मौसम में उनकी परेशानियां बढ़ गई हैं। बरसात के मौसम में जर्जर ढांचों के गिरने की घटनाएं ज्यादा घटती हैं और इसीलिए सभी राज्यों में स्थानीय प्रशासन मानसून आने से पहले ही उनकी पहचान कर उनका इस्तेमाल प्रतिबंधित कर देता है। मगर पुल कोई रिहाइशी इमारत नहीं, जिसमें चंद परिवार या कुछ लोग रहते हों, और जिसे एहतियातन खाली करा लिया जाए। ये पुल ग्रामीण लोगों के जीवन की अनिवार्यता एवं जीवनरेखाएं हैं। उच्च तकनीक और प्रौद्योगिकी के मौजूदा समय में उच्च लागत के बावजूद छोटी नदियों और नहरों पर बनने वाले पुल भी यदि चंद वर्षों में या बनते ही धराशायी हो जाएं, तो इसको कुदरती कहर का नतीजा नहीं, आपराधिक मानवीय लापरवाही, भ्रष्टाचार एवं सरकारी धन का दुरुपयोग ही मानना चाहिए। बिहार में सिवान की जिस नदी पर दो पुलों के ढहने की घटना घटी है, वह मृत हो चुकी थी और उसे जल-जीवन हरियाली अभियान के तहत पुनर्जीवित किया गया था। निस्संदेह, इसके लिए राज्य सरकार और स्थानीय प्रशासन सराहना के पात्र हैं। आखिर इस नदी के जिंदा होने से हजारों एकड़ भूमि की सिंचाई को बल मिला है। मगर क्या उसी तंत्र को यह भी नहीं सुनिश्चित करना चाहिए था कि जो पुल जर्जर अवस्था में हैं, उनका विकल्प भी साथ-साथ तैयार किया जाए?

इस तरह बार-बार पुलों का गिरना एवं ध्वस्त होना सरकार में गहरे पैठ चुके भ्रष्टाचार, लापरवाही एवं रिश्वतखोरी को उजागर करता है। आजादी के अमृत-काल में पहुंचने के बाद भी भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, बेईमानी हमारी व्यवस्था में तीव्रता से व्याप्त है, अनेक हादसों एवं जानमाल की हानि के बावजूद भ्रष्ट हो चुकी मोटी चमड़ी पर कोई असर नहीं होता। ये पुल हादसें एवं ध्वस्त होने की घटनाएं बिहार में सरकारी भ्रष्टाचार के चरम पर होने को ही बल देती है। ऐसा नहीं है कि बिहार में ही ऐसे हादसें हो रहे हैं। गुजरात के मोरबी पुल हादसे को लोग अब भी नहीं भूले हैं। इस हादसे में 135 लोगों की मौत हो गई थी। सात साल पहले कोलकाता में विवेकानंद पुल के ढहने से 26 लोगों की मौत की घटना भी सबको याद होगी। सिर्फ बिहार में पुलों का यूं ढहते जाना ही चिंता की बात नहीं है, दूसरे तमाम राज्यों से भी चमचम सड़कों पर बनते गड्ढ़ों और नए निर्माण के दरकने की खबरें लगभग रोजाना सुर्खियां बटोर रही हैं। इसलिए बेहतर होगा कि तमाम सार्वजनिक निर्माण में पारदर्शिता, ईमानदारी एवं आधुनिक स्थापित मानकों की गारंटी सुनिश्चित की जाए और इसमें किसी किस्म की कोताही बरतने वाले की जिम्मेदारी तय हो। देश भर में तमाम पुराने पुलों की समीक्षा के साथ-साथ उनके रखरखाव या वैकल्पिक पुल के निर्माण को लेकर ठोस कदम उठाए जाने चाहिए।

 इतना तय है कि ये सभी पुल अगर भरभरा कर गिर रहे हैं तो इनकी डिजाइन गलत होने से लेकर उसमें उपयोग होने वाली सामग्री के घटिया होने का भी साफ संकेत है। लेकिन जिस तरह सरकार इन एवं ऐसे पुलों की गुणवत्ता और जोखिम का अध्ययन करा रही थी, क्या उसके निर्माण के दौरान या उससे पहले डिजाइन सहित उसके हर कसौटी पर बेहतर होने के लिए जांच कराना सुनिश्चित नहीं कर सकती थी? यह तय है कि इन पुलों के निर्माण में व्यापक खामियां थीं और वे भ्रष्टाचार की भेंट चढ़ गये। सवाल है कि जब सरकार किसी कंपनी को पुल निर्माण की जिम्मेदारी सौंपती हैं, उससे पहले क्या गुणवत्ता की कसौटी पर पूरी निर्माण योजना, डिजाइन, प्रक्रिया, सामग्री, समय-सीमा और संपूर्णता को सुनिश्चित किया जाना जरूरी समझा जाता?

देश में भ्रष्टाचार सर्वत्र व्याप्त है, विशेषतः राजनीतिक एवं प्रशासनिक भ्रष्टाचार ने देश के विकास को अवरूद्ध कर रखा है। यही कारण है कि पुल या दूसरे निर्माण-कार्यों के लिए रखे गए बजट का बड़ा हिस्सा कमीशन-रिश्वतखोरी की भेंट चढ़ जाता है। इसका सीधा असर निर्माण की गुणवत्ता पर पड़ता है। निर्माण घटिया होगा तो फिर उसके धराशायी होने की आशंका भी बनी रहती है। हादसों का एक बड़ा कारण जांच में दोषी और जिम्मेदार ठहराए गए अधिकारियों एवं ठेकेदारों के खिलाफ सख्त कार्रवाई का न होना भी है। बिहार, दिल्ली, मुम्बई, गुजरात हादसों के दोषियों को बचाने के प्रयास भी सबके सामने हुए हैं। हर हादसे के बाद लीपापोती के प्रयास खूब होते हैं। हादसे में मरने वालों के परिजनों को मुआवजा बांटकर ही अपनी जिम्मेदारी पूरी समझने वाली सरकारों को इससे आगे बढ़ना होगा। निर्माण कार्यों की गुणवत्ता पर निगरानी रखने की पारदर्शी नीति नियामक केन्द्र बनाने के साथ उस पर अमल भी जरूरी है। विकसित देशों में भी ऐसे हादसे होते हैं, लेकिन अंतर यह है कि भारत में ऐसे हादसों से सबक नहीं लिया जाता। यह प्रवृत्ति दुर्भाग्यपूर्ण है। विडम्बना देखिये कि ऐसे भ्रष्ट शिखरों को बचाने के लिये सरकार कितने सारे झूठ का सहारा लेती है।

हादसों की जांच से काम नहीं चलने वाला। ऐसे निर्माण कार्यों में कमीशन-रिश्वतखोरी रोकने पर खास ध्यान देने की आवश्यकता है, क्योंकि जब ठेकेदार एक बड़ी राशि कमीशन के तौर पर दे देता है, तो फिर वह निर्माण कार्य में भी गुणवत्ता बनाए रखने के प्रति लापरवाह हो जाता है। लापरवाही की परिणति ऐसे हादसों के रूप में सामने आती है। प्रगतिशील कदम उठाने वाले नेतृत्व ने अगर भ्रष्ट व्यवस्था सुधारने में मुक्त मन से सहयोग नहीं दिया तो कहीं हम अपने स्वार्थी उन्माद एवं भ्रष्टता में कोई ऐसा धागा नहीं खींच बैठें, जिससे पूरा कपड़ा ही उधड़ जाए। राजनीति के क्षेत्र में भ्रष्टाचार के मामले में एक-दूसरे के पैरों के नीचे से फट्टा खींचने का अभिनय तो सभी दल एवं नेता करते हैं पर खींचता कोई भी नहीं।

रणनीति में सभी अपने को चाणक्य बताने का प्रयास करते हैं पर चन्द्रगुप्त किसी के पास नहीं है। घोटालों और भ्रष्टाचार के लिए हल्ला उनके लिए राजनैतिक मुद्दा होता है, कोई नैतिक आग्रह नहीं। कारण अपने गिरेबार मंे तो सभी झांकते हैं वहां सभी को अपनी कमीज दागी नजर आती है, फिर भला भ्रष्टाचार से कौन निजात दिरायेगा? ऐसी व्यवस्था कब कायम होगी कि जिसे कोई ”रिश्वत“ छू नहीं सके, जिसको कोई ”सिफारिश“ प्रभावित नहीं कर सके और जिसकी कोई कीमत नहीं लगा सके। ईमानदारी अभिनय करके नहीं बताई जा सकती, उसे जीना पड़ता है कथनी और करनी की समानता के स्तर तक। आवश्यकता है, राजनीति के क्षेत्र में जब हम जन मुखातिब हों तो प्रामाणिकता का बिल्ला हमारे सीने पर हो। उसे घर पर रखकर न आएं। राजनीति के क्षेत्र में हमारा कुर्ता कबीर की चादर हो। तभी इन भ्रष्ट पुलों का भर-भराकर गिरना बन्द होगा

ललित गर्ग
ललित गर्ग
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