दीवार पर उगता फूल : मानव मन के आत्मिक सौंदर्य की अभिव्यक्ति

प्रमोद दीक्षित मलय शिक्षक, बाँदा (उ.प्र.)
प्रमोद दीक्षित मलय शिक्षक, बाँदा (उ.प्र.)

साहित्यकार जितेंद्र शर्मा मूलतः गद्यकार हैं। अपनी कहानियों एवं संस्मरणों से वह पाठकों के बीच  बहुपठित हैं और समादृत भी। पांच कहानी संग्रह, दो उपन्यास और एक संस्मरण संग्रह के बाद समय साक्ष्य प्रकाशन, देहरादून से  हालिया प्रकाशित ‘दीवार पर उगता फूल’ उनका पहला काव्य संग्रह है जो जीवन के आठवें दशक के पश्चात जीवनानुभवों से उपजी कविताओं को सहेजे पाठकों को आकर्षित कर रहा है। संग्रह की कविताएं अपने समय के सच की आहट हैं। गहरी संवेदना एवं सामाजिक सरोकारों से लैश ये कविताएं जीवन की गहराई में उतरने की एक पगडंडी मुहैया कराती हैं जिसके दोनों ओर नर्म घास की हरित चादर पर धूप ने स्नेह एवं प्रेम का स्वर्णिम पीलापन बिखेर रखा है। संग्रह की कविताओं से गुजरना वास्तव में जीवन से संवाद करने जैसा है जहां मानवीय मूल्य, विश्वास एवं समता का निर्झर प्रवहमान है, जिसकी मधुमय धारा में ईर्ष्या-द्वेष, विषमता एवं कड़वाहट के झाड़-झंखाड़ के लिए कोई जगह नहीं है।

     ‘दीवार पर उगता फूल’ की कविताएं मानव मन के आत्मिक अनुभूतियों एवं नैसर्गिक सौंदर्य  की सुखद अभिव्यक्ति है। इनमें एक और जहां मानवीय मूल्य, संवेदना, सहकार की आभा के बिम्ब हैं तो वहीं दूसरी ओर समाज जीवन में व्याप्त तमाम कठोर विद्रूपताओं और अवरोधों की दृढ जमीन को तोड़कर सुख, संतुष्टि एवं सामंजस्य का वितान तानने का उत्साह भी। संकलन की कविताओं में किसी पहाड़ी झरने सा प्रवाह है जिसमें निर्मलता एवं शीतलता तो है ही साथ ही सांगीतिक आरोह-अवरोह की लयात्मकता और सरसता के सम्मोहन के साथ ही आगे बढ़ने का संकल्प भी है। शीर्षक कविता ‘दीवार पर उगता फूल’ की पंक्तियां दृष्टव्य हैं- ऐ! मेरे बेजुबान दोस्त/ पत्थर चीर कर/ निकली तेरी/ गुलाबी मुस्कान/ सिर उठाकर बोली राज की बात/ रास्ता अवरुद्ध हो तो/ चट्टान से उपजो/ दिल खोलकर बांटो मुस्कान/ उगो-पनपो/ सिर्फ अपने लिए नहीं/ औरों के लिए भी। संग्रह में कुल 34 कविताएं शामिल है जो रचनाकार के जीवन के विविध अनुभवात्मक चित्रों को उपस्थित करती हैं। इनमें प्रेम एवं सहानुभूति की कोमलता है तो स्नेह एवं वात्सल्य की मलय बयार भी। व्यक्ति को अहर्निश कुछ करने, नया रचने-गुनने की प्रेरणा है तो सांसारिक नश्वरता, क्षण भंगुरता एवं माया-मोह से मुक्त होने का विरक्ति भाव भी। ‘जीभ, जीवन और रोमांस’ कविता की अंतिम पंक्तियां संकेत करती हैं- खाना हो या फिर चखना/ दोनों का अंतिम सार एक/ माटी से सब स्वाद उगा/ माटी ही से सब भूख मिटी/ माटी से मिला जीवन/ माटी में ही मिला जीवन/ ये भी माटी वो भी माटी/माटी ही केवल सत्य एक।

उम्र के पड़ाव पर पहाड़ी सर्द रात में ठिठुरते वह स्वयं से सवाल करते हैं- सुबह जब सूरज की किरणें/ दरवाजे पर दस्तक देंगी/ ठिठुरन से टीसती उंगलियों से/ मैं दरवाजा कैसे खोलूंगा। ये पंक्तियां 

जीवन के अंधकार में उगती नित्य नवीन उम्मीद के कोमल उजालों की स्नेहिल दार्शनिक व्याख्या है। एक अन्य कविता ‘मसूरी-84’ में मसूरी के आम जनजीवन के कई खुरदुरे दृश्य प्रकट होते हैं। आदमी द्वारा खींचे जाने वाले रिक्शा के माध्यम से कवि श्रम के प्रति सम्मान व्यक्त करते हुए वहीं मानव द्वारा मानव की गरिमा एवं सम्मान के विरुद्ध अमानवीय व्यवहार एवं शोषण के खिलाफ बिगुल भी फूंकता है। कह सकते हैं कवि कि दृष्टि में मानवता एवं आदर्श सर्वोपरि है। पहाड़ी दैनंदिन जीवन की पीड़ा, कष्ट एवं जीवटता को शब्दों में बांध कवि आगे कहता हैं-  दर्द को छुपाए मुस्कुराना/ चलते रहना/ इनका जीवन है/ जो अंत तक/ आरंभ बना गतिमान रहता है। कवि की दृष्टि से स्त्री जीवन का पक्ष ओझल नहीं हुआ है।‌ ‘आदमी का हाथ थामे औरत’ कविता में एक स्त्री के संघर्ष, अस्तित्व, आत्मविश्वास, अस्मिता और स्वाभिमान की झलक दिखाई देती है- जमीन नहीं खिसकने दूंगी/ बाजू में दम है मेरे/ कस के जिऊंगी जिंदगी/ इसे भी कांख में दबोचे चलूंगी/ जीवन भर। वहीं राजनीति पर करारी चोट करती कविता ‘जादुई सपने से जगा’ में रोजी-रोटी एवं स्थाई रोजगार की तलाश में भटकती पोस्ट ग्रेजुएट युवा पीढ़ी महान देश में अपने अस्तित्व की राह खोजती चुनावी नारे लगाने और जीने को विवश है।

जीवन का आधार प्रेम है। प्रेम का गोंद ही परिवार और समाज को परस्पर जोड़े रखता है। ‘अहसास’ कविता में प्रेम की उच्च स्थिति दिखाई देती है जहां कामना रहित प्रेम एकाकार हो एकात्मिक हो जाता है, भौगोलिक दूरियां तब मायने नहीं रखतीं। अच्छी कविता वही कही जाती है जिसमें सीधे सपाट बयानी की वजह प्रतीको एवं बिम्बों के माध्यम से बात कही जाए। संग्रह की कविताएं इस कसौटी पर खरी उतरती हैं। कवि ने बहुत नवल प्रतीक एवं बिम्बों का सुंदर प्रयोग करके नए रास्ते चुने हैं। देखें, काले घुंघराले/ यौवन की चिकनाई पर इतराते/ घने लहराते/ पाले पोसे सुंदर बाल/ समय के झोंके सहते/ कब उड़द की दाल हो गए/ पता ही नहीं चला। ऐसे ही कनपटी की पगडंडी, चांदी का मुकुट सफल प्रतीक कहे जा सकते हैं। अकेले रह रहे बूढ़े मां-बाप के दर्द को स्वर देती पंक्तियां हृदय को भिगो देती हैं- जैसे परिवार में/तन मन से पोसे बच्चे/ समय आने पर/ उड़ जाते हैं/ दूर देश/ सोने का घोंसला बनाने/ एक-दूसरे के और नजदीक/ सरक आते हैं, उम्रदराज मां बाप।

संग्रह की अन्य कविताएं- मैले कपड़ों में उदास औरत, रुमाल, नर्तन, स्वाद, आर यू ओके, क्षरण, खबरें बासी हैं, चाह-एक सपने की पाठक का ध्यान आकर्षित करती हैं।

 वस्तुत: ‘दीवार पर उगता फूल’ संग्रह की कविताएं अपनी विषयवस्तु, बुनावट, संवेदना, प्रकृति प्रेम एवं रसात्मकता से पाठक की आत्मीयता प्राप्त कर लेती हैं। इन कविताओं में जीवन का यथार्थ झलकता है। इन्हें पढ़ना अपने परिवेश को समझने-जीने जैसा है। आवरण मनमोहक है, मुद्रण साफ-सुथरा है। मुझे पूरा विश्वास है, ‘दीवार पर उगता फूल’ अपने परिमल पराग से पाठकों को सुवासित करेगा, पढ़ा और सराहा जायेगा।

कृति – दीवार पर उगता फूल

कवि – जितेंद्र शर्मा

प्रकाशक – समय साक्ष्य, देहरादून

मूल्य – ₹95/-, पृष्ठ – 68

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