छत्रपति प्रतिमा का ढहना शासन-तंत्र की भ्रष्टता का प्रमाण

मराठा पहचान और परम्परा के प्रतीक पुरुष, प्रथम हिन्दू नेता छत्रपति शिवाजी महाराज की प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा हाल ही में की गयी 35 फीट ऊंची प्रतिमा का थरथरा कर गिर जाना राष्ट्रीय शर्म एवं प्रशासनिक भ्रष्टाचार का दुःखद अध्याय है। इस तरह हमारे एक महानायक की महान स्मृतियों से जुड़ी इस प्रतिमा का गिरना एवं ध्वस्त होना सरकार में गहरे पैठ चुके भ्रष्टाचार, लापरवाही एवं रिश्वतखोरी को उजागर करता है। आजादी के अमृत-काल में पहुंचने के बाद भी भ्रष्टाचार, रिश्वतखोरी, बेईमानी हमारी व्यवस्था में जिस तीव्रता से व्याप्त है, उसका यह एक ज्वलंत उदाहरण है, जो सरकार की साख को धुंधला रही है, यह घटना भारतीय नौसेना की साख को भी बट्टा लगा रही है, यह घटना इसलिए भी गंभीर चिंता की बात है कि इससे हमारे सार्वजनिक निर्माण कार्यों की गुणवत्ता की कलई खुल गई है। गौर कीजिए, इस प्रतिमा के निर्माण पर करीब 3,600 करोड़ रुपये की लागत आई थी और इसी 4 दिसंबर को नौसेना दिवस पर इसका अनावरण किया गया था।

सिंधु दुर्ग में शिवाजी महाराज की इस प्रतिमा के गिर जाने से महाराष्ट्र की राजनीति में उबाल आना स्वाभाविक है, इससे लोगों का आहत होना भी उचित हैं। क्योंकि छत्रपति शिवाजी महाराज महाराष्ट्र के महानायक एवं जन-जन की आस्था के केन्द्र हैं। वे महाराष्ट्र के जीवन का अभिन्न अंग हैं एवं वहां की राजनीति उनके नाम के इर्द-गिर्द घूमती है। महाराष्ट्र ही नहीं सम्पूर्ण देश में शिवाजी महाराज के प्रशंसक हैं। मराठों के अस्तित्व एवं अस्मिता के वे प्राण रहे हैं, मराठों को उन्होंने ने ही लड़ना सिखाया, उनके जीवन को उन्नत बनाया। उन्होंने बिना किसी भेदभाव के महाराष्ट्र की सभी जातियों को एक भगवा झंडे के नीचे एकत्रित किया और मराठा साम्राज्य की स्थापना की। शिवाजी ने अपने राज्य-शासन में मानवीय नीतियां अपनाई थी जो किसी धर्म पर आधारित नहीं थी। महाराष्ट्र क्योंकि उनकी जन्मस्थली ही नहीं कर्मस्थली भी रहा इसलिए महाराष्ट्र की आबोहवा में वे आज भी जीवंत हैं। ऐसे महानायक की प्रतिमा के गिर जाने के बाद महाराष्ट्र की राजनीति में तूफान खड़ा हो गया है। मूर्ति का निर्माण और डिजाइन नौसेना ने तैयार किया था। कहा तो यही जा रहा है कि 45 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से चल रही हवाओं के कारण प्रतिमा टूटकर गिर गई।

छत्रपति शिवाजी के महाराष्ट्र और मराठा संस्कृति के ही नहीं, बल्कि भारतीयता के प्रतीक एवं प्रेरणा पुरुष हैं। आम मराठी भावनात्मक रूप से उनसे जुड़ा है। ऐसे में, इस मूर्ति का ढहना राज्य की एकनाथ शिंदे सरकार एवं भारतीय नौसेना की विश्वसनीयता पर सवाल खड़े करती है। चंद महीने बाद ही राज्य में विधानसभा चुनाव होने के कारण यह एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनना निश्चित है। एक मजबूत विपक्षी पार्टी शिव सेना की पूरी राजनीति शिवाजी के शौर्य व आत्म-गौरव से प्रेरित है, एनसीपी शरद पवार, कांग्रेस सहित कई विपक्षी दलों ने एकनाथ शिंदे सरकार को निशाना बनाना शुरू कर दिया है और आरोप लगाया है कि छत्रपति शिवाजी का स्मारक चुनावों को देखते हुए जल्दबाजी में बनाया गया था और इस काम में गुणवत्ता को पूरी तरह से अनदेखा किया गया।

प्रतिमा का ढह जाना छत्रपति शिवाजी का अपमान तो है ही और यह जाहिर है कि इसका काम घटिया गुणवत्ता का था। इसीलिये घटना को शिवाजी के अपमान के रूप में पेश किया जाने लगा है। चुनाव की सरगर्मियों के बीच शिवाजी की प्रतिमा का मुद्दा चर्चा में आ गया है। इस मुद्दे को वोट जुटाने के लिए असरदार हथियार के रूप में जरूर इस्तेमान किया जायेगा। लेकिन मूल प्रश्न है ऐसे भ्रष्टाचार को रोकने की दिशा में कब सार्थक प्रयास होंगे? राज्य की एकनाथ शिंदे सरकार को इस मामले में त्वरित कार्रवाई करके दोषियों को कड़ी सजा दिलानी चाहिए, ताकि न सिर्फ विपक्ष के आरोपों की धार को निस्तेज किया जा सके, बल्कि सार्वजनिक निर्माण में किसी किस्म की लापरवाही या उदासीनता बरतने वालों को भी यह संदेश मिल सके कि वे बख्शे नहीं जाएंगे।

यह पहली घटना नहीं है, जिसमें किसी बड़ी निर्माण योजना की कमी इस तरह की भ्रष्ट एवं लापरवाही के रूप में उजागर हुई है। हमारे सार्वजनिक निर्माण कार्यों की गुणवत्ता बार-बार तार-तार होती रही है। मई 2023 में उज्जैन के महालोक कोरिडोर में लगी सप्तऋषियों की मूर्तियां भी इसी तरह आंधी-तूफान में धराशायी हो गई थीं। अयोध्या में भी सड़के ध्वस्त हो गयी थी। बिहार में एक पखवाड़े के भीतर लगभग एक दर्जन छोटे-बड़े पुलों के ध्वस्त होने की घटनाएं हैरान करने के साथ-साथ चिंतित करने वाली बनी हैं। दिल्ली के इंदिरा गांधी इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर टर्मिनल-1 पर छत गिरने की घटना से भी हर कोई हैरान हुआ है। मुंबई में घाटकोपर का होर्डिग गिरना 14 लोगों की मौत का कारण बना था।

कहीं नई बनी सड़कें धंस हो जाती हैं तो कहीं नई सरकारी इमारतों में दरारे पड़ जाती है। इन मूर्तियों, पुलों, सड़कों एवं सार्वजनिक निर्माण के अन्य सरकारी निर्माणों के ध्वस्त होने की घटनाओं ने एक बार फिर यही साबित किया है कि निर्माण कार्यों में फैले व्यापक भ्रष्टाचार और शासन तंत्र में बैठे लोगों की मिलीभगत के बीच ईमानदारी, नैतिकता, जिम्मेदारी या संवेदनशीलता जैसी बातों की जगह नहीं है। आज हमारी व्यवस्था चरमरा गई है, दोषग्रस्त हो गई है। उसमें दुराग्रही इतना तेज चलते हैं कि ईमानदारी बहुत पीछे रह जाती है। जो सद्प्रयास किए जा रहे हैं, वे निष्फल हो रहे हैं। प्रतिमाएं हो या पुल-इनके गिरने से जितने पैसों की बर्बादी होती है, उसकी भरपाई आखिर किससे कराई जाएगी? जाहिर है, इनकी वजहों को समझने के लिए किसी मजबूत, पारदर्शी एवं निष्पक्ष तंत्र की जरूरत है। निर्माण सामग्रियों की गुणवत्ता से समझौता और राजनीतिक दबाव में जल्द से जल्द कार्य पूरा करने की प्रवृत्ति ने ऐसी दुर्घटनाओं की गति एवं मात्रा बढ़ाई है। इसके लिए समूचे तंत्र को अपनी कार्य-संस्कृति पर भी गौर करने की जरूरत है। शिवाजी की प्रतिमा के तेज हवा में यूं ढह जाने से हमें सबक सीखने की जरूरत है।

सवाल है कि जब सरकार किसी कंपनी को ऐसे राष्ट्रीय महत्व के निर्माण की जिम्मेदारी सौंपती हैं, उससे पहले क्या गुणवत्ता की कसौटी पर पूरी निर्माण योजना, डिजाइन, प्रक्रिया, सामग्री, समय-सीमा और संपूर्णता को सुनिश्चित किया जाना जरूरी समझा जाता? देश में भ्रष्टाचार सर्वत्र व्याप्त है, विशेषतः राजनीतिक एवं प्रशासनिक भ्रष्टाचार ने देश के विकास को अवरूद्ध कर रखा है। यही कारण है कि पुल या दूसरे निर्माण-कार्यों के लिए रखे गए बजट का बड़ा हिस्सा कमीशन-रिश्वतखोरी की भेंट चढ़ जाता है। इसका सीधा असर निर्माण की गुणवत्ता पर पड़ता है।

निर्माण घटिया होगा तो फिर उसके धराशायी होने की आशंका भी बनी रहती है। निर्माण कार्यों की गुणवत्ता पर निगरानी रखने की पारदर्शी नीति नियामक केन्द्र बनाने के साथ उस पर अमल भी जरूरी है। विकसित देशों में भी ऐसे हादसे होते हैं, लेकिन अंतर यह है कि भारत में ऐसे हादसों से सबक नहीं लिया जाता। यह प्रवृत्ति दुर्भाग्यपूर्ण है। विडम्बना देखिये कि ऐसे भ्रष्ट शिखरों को बचाने के लिये सरकार कितने सारे झूठ का सहारा लेती है।

रणनीति में सभी अपने को चाणक्य बताने का प्रयास करते हैं पर चन्द्रगुप्त किसी के पास नहीं है। घोटालों और भ्रष्टाचार के लिए हल्ला उनके लिए राजनैतिक मुद्दा होता है, कोई नैतिक आग्रह नहीं। कारण अपने गिरेबार मंे तो सभी झांकते हैं वहां सभी को अपनी कमीज दागी नजर आती है, फिर भला भ्रष्टाचार से कौन निजात दिरायेगा? ऐसी व्यवस्था कब कायम होगी कि जिसे कोई ”रिश्वत“ छू नहीं सके, जिसको कोई ”सिफारिश“ प्रभावित नहीं कर सके और जिसकी कोई कीमत नहीं लगा सके। ईमानदारी अभिनय करके नहीं बताई जा सकती, उसे जीना पड़ता है कथनी और करनी की समानता के स्तर तक। आवश्यकता है, राजनीति के क्षेत्र में जब हम जन मुखातिब हों तो प्रामाणिकता का बिल्ला हमारे सीने पर हो। उसे घर पर रखकर न आएं। राजनीति के क्षेत्र में हमारा कुर्ता कबीर की चादर हो। तभी इन मूर्तियों, पुलों, निर्माण कार्यों का भर-भराकर गिरना बन्द होगा।

ललित गर्ग
ललित गर्ग

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