हिंदी राष्ट्रभाषा होकर भी वस्तुतः राजभाषा नहीं बन पाई

-14 सितम्बर हिंदी दिवस पर विशेष-

राष्ट्र कोई भौगोलिक इकाई ही मात्र नहीं है, उससे अधिक कुछ और है। हमारी धर्म, भाषा, वेशभूषा, परंपरा रीतिरिवाज़ आदि के द्वारा बाहर से अलग दिखाई देने वाला राष्ट्र भीतर से एक ऐसे अंतर धारा से जुड़ा होता है, जो उसके प्राणों को सींच कर उसे सोशलिस्ट बनाता है। अगर ऐसा नहीं होता तो पंजाब के नानक, कश्मीर के ललधर, महाराष्ट्र के एकनाथ, उत्तरप्रदेश के कबीर,असम के शंकरदेव गुजरात के नरसी मेहता,सिंध के एवल, बंगाल के चैतन्य, दक्षिण के कटाचा वेंकटैया तिवरल्लुर सहित अनेक लोगों की साहित्य की भाव भूमि एक नही होती।

जिस प्रकार राष्ट्र भौगोलिक ईकाई से अधिक है, ठीक उसी प्रकार भाषा अभिव्यक्ति के माध्यम से भी कुछ अधिक है। इसमें पूरे राष्ट्र का जीवन उसकी संस्कृति और सभ्यता संपादित होती है। सीखी हुई दूसरी भाषा की धारणा शक्ति चाहे जितनी समृद्ध हो, वह उतनी नहीं होती कि वह किसी राष्ट्र के जीवन के सभी अंतर्संबंधों को अपने संपूर्ण वैशिष्ट्य के साथ व्यक्त कर सके। अतः राष्ट्र अपने चरित्रगत वैशिष्ट्य को जिस भाषा के माध्यम से अधिक स्पष्ट रूप से उद्भाटित करता है और अधिक से अधिक जन समाज तक पहुंचाता है, दरअसल वही राष्ट्रभाषा होती हैं। इस कसौटी पर हिंदी हमारे देश के लिये एकदम खरी उतरती है। पाठकों आपको यह जानकर अत्यधिक प्रसन्नता होगी कि विश्व का प्रत्येक छटवां व्यक्ति हिंदी में बातचीत करता है। अतः निर्विवाद तौर पर हिंदी भाषा देश की राष्ट्रभाषा है।

वह इसलिये क्योंकि यह भारत की सामयिक संस्कृति की ‌वाहक है। हर क्षेत्र, प्रांत, तथा हर वर्ग के लोगों ने इसे सजाया संवारा है. हर भाषा के शब्दों को आत्मसात करने की क्षमता ने इसे व्यापक धरातल प्रदान किया है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद जब राजभाषा का प्रश्न सामने आया तो देश के बहुत बड़े भूभाग में बोली जाने वाली और लगभग पूरे देश में समझी जाने वाली देशवासियों के बीच आदान प्रदान की सहज सुलभ भाषा हिंदी को स्वभावत: प्रधान राजभाषा का दर्जा दिया गया, और प्रतिष्ठित किया गया. और तब भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 के द्वारा यह परिभाषित किया गया कि भारतीय संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी।

भारत के संविधान में भाषा संबंधी जो उपबंध उसके अनुसार प्रारंभ में हिंदी के साथ पंद्रह वर्षों तक अंग्रेजी का प्रयोग चलना था, और उसके बाद 1965 से राजकाज की भाषा हिंदी हो जानी थी किंतु 1965 आते-आते इसका ऐसा संशोधन कर दिया गया कि 15 वर्षों के लिए की गई अस्थाई व्यवस्था का स्थाई इंतजाम हो गया। यह सही है कि संविधान में राजभाषा की व्यवस्था किये जाने पर शुरु शुरु में हिंदी को समृद्ध करने की दिशा में बहुत कुछ किया गया। हिंदी को प्रतिष्ठ करने तथा उसे हर विषय के भाव और भंगिमा को अभिव्यक्त करने की दृष्टि से  समृद्ध भाषा बनाने के प्रयास हुए। इस दिशा में सरकार भी आगे बढ़ी और अनेक संस्थाएं भी आगे आई। ये समय राष्ट्रीयता का उत्कर्ष काल था अतः राष्ट्रीय गौरव के प्रतीक भाषा, संस्कृत, साहित्य सभी की एक चेतना से उद्दीप्त करने के प्रयास  हुए,किंतु धीरे-धीरे इस पर प्रादेशिकता, सरकारी सेवाओं में वर्चस्व राजनीतिक छल और वोटों के जुगाड़ के लिए राष्ट्रीय हितों से समझौतों की पर्त चढ़ती चली गई।

वक्त बीतते बीतते सब कुछ बदल गया। सभी करके किये कराए पर पानी फिर गया। हम जहां खड़े थे वही के ‌वंही खड़े रह गए। प्रशासन की शब्दावली हमारे पास है किंतु प्रशासक, हमारे कर्मचारी तंत्र उसका इस्तेमाल नही सके।एक बाहरी भाषा (अंग्रेजी) का उपयोग कर अपनी  शान में बढ़ोत्तरी समझते हैं। विधि की शब्दावली हमारे पास है. कानून हिंदी में है किंतु न्यायाधीश हिंदी में फैसले नही लिखते। वैज्ञानिक शब्दावली, व्यवसाय की शब्दावली के पोथे के पोथे हमने रच डाले हैं, किंतु उनका प्रयोग करने वाला कोई नही है। यह तो वही हुआ ना हम बिना नदी में कूदे तैरना जान जांये।

देखा जाए तो भाषा को लेकर सबसे बडा छल कानूनों के मामले में किया जाता है। अनेक हिंदी भाषी राज्यों में कानूनों की भाषा हिंदी है और उसका अंग्रेजी अनुवाद राष्ट्रपति के प्राधिकार से प्रकाशित किया जाता है, लेकिन क्या ऐसा होता है? जी नहीं, आज भी स्थिति वही है. किसी न किसी पुराने कानूनों को आधार बनाकर कानून का प्रारूपण अंग्रेजी में होता है, फिर उसका हिंदी अनुवाद किया जाता है और फिर ठप्पा मूल अधिनियम का लगा दिया जाता है। मूल अंग्रेजी का जो कानून लिपिबद्ध रहता है वह अंग्रेजी प्राधिकृत अनुवाद हो जाता है। कानूनों के  अनुवाद की बैशाखी ढोते ढोते 76 वर्ष गुजर गए लेकिन हिंदी प्रारूपण के क्षेत्र में यहां कुछ भी नहीं हुआ और न निकट भविष्य में कुछ होता दिखाई देता है।

प्रायः कहा जाता है कि कानून की भाषा सहज नहीं है किंतु अनुवाद के सहारे भाषा सहज बने कैसे? फिर न्यायालयों में व्याख्या भी.अंग्रेजी पाठ के माध्यम से ही होती है अतः उस अनुवाद की भाषा का विश्लेषण तथा व्याख्या नहीं होने से भाषा में निखार और सुनिश्चितता कैसे आवेगी? बस यथास्थिति बनी हुई है। जैसा चला आ रहा है वैसा ही चल रहा है. चलता ही  रहेगा। उधर अंग्रेजी को देखिए कानून के एक-एक शब्द की व्याख्या पर पोथियां मौजूद हैं, हिंदी बिचारी के भाग्य में अभी यह सब कहां।    शिक्षा के मामले में दशा  और भी बद्तर है। उच्च शिक्षा सभी जगह  अंग्रेजी में हैं यद्यपि अंग्रेजों के समय प्रशासन की भाषा अंग्रेजी चलाई गई थी फिर आवश्यकता को देखते हुए हाई स्कूल तक 

 शिक्षा का माध्यम हिंदी ही रही। होना तो यह चाहिए था कि हिंदी ऊपर उठकर महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों तक जाती। लेकिन हुआ इसका बिल्कुल उल्टा। पब्लिक स्कूलों के प्रति सम्मोहन ने कुछ ऐसा माहौल पैदा कर दिया कि अब मध्यम वर्ग का आदमी अपने बच्चों को उन स्कूलों में भर्ती के लिए पंक्तिबद्ध खड़ा है। यह पीढ़ी जब पढ़कर बाहर आएगी तब तक राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति अनुराग का उसका रस सूख चुका होगा।

इस प्रकार अब तक हिंदी राष्ट्रभाषा होकर भी वस्तुतः राजभाषा नहीं बन पाई। संविधान में लिखित व्यवस्था होने पर भी उसमें (अंग्रेजी)  कुछ ऐसे पंख लग गये हैं कि उनके होते हुए अंग्रेजी कभी दबे पांव और कभी खुलेआम धड़ल्ले से शिक्षा, प्रशासन, न्याय व्यवस्था, विज्ञान प्रौद्योगिकी, वाणिज्य व्यवसाय,  राजनीति, चिकित्सालय सभी क्षेत्रों में प्रचार करती चली गई और भारतीय अस्मिता की पहचान हमारी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा हिंदी अधिकारच्युत हो गई। हैरानी की बात यह है कि हमारी हिंदीसेवी साहित्यिक संस्थाओं एवं राजनेताओ की इस बात का एहसास है। इसलिये जब हिंदी दिवस जैसे कोई अवसर आते हैं तो हमारी हिंदी सेवी साहित्यिक संस्थाएं सोते से जागतीं हैं। जोर जोर से हिंदी में सभी कामकाज करने की शपथ लेती हैं. हिंदी का प्रशासन न्याय, शिक्षा सभी क्षेत्र मे प्रतिष्ठापित करने की प्रतिज्ञा को दोहराया जाता है।

आपने देखा होगा, प्राय: रेलवे स्टेशन में अधिकांश सभी बैंको में बड़े बड़े पोस्टरों में यह लिखा रहता है कि यदि आप हिंदी में ही लिखा पढ़ी करे तो हमें खुशी होगी। यदि आप हिंदी में बात करें तो हमारा सम्मान होगा। पर स्वयं वहीं के कर्मचारी अधिकारी आपसे अंग्रेजी में लिखा पढ़ी और बात करते हैं। बेशर्मी की भी हद होती है उनकी यह बातें प्रतिज्ञा, शपथ अथवा किसी भी निश्चय के पीछे “संकल्प का बल” और सुनियोजित योजना कौशल नहीं होने के कारण टांय टांय फिस हो जाता है। वह सब कसरत धरी रह जाती है और रह जाता है मात्र क्षणिक भावावेश का इजहार कोरी रश्मअदायगी और उत्सव धर्मिता बस। हम कहते नहीं थकते की राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है लेकिन इस गूंगे पन से मुक्ति के लिए हमने क्या किया यही ना किसी एक अदद विदेशी भाषा को हमने उधार ले लिया। तब यह समझाया गया था कि यह एक थोड़े समय का सौदा है, लेकिन अब यह ऐसा लगता है कि एक पक्की व्यवस्था में तब्दील हो गया है।

   जिस प्रकार हमे उधार की हर चीज से प्यार है उसी प्रकार यह उधार ली हुई भाषा भी हमारे गले का फंदा बन गई है और भाषा से लेकर भूषा (पहनावा) तक हम उधारजीवी राष्ट्र बन गये हैं। अब स्थिति यह है कि न तो हमसे विदेशी कर्ज उतारे उतर रहा है और न ये विदेशी भाषा। ऐसे में प्रश्न उठता है कि हमारी राष्ट्र भाषा या राजभाषा आखिर है कौन सी ? अगर हम कहें कि आज भारत की राजभाषा और राष्ट्रभाषा भी अंग्रेजी है तो हैरत कि उसके लिए हमें प्रमाण ढूंढने के लिए कहीं नहीं जाना पड़ता बस अपने घर देखने और घर पर चलने वाली टीवी पर एक नजर डालने भर की जरूरत है। क्या आप सीने पर हाथ रखकर कह सकते हैं कि आपके बच्चे अथवा उनके बच्चे अँग्रेजी स्कूल में नहीं जाते?

इस अंग्रेजी माध्यम से तैयार होने वाली पीढ़ी की भाषा क्या होगी? टीवी पर एक नजर डाले समाचार आ रहा है हमारे प्रधानमंत्री अथवा वरिष्ठ राजनयिक विदेशी राजनयिक से मिलते दिखाये जा रहे हैं। विदेशी राजनयिक अपनी भाषा बोल रहा है, अपनी भाषा मतलब जिसे वह अपने घर नगर में बोलता है। लेकिन हमारे नेता…? बस यही अंग्रेजी और ऐसा भी नहीं कि वह विदेशी अंग्रेजी समझता ही हो उसे भी दो पैसे के माध्यम से समझाना होता है तो क्या हिंदी किसी अन्य भाषा में अनूदित किए जाने योग्य भी नहीं है अथवा अंग्रेजी हमारी अस्मिता की परिचायक बन गई है या हम अपने लज्जा के प्रदर्शन को ही अपनी अस्मिता मान बैठे हैं।

 खैर!दूसरा दृश्य देखें ,भारत की सर्वोच्च संस्था संसद का अधिवेशन दिखाया जा रहा है.इसमें प्रश्नोत्तर की भाषा को देखें।  शत प्रतिशत नही तो नब्बे प्रतिशत तो अंग्रेजी ही बोलचाल की भाषा होगी। ध्यान रहे यह संसद ही केवल समझता है। दूरदर्शन पर जितनी भी राष्ट्रीय कहे जाने वाले कार्यक्रम आते हैं। इनमें से अधिकतर अंग्रेज मे ही होते है, जरूर कुछ अपवाद भी हैं। उद्घोषक और निवेदक अंग्रेजी में ही सूचनाएं देते हैं। जन स्वास्थ्य की, ग्रामोद्धार की, जनसंख्या विस्फोट की, पर्यावरण सुधार की या कृषि विज्ञान प्रौद्योगिकी और चिकित्सा क्षेत्र को माना‌ वह अंग्रेजी क्षेत्र के लोगों के लिए ही है, मगर आज देश में अंग्रेजी अखबार पढ़ने वाले मात्र छह प्रतिशत व्यक्ति हैं। जबकि तथाकथित राष्ट्रभाषा हिंदी के समाचार पत्रों को पढ़ने वालों की संख्या इससे कहीं बहुत अधिक है।

सुरेश सिंह बैस "शाश्वत"
सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”

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