विज्ञापन कितने काम की

जी हा विज्ञापन के बिना तो मानो अब बिजनेस की कल्पना भी नहीं की जाती है। वैसे भी अब विज्ञापन के बिना व्यवसाय करना एक असंभव सी बात है। इसीलिये तो अब कहा जाने लगा है कि जो व्यवसायी विज्ञापन बंद कर देता है तो वह जैसे घड़ी के कांटों को रोककर समझता है, समय रुक गया है। विज्ञापनों की अनिवार्यता मांग को बढ़ाने के लिये तो होती ही है साथ ही मांग को बरकरार  रखने के लिये भी होती हैं।    इसका एक मनोवैज्ञानिक पहलू भी हैं कि जब कोई उपभोक्ता अपने द्वारा उपयोग की जाने वाली चीज का विज्ञापन अखबार या टीवी पर देखता हैं, तो उसे बड़ा सुकून सा मिलता है। विज्ञापनों का अपना महत्व तो निश्चित ही हैं , भले ही अब इसे अश्लील होते जाने की तोहमत लग रहीं हैं। विज्ञापन नहीं होते तो आज कई चीजें हमारे घरों तक नहीं पहुँच पातीं।

वैसे साधारणः देखने से लगता है कि विज्ञापन के कारण वस्तुयें महंगी हो जाती है। पर ऐसा है नहीं। विज्ञापन के कारण प्रतिस्पर्धा बढ़ जाती हैं,जिस कारण उत्पादक मनमाने दाम वसूल नहीं पाता। बल्कि वहीं विज्ञापन बड़े पैमाने पर मांग तैयार कर देते हैं। इससे उत्पादनों का आधार बहुत बड़ा हो जाता है ,तब व्यापक पैमाने पर उत्पादन होने लगता है। तब वही चीज सस्ती कीमत में मिलनी शुरु हो जाती हैं।

विज्ञापन नहीं होते तो आज भारत की आबादी बहुत ज्यादा होतीं। वहीं बाजार में चीजें बहुत महंगी होतीं। विज्ञापन नहीं होते तो शायद दूरदर्शन पर या अन्य चैनलों पर कोई अच्छा कार्यकम ही नहीं होता, क्योंकि उन कार्यक्रमों को कोई प्रयोजक ही नहीं मिलता। विज्ञापन नहीं होने के कारण अखबारों की कीमत भी बढ़ी हुई होतीं।

विज्ञापन सतही न होकर गहरी छाप छोड़ती हैं जैसे विज्ञापन नई सूचनायें देने के साथ हमारा ज्ञान भी बढाती है। लोगों के विचार, स्थानों में परिवर्तन लाती है। हजारों लोगों को प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रोजगार देकर उनके रोजी रोटी की जुगाड़ करती है। लेकिन विज्ञापन माध्यम के दुरुपयोग की बात अलग हैं। केवल विज्ञापन के कारण भी कोई वस्तु बाजार में निरंतर नहीं बिकती। विज्ञापन तो केवल एक कारण हैं कोई भी वस्तु बाजार में लगातार अपनी गुणवत्ता के कारण ही बिकता है। और कोई भी अच्छा विज्ञापन अभियान यों ही नहीं हो जाता। विज्ञापन अभियान के पूर्व बाजार के रुख की जाँच, ग्राहकों  से सीधा संपर्क, उनकी पसंदगी जानने के बाद ही सारी जानकारी एकत्र होती हैं। 

विज्ञापन तैयार करने वाली एजेंसी यह सारी जानकारी एकत्र करती है, जो उस उत्पादन से संबंधित होती हैं। जैसे वह कंपनी और क्या – क्या उत्पादन करती है। वह जो वस्तु बनाती है उसमें क्या क्या चीजें मिली होती हैं, निर्माण की प्रक्रिया क्या है? उत्पादित, वस्तु का आकार, कीमत रंग, गुण क्या हैं? और दूसरे उत्पादों से वह कैसे अलग है। उसे किस आधार पर विज्ञापित करके बेचा जा सकता हैं। किस वर्ग, लिंग, आयु, के उपभोक्ताओं के लिये हैं वह उत्पादन। क्या वे उसे खरीदने की क्षमता रखते हैं। इन तमान बातों की  लंबी प्रक्रिया के पश्चात् ही एक विज्ञापन अभियान तैयार होता है। फिर ,कैसा विज्ञापन, कहाँ, कैसे और उसका माध्यम किन किन किन भाषाओं में दी जाये।

यह धारणा भी आम विज्ञापनों के संबंध में कानून का प्रतिबंध ही नहीं है। नहीं यह तत्थ्य बिलकुल गलत है, यहां पर यह जानकारी देना अत्यावश्यक होगा कि प्रत्येक विज्ञापनों पर सरकारी बंधन तगड़े हैं। शराब। सिगरेट के विज्ञापनों को टीवी, रेडियों में प्रतिबंधित किया गया है, वहीं विज्ञापन जगत की अपनी अलग संहिता है जिसका पालन हर विज्ञापन एजेंसी को करना ही पड़ता है। इसके लिए समुचित कानून हैं जो विज्ञपनों पर पूरी नजर रखते हैं, जिनमें ड्रग्स कंट्रोल एक्ट, प्रिवेंशन ऑफ फूड एण्ड मर्केंटाइल मार्क्स एक्ट, प्रिवेंशन ऑफ फुड एडल्ट्रेशन एक्ट, फार्मेसी एक्ट, प्राइज कम्पीटीशन एक्ट, एम्र्बरलम्स एण्ड नेम्स एक्ट प्रमुख हैं।

अंततः कुल मिलकर यह कह सकते हैं कि आज की इस चकाचौंध और शोबिज  की दुनिया में विज्ञापन अति आवश्यक अंग बन चुकी है। 

सुरेश सिंह बैस "शाश्वत"
सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”
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