सामाजिक न्याय की पिच पर नई सोशल इंजीनियरिंग अपेक्षित

-विश्व सामाजिक न्याय दिवस- 20 फरवरी, 2025-

विश्व सामाजिक न्याय दिवस सामाजिक न्याय को बढ़ावा देने की आवश्यकता को पहचानने वाला एक अंतरराष्ट्रीय दिवस है, जिसमें गरीबी, लैंगिक असमानता, महंगाई, महिला अत्याचार, बेरोजगारी, मानवाधिकार और सामाजिक सुरक्षा जैसे मुद्दों से निपटने के प्रयास शामिल हैं। यह दिवस प्रतिवर्ष 20 फरवरी को मनाया जाता है और यह आयोजन हर साल हमें अधिक निष्पक्ष, अधिक न्यायसंगत, अधिक समान, अधिक मानवीय समाज बनाने की आवश्यकता की याद दिलाना। इसका उद्देश्य हमें यह पहचानने में मदद करना है कि मनुष्य के रूप में हमने जितनी भी प्रगति की है, उसके बावजूद कई बाधाएं अधिसंख्य लोगों को एक निष्पक्ष एवं समानतापूर्ण जीवन जीने से रोकती हैं। इस दिवस की 2025 की थीम है ‘समावेश को सशक्त बनाना: सामाजिक न्याय के लिए अंतराल को पाटना’। थीम प्रणालीगत असमानता को दूर करने में समावेशी नीतियों, निरंतर सीखने और सामाजिक सुरक्षा की महत्वपूर्ण भूमिका पर जोर देती है।

इसे पहली बार साल 2009 में मनाया गया था। दुनिया में बढ़ती समस्याओं को देखते हुए आज सामाजिक न्याय की जितनी जरूरत है उतनी पहले शायद पहले नहीं थी। दुनिया में राजनैतिक विभाजन पहले से अधिक हो रहा है एवं समुदायों में असुरक्षा ज्यादा बढ़ती दिख रही है। हम सब मिलकर जाति-धर्म, गरीबी- अमीरी, वंश-वर्ग आदि सारे भेदभाव को भुलाकर एक स्वस्थ एवं आदर्श समाज की स्थापना करें और मानव अधिकारों का सम्मान करें, यही इस दिवस का मूल उद्देश्य है। सामाजिक न्याय की पिच पर ही नई सोशल इंजीनियरिंग तैयार हो सकती है।

यह संयुक्त राष्ट्र (यूएन) द्वारा निष्पक्षता को बढ़ावा देने के लिए आयोजित एक वार्षिक कार्यक्रम है, जो आज अधिक प्रासंगिक है। इस संदर्भ में निष्पक्षता का अर्थ है शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य सेवा, न्याय और अन्य के समान मानकों तक समान पहुंच। सभी की इन चीजों के समान मानकों तक समान पहुंच होनी चाहिए, चाहे उनकी जाति, धर्म, लैंगिकता, लिंग या वर्ग कुछ भी हो। विश्व सामाजिक न्याय का मतलब है, ऐसा समाज बनाना जहां सभी लोगों को समान अधिकार, अवसर और व्यवहार मिलें। सामाजिक न्याय के ज़रिए समाज की आर्थिक और सामाजिक विषमताओं को कम करने की कोशिश की जाती है और सभी नागरिकों को सामाजिक समानता देने के प्रयास किये जाते हैं।

समाज की सामान्य भलाई के लिए दूसरों की देखभाल एवं सहायता करने की ज़िम्मेदारी और सभी को अपनी ज़िंदगी में सुधार करने के लिए समान अवसर मिले, इसके लिये यह दिवस एक आह्वान है। सामाजिक न्याय की आकांक्षा, यह सुनिश्चित करती है कि हर कामकाजी पुरुष और महिला को अपने योगदान के मुताबिक उचित हिस्सा मिले, जो सामाजिक न्याय, सामाजिक एकजुटता, आर्थिक विकास, और मानव प्रगति के लिए ज़रूरी है। विश्व सामाजिक न्याय दिवस को सफल बनाने के लिए कई देश एक साथ मिलकर बेरोजगारी, गरीबी, जाति भेदभाव, लिंग और धर्म के नाम पर बंटे लोगों को एकजुट करने की कोशिश करते हैं। भारत में भी सदियों से लोगों को समान अधिकार देने का विधान रहा है। इसके लिए भारतीय संविधान में सामाजिक असमानता को खत्म करने के लिए कई प्रावधान हैं।

समाज में यह जागरूकता फैलाने की जरूरत है कि सभी एक हैं और किसी में भी कोई भेदभाव नहीं देखना चाहिए। भारत सरकार भी कई योजनाएं चला रही हैं। एक विचार के रूप में सामाजिक न्याय की बुनियाद सभी मनुष्यों को समान मानने के आग्रह पर आधारित है। इसके मुताबिक किसी के साथ सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक पूर्वाग्रहों के आधार पर भेदभाव नहीं होना चाहिए। हर किसी के पास इतने न्यूनतम संसाधन होने चाहिए कि वे ‘उत्तम जीवन’ की अपनी संकल्पना को धरती पर उतार पाएँ। विकसित हों या विकासशील, दोनों ही तरह के देशों में राजनीतिक सिद्धांत के दायरे में सामाजिक न्याय की इस अवधारणा और उससे जुड़ी अभिव्यक्तियों का प्रमुखता से प्रयोग किया जाता है।

भारत जैसे देश में सामाजिक न्याय का नारा वंचित समूहों की राजनीतिक गोलबंदी का एक प्रमुख आधार रहा है। उदारतावादी मानकीय राजनीतिक सिद्धांत में उदारतावादी-समतावाद से आगे बढ़ते हुए सामाजिक न्याय के सिद्धांतीकरण में कई आयाम जुड़ते गये हैं। मसलन, अल्पसंख्यक अधिकार, बहुसंस्कृतिवाद, मूल निवासियों के अधिकार आदि। इसी तरह, नारीवाद के दायरे में स्त्रियों के अधिकारों को लेकर भी विभिन्न स्तरों पर सिद्धांतीकरण हुआ है और स्त्री-सशक्तीकरण के मुद्दों को उनके सामाजिक न्याय से जोड़ कर देखा जाने लगा है।

अनेक असमानताओं, आग्रहों, समस्याओं के बावजूद प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भारत में सामाजिक न्याय के उल्लेखनीय उपक्रम किये हैं, नयी-नयी योजनाओं को लागू किया है। मोदी सरकार का सामाजिक न्याय का तरीका समाज में विभेद करने का नहीं है, बल्कि समाज को जोड़ने का है। उन्होंने सामाजिक न्याय एवं अधिकारिता मंत्रालय को समाज के वंचित एवं हाशिए पर पड़े वर्गों जैसे अनुसूचित जाति, पिछड़ा वर्ग, विकलांग व्यक्ति, वरिष्ठ नागरिक तथा नशीली दवाओं के दुरुपयोग के शिकार लोगों आदि के कल्याण, सामाजिक न्याय एवं सशक्तिकरण का दायित्व सौंपा गया है। मोदी ने कहा भी है कि सामाजिक न्याय, तुष्टिकरण से नहीं, संतुष्टिकरण से आता है। सरकार के द्वारा कई योजनाएं के अंतर्गत लोगों को समान अधिकार देने की कोशिश की जा रही है। साथ ही समाज में व्याप्त असमानता, भेदभाव, ऊंचनीच को जड़ से समाप्त करते हुए इससे समस्त समाज का एकसाथ विकास का प्रयास हो रहा है।

हम जिस लोकतंत्र में जी रहे हैं वह लोक-समानता का लोकतंत्र है या लोक-विभेद का? हम जो स्वतंत्रता भोग रहे हैं वह समानता की स्वतंत्रता है या अराजक एवं असमानता की? हमने आचरण की पवित्रता एवं पारदर्शिता की बजाय कदाचरण एवं अनैतिकता की कालिमा का लोकतंत्र बना रखा है। ऐसा लगता है कि धनतंत्र एवं सत्तातंत्र ने जनतंत्र को बंदी बना रखा है। हमारी न्याय-व्यवस्था कितनी भी निष्पक्ष, भव्य और प्रभावी हो, फ्रांसिस बेकन ने ठीक कहा था कि ‘यह ऐसी न्याय-व्यवस्था है जिसमें एक व्यक्ति की यंत्रणा के लिये दस अपराधी दोषमुक्त और रिहा हो सकते हैं।’ रोमन दार्शनिक सिसरो ने कहा था कि ‘मनुष्य का कल्याण ही सबसे बड़ा कानून है।’ लेकिन हमारे देश के कानून एवं शासन व्यवस्था को देखते हुए ऐसा प्रतीत नहीं होता, आम आदमी सजा का जीवन जीने को विवश है।

सामाजिक न्याय के लिए सामाजिक एकता भंग नहीं की जा सकती। नहीं तो फिर रह क्या जाएगा हमारे पास। टमाटर, प्याज के आसमान छूते भाव- प्रतिदिन कोई न कोई कारण महंगाई को बढ़ाकर हम सबको और धक्का लगा जाता है और कोई न कोई टैक्स, अधिभार हमारी आय को और संकुचित कर जाता है। जानलेवा प्रदूषण ने लोगों की सांसों को बाधित कर दिया, लेकिन हम किसी सम्यक् समाधान की बजाय नये नियम एवं कानून थोप कर जीवन को अधिक जटिल बना रहे हैं। सामाजिक न्याय व्यवस्था तभी सार्थक है जब आम जनता निष्कंटक एवं समस्यामुक्त समानता का जीवन जी सके।

सरकारों के पास शक्ति के कई स्रोत है, लेकिन इस शक्ति से कितनों का कल्याण हो रहा है? कैसा विचित्र लोकतंत्र है जिसमें नेता एवं नौकरशाहों का एक संयुक्त संस्करण केवल इस बात के लिये बना है कि न्याय की मांग का जबाव कितने अन्यायपूर्ण तरीके से दिया जा सके। महंगाई के विरोध का जबाव महंगाई बढ़ा कर दो, रोजगार की मांग का जबाव नयी नौकरियों की बजाय नौकरियों में छंटनी करके दो, कानून व्यवस्था की मांग का जबाव विरोध को कुचल कर आंसू गैस, जल-तोप और लाटी-गोली से दो। नेता एवं नौकरशाह केवल खुद की ही न सोचें, अपने परिवार की ही न सोचें, जाति की ही न सोचें, पार्टी की ही न सोचंे, राष्ट्र की भी सोचें, सम्पूर्ण मानवता की सोचें। क्या हम लोकतंत्र को अराजकता की ओर धकेलना चाह रहे हैं?  नेतृत्व आज चुनौतीभरा अवश्य है, विकास का मंत्र भी आकर्षक है, लेकिन सबसे बड़ा विकास तभी संभव है जब जनता खुश रहे, निर्भार रहे, सुखी रहे और लगे कि यह जनता के सुख एवं समानता का लोकतंत्र है। ऐसा होने पर ही विश्व सामाजिक न्यास दिवस मनाने की सार्थकता होगी।

ललित गर्ग
ललित गर्ग
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