देश को स्वतंत्र कराना जिनके लिए जीवन से भी बढ़कर था

23 मार्च भगत सिंह राजगुरु सुखदेव शहीद दिवस पर विशेष

सुरेश सिंह बैस शाश्वत

देश की स्वतंत्रता के लिये हंसते-हंसते शूली पर चढ़ने वाले तीन महान देश भक्त भगत सिंह, राजगुरु, सुखदेव ने अंग्रेज सरकार को जब तक जीवित रहे चौन से बैठने नहीं दिया। भगत सिंह अच्छे खाते-पीते जमींदार घराने से ताल्लुक रखते थे। उनके घर में किसी प्रकार का अभाव नहीं था। ये लाहौर पढ़ने आये और आगे चलकर लाहौर ही उनकी कर्मभूमि बन गई। सन् 1921 का कांग्रेस आंदोलन उनके जीवन का अहम् हिस्सा बना, जब उन्होंने राजगुरु सुखदेव सहित अपने साथियों के साथ भारत को स्वाधीन करने हेतु कभी न पीछे हटने वाले कदम के रूप में आगे बढ़ना शुरु किया।
संख्या में पहले पहल तो ये लोग पचीस-तीस से अधिक नहीं रहें होंगे। इनकी सच्ची लगन, दौड़-धूप और कार्य कुशलता का फल यह हुआ कि साधारण जनता इनके संपर्क से प्रभावित होने लगी। नित्यप्रति सभाओं और जुलूसों का आयोजन होता। लोग इनकी बातें बड़े ध्यान से सुनते और प्रायः जुलूसों की समाधि पर कुछ व्यक्ति इन्हें घेर कर बैठ जाते। निस्संदेह उनमे सी आई डी के आदमी भी होते धीरे-धीरे इन क्रांतिकारियों (भावी) का परिवार बढ़ने लगा। इनका संबंध देश के अन्य प्रांतों के कांतिकारियों के साथ अधिक तेजी से बढ़ने लगा।
देश के लिये मर मिटने को
हमेशा तैयार रहने वाले इन शख्सों का एक अलग जज्बा था, जिसे लेकर वे चल रहे थे, और जिसकी नींव पर स्वतंत्र समाज और देश का चित्र वे देखा करते थे। अपने ध्येय व लक्ष्य की पूर्ति हेतु वे सभी कुछ करने को तत्पर रहते। दरियां बिछाना, झंडियां बनाना, पाम्पलेट लिखना, उन्हें छापना और बांटना यह सब कुछ तुरंत फुरंत होता था। अंग्रेज सरकार भी इनके क्रियाकलापों पर चौकन्नी हो उठी! इनके जितने भी संगठन थे, वे चाहे जिस नाम से हों, सभी सरकार की काली सूची में आ गये। अतः हर किसी के घर और बाहर भी सी आई डी के व्यक्ति साये की तरह मंडराने लगे। अंग्रेज सरकार ने सबसे पहले भगत सिंह को ही अपने जाल में फंसाने की जुगत भिड़ानी शुरु की। ऐसी अवस्था में भगत सिंह ने लाहौर छोड़ देना ही उचित समझा और वे कानपुर आकर छदम नाम बलवंत से दैनिक अखबार प्रताप में काम करने लगे। स्वर्गीय गणेश शंकर विद्यार्थी उन दिनों प्रताप के कर्ताधर्ता थे। सो उन्होंने भगत सिंह को अपने संरक्षण में रखा। वहीं रहकर उन्हें आजाद और 99 अन्य क्रांतिकारियों से निकट संबंध स्थापित करने का भी अवसर प्राप्त हुआ।
भगत सिंह इस बीच लाहौर, दिल्ली और देश के अन्य स्थानों में भी घूमघूम कर क्रांतिकारी गतिविधियों में संलग्न रहे। सन् 1928 में भगत सिंह पुनः लाहौर में थे तभी वहां की गोरी सरकार उन्हें किसी भी सच्चे झूठे मामले में फंसाकर कैद करने के फिराक में थी। और इसका सुनहरा मौका उन्हें दशहरे के दिन मेले की भीड में एक बम फटने से हासिल हो गया। सरकार ने इस घटना का साम्प्रदायिक दंगे का रूप देकर कई लोगों को बिना वजह पकड़ लिया जिनमें भगत सिंह भी शामिल थे। यह आरोप तो निराधार ही था सो भगतसिंह शीघ्र ही छूट गये। पर अंग्रेज सरकार की दोगली चालो से बचने के लिये उन्हें भूमिगत हो जाना पड़ा।
सौंडर्स असिस्टेंट पुलिस सुपरिटेन्डेंट को मौत के घाट उतारने का क्रातिकारियों के बीच ऐलान हो चुका था, इस अभियान के लिये तीन लोगों को चुना गया। चंद्रशेखर आजाद भगत सिंह राजगुरु। पूरी फूलप्रूफ योजना बनाने के बाद 18 नवंबर 1928 को इन लोगों ने सॉन्डर्स को दिन दहाड़े गोली का निशाना बना दिया। ये घटना अंग्रेज हुकूमत के लिये एक चेतावनी थी। बाद में एक सब इंस्पेक्टर चान सिंह भगत सिंह को पहचान कर जब उनका पीछा कर रहा था तब चंद्रशेखर ने उसे माउजर से ठंडा कर दिया। इस कारनामें के बाद आजाद, भगत सिंह और राजगुरु चुपचाप लाहौर से पलायन कर गये। पंजाब दल के मुख्य कार्यकर्ता सुखदेव ने उन्हें लाहौर से सुरक्षित बाहर निकालने की जिम्मेदारी सफलता पूर्वक निभाई।
समय बड़ी तेजी से करवटे ले रहा था। अंग्रेस सरकार की भी दमनात्मक कार्यवाहियां बहुत तेज हो चली जा रही थी। वहीं उक्त घटना के बाद से क्रांतिकारियों का संगठन भी खूब फल फूल रहा था। अप्रैल 1929 को देहली असेम्बली में पब्लिक सेफ्टी एक्ट कानून बनाकर उसे लागू करने के लिये प्रस्तुत किया जा रहा था। दरअसल यह एक्ट भारतीयों के ऊपर दमन कार्यवाहियां अंजाम दिये जाने का ही एक सुरक्षित उपाय था, गोरी सरकार के लिये। जनता भी इसे समझ रही थी फलतः इस कानून का भारी विरोध हो रहा था। इधर यह बिल असेम्बली में प्रस्तुत हुआ उधर क्रांतिकारियों की योजनानुसार वही वर्मा का धमाका कर दिया गया। कांतिकारियों मे अपने आपको गिरफ्तार करवाया। क्रांति चिंरजीवी हो, ब्रिटिश तानाशाही का नाश हो। जैसे नारों से आसमान गुंजा दिया। इसी अफरातफरी माहौल में ब्रिटिश सरकार ने आनन फानन छापे मारने शुरु कर दिये। जिसमे भगतसिंह, राजगुरु सुखदेव सिंह सहित कई क्रांतिकारियों को बंदी बना लिया गया। बटुकेश्वर दत्त भी इनमें शामिल थे।
इनके खिलाफ असेम्बली में बमकांड नाम से मुकदमा चला। यह मुकदमा मात्र एक नाटक ही था। इसका फैसला तो अंग्रेज सरकार की कुटिल नीतियों द्वारा पहले से ही तय किया जा चुका था। भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को पहले काले पानी की सजा सुनाई गई। फिर उन्हें पुनः लाहौर लाकर लाहौर षडयंत्र केस का मुकदमा चलाया गया। मुकदमें का दौर अर्से तक चला। इस बीच हडताल, विरोध, भूख हड़ताल, जुलूस एवं झपट झड़पे भी खूब हुई। अंततः वही हुआ जो होना था। अर्थात गोरों की हुकुमत ने भगत सिंह, राजगुरु एवं सुखदेव को फांसी की सजा सुना दी। 23 मार्च, 1931 को इन महान देश भक्तों को फांसी की बलिवेदी पर चढा दिया गया…..।
शहीदों की चिताओं पर
जुड़ेंगे हर बरस मेले ।
वतन पर मिटने बोलो का.
यही बाकी निशां होगा…।

सुरेश सिंह बैस शाश्वत

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