मां धरती पर विधाता की प्रतिनिधि यानी देवतुल्य है

-विश्व मातृ दिवस- 11 मई, 2025-

‘मदर्स डे’ या मातृ दिवस एक ऐसा महत्वपूर्ण एवं संवेदनात्मक दिन है जो हमें अपनी माताओं के प्यार और बलिदान के लिए धन्यवाद देने और उन्हें सम्मान देने का अवसर देता है। जननी के प्रति कृतज्ञता ज्ञापन का तथा मातृशक्ति की अभिवंदना का यह एक स्वर्णिम अवसर है। माँ की महिमा को उजागर करने का ऐतिहासिक दिन है। सेवा और समर्पण की साक्षात् प्रतिमूर्ति मातृ-शक्ति ने केवल अपनी संतान को ही नहीं, बल्कि समाज और राष्ट्र को सृजनात्मक एवं रचनात्मक दिशाएँ दी हैं। अपने त्याग और बलिदान से परिवार, समाज और राष्ट्र की अस्मिता को बचाने का हर संभव प्रयत्न किया है। यहाँ तक कि परिवार संस्था की आधारभित्ति भी मातृ-शक्ति के इर्द-गिर्द ही टिकी हुई है। माँ एक चलता-फिरता चमत्कार है। माँ के प्रभाव से अधिक शक्तिशाली कोई प्रभाव नहीं है।

मातृ दिवस मनाने की अनेक विचारधाराएं एवं मान्यताएं हैं। विश्व के विभिन्न भागों में यह अलग-अलग दिन मनाया जाता है। मदर्ड डे का इतिहास करीब 400 वर्ष पुराना है। प्राचीन ग्रीक और रोमन इतिहास में मदर्स डे मनाने का उल्लेख है। 16वीं सदी में इंग्लैण्ड का ईसाई समुदाय ईशु की माँ मदर मेरी को सम्मानित करने के लिए यह त्योहार मनाने लगा। इस दिवस को आधिकारिक बनाने का निर्णय पूर्व अमरीकी राष्ट्रपति वूडरो विलसन ने 8 मई, 1914 को लिया। कुछ लोगों का मानना है कि मदर्स डे कि शुरूआत एक अमेरिकन एक्टिविस्ट एना जार्विस से होती है। एना जार्विस को अपनी माँ से खास लगाव था। माँ के गुजर जाने के बाद एना ने माँ से प्यार जताने के लिए मदर्स डे की शुरूआत की। तब से हर साल मई माह के दूसरे रविवार को मदर्स डे मनाया जाता है। माँ का प्रेम अपनी संतान के लिए इतना गहरा और अटूट होता है कि माँ अपने बच्चे की खुशी के लिए सारी दुनिया से लड़ लेती है। एक मां का हमारे जीवन में बहुत बड़ा महत्व है, एक मां के बिना ये दुनियां अधूरी है। मदर्स डे सामान्य रूप से माताओं, मातृत्व और मातृ संबंधों को मान्यता देता है, साथ ही उनके परिवारों और समाज में उनके सकारात्मक योगदान को भी दर्शाता है।

मदर्स डे, उन उल्लेखनीय महिलाओं का सम्मान करने का एक हार्दिक उत्सव है जो हमारे जीवन को प्यार, ज्ञान और असीम शक्ति से भर देती हैं। माँ का प्यार किसी भी ताजे फूल से अधिक सुंदर है। एक माँ की खुशी एक प्रकाश स्तंभ की तरह होती है, एक प्रकाशगृह यानी लाइट हाउस, जो भविष्य को रोशन करती है लेकिन प्यारी यादों के रूप में अतीत पर भी प्रतिबिंबित होती है। एक माँ शक्ति और गरिमा से सुसज्जित होती है, भविष्य के बारे में बिना किसी डर के हँसती है। प्रख्यात वैज्ञानिक और भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ.ए.पी.जे. अब्दुल कलाम ने कहा है कि जब मैं पैदा हुआ, इस दुनिया में आया, वो मेरे जीवन का एकमात्र ऐसा दिन था जब मैं रो रहा था और मेरी मां के चेहरे पर एक सन्तोषजनक मुस्कान थी।’ एक माँ हमारी भावनाओं के साथ कितनी खूबी से जुड़ी होती है, ये समझाने के लिए उपरोक्त पंक्तियां अपने आप में सम्पूर्ण हैं। मां का त्याग, बलिदान, ममत्व एवं समर्पण अपनी संतान के लिये इतना विराट है कि पूरी जिंदगी भी समर्पित कर दी जाए तो मां के ऋण से उऋण नहीं हुआ जा सकता है। मां के साथ बिताये दिन सभी के मन में आजीवन सुखद व मधुर स्मृति के रूप में सुरक्षित रहते हैं। इसीलिये एच. डब्ल्यू. बीचर ने कहा कि मां का हृदय बच्चे की पाठशाला है।’

भारतीय संस्कृति में मां का स्थान सर्वोपरि माना गया है। मां को देवतुल्य माना गया है। इसीलिये ’मातृ देवो भवः’ यह सूक्त भारतीय संस्कृति का परिचय-पत्र है। ऋषि-महर्षियों की तपः पूत साधना से अभिसिंचित इस धरती के जर्रे-जर्रे में गुरु, अतिथि आदि की तरह माँ भी देवरूप में प्रतिष्ठित रही है। महर्षि वाल्मीकी की यह पंक्ति- ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ जन-जन के मुख से उच्चारित है। प्रारंभ से ही यहाँ ‘मातृशक्ति’ की पूजा होती आई है। वैदिक परंपरा दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी के रूप में, बौद्ध अनुयायी चिरंतन शक्ति प्रज्ञा के रूप में और जैन धर्म में श्रुतदेवी और शासनदेवी के रूप में माँ की आराधना होती है। लोक मान्यता के अनुसार मातृ वंदना से व्यक्ति को आयु, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पुण्य, बल, लक्ष्मी पशुधन, सुख, धन-धान्य आदि प्राप्त होता है। ऐसा कहा जाता है कि भगवान हर किसी के साथ नहीं रह सकता इसलिए उसने माँ को बनाया।

एक माँ हमारे जीवन की हर छोटी बड़ी जरूरतांे का ध्यान रखने वाली और उन्हें पूरा करने वाली देवदूत होती है। कहने को वह इंसान होती है, लेकिन भगवान से कम नहीं होती। वह ही मन्दिर है, वह ही पूजा है और वह ही तीर्थ है। तभी ई. लेगोव ने कहा है कि इस धरती पर मां ही ऐसी देवी है जिसका कोई नास्तिक नहीं। यही कारण है कि समूची दुनिया में मां से बढ़कर कोई इंसानी रिश्ता नहीं है। वह सम्पूर्ण गुणों से युक्त है, गंभीरता में समुद्र और धैर्य में हिमालय के समान है। उसका आशीर्वाद वरदान है। जरा कभी मां के पास बैठो, उसकी सुनो, उसको देखो, उसकी बात मानो। उसका आशीर्वाद लेकर, उसके दर्शन करके निकलो। फिर देखो, जो चाहोगे मिलेगा- सुख, शांति, शोहरत और कामयाबी।

ध्यान रहे, मां का दिल दुखाने का मतलब ईश्वर का अपमान है। संसार महान् व्यक्तियों के बिना रह सकता है, लेकिन मां के बिना रहना एक अभिशाप की तरह है। इसलिये संसार मां का महिमामंडन करता है, उसके गुणगान करता है। मां शब्द में संपूर्ण सृष्टि का बोध होता है। मां के शब्द में वह आत्मीयता एवं मिठास छिपी हुई होती है, जो अन्य किन्हीं शब्दों में नहीं होती। मां नाम है संवेदना, भावना और अहसास का। मां के आगे सभी रिश्ते बौने पड़ जाते हैं। समाज में मां के ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है, जिन्होंने अकेले ही अपने बच्चों की जिम्मेदारी निभाई। मां रूपी सूरज चरेवैति-चरेवैति का आह्वान है। उसी से तेजस्विता एवं व्यक्तित्व की आभा निखरती है। उसका ताप मन की उम्मीदों को कभी जंग नहीं लगने देता। उसका हर संकल्प मुकाम का अन्तिम चरण होता है। मां को धरती पर विधाता की प्रतिनिधि कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी।

किंतु वर्तमान परिवेश को देखते हुए यह सवाल अवश्य खड़ा होता है कि क्या आज की माँ जननी की भूमिका का सम्यक् निर्वहन कर रही है? अथवा क्या वे समाजशास्त्रियों के इस अभिमत पर प्रश्नचिन्ह नहीं लगा रही कि बच्चा नागरिकता का पहला पाठ माँ की वात्सल्यमयी गोद में सीखता है। जबकि वस्तुस्थिति तो यह है कि माँ की गोद उसे नसीब होती कहाँ है? कुक्षि से बाहर आते ही उसे अलग पालने में सुला दिया जाता है। सोता है तो दूध की बोतल उसके मुँह से लगा दी जाती है। उसका लालप-पालन या देखरेख नर्स या आया के द्वारा होती है अथवा डे केयर सेंटर, बेबी केयर सेंटर में भेजकर कर्तव्यपूर्णता का लेबल लगा दिया जाता है। दो-ढाई वर्ष का होते ही नर्सरी में कम्प्यूटर द्वारा उसे अक्षर-बोध प्राप्त होता है। कुछ बड़ा होते ही उसे होस्टल में प्रविष्टि दिला दी जाती है। कितनी आधुनिक माताएँ तो ऐसी हैं जिन्हें अपने बच्चों से संवाद स्थापित करने का क्षण भी उपलब्ध नहीं होता। करें भी कैसे ? उन्हें अपने निजी कार्यक्रमों से ही फुर्सत नहीं है।

तब भला वह कैसे उन्हें बात-बात में तत्त्वबोध दें? कब मीठी-मीठी प्रेरक लोरियाँ सुनाकर संस्कारों की सौगात सौंपे? किस माध्यम से पारिवारिक, सामाजिक मान-मर्यादाओं की अवगति दें? कैसे जीवन में धर्म की उपयोगिता का अहसास करवाएँ? तब फिर शून्यता के सिवा शेष हाथ भी क्या आएगा? मातृ दिवस मां की अस्मिता के धुंधलाने के कारणों की पडताल करने का भी अवसर है। कन्याभू्रणों की हत्या एक ओर मनुष्य को नृशंस करार दे रही है, तो दूसरी ओर स्त्रियों की संख्या में भारी कमी मानविकी पर्यावरण में भारी असंतुलन उत्पन्न कर रही है।’’ अन्तर्राष्ट्रीय मातृ-दिवस को मनाते हुए मातृ-महिमा पर छा रहे ऐसे अनेक धुंधलों को मिटाना जरूरी है, तभी इस दिवस की सार्थकता है।

ललित गर्ग
ललित गर्ग
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