टीएमसी नेताओं की निर्लज्ज टिप्पणियों से उठा विवाद

कोलकत्ता में कानून की एक छात्रा से सामूहिक दुराचार-गैंगरेप का मुद्दा एक बार फिर पश्चिम बंगाल में जितना बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनने लगा है उतना ही बड़ा नारी उत्पीड़न का मुद्दा बनकर उभर रहा है। इस मामले में पश्चिम बंगाल में सत्तारूढ़ पार्टी तृणमूल कांग्रेस के दो वरिष्ठ नेताओं की अनर्गल एवं निर्लज्ज टिप्पणी स्त्री की मर्यादा, सम्मान एवं अस्मिता के खिलाफ शर्मनाक, दुर्भाग्यपूर्ण व संवेदनहीन प्रतिक्रिया है। इन नेताओं ने गैंगरेप मामले पर विवादित बयान से राज्य एवं देश में भारी जनाक्रोश पैदा हो गया था। विशेषतः राजनेताओं के बयानों एवं सोच में एक बार फिर शर्मनाक ढंग से पीड़िता पर दोष मढ़ने की बेशर्म कोशिश की गई है। इस मामले में सत्तारूढ़ टीएमसी पार्टी अन्दर एवं बाहर दोनों मोर्चों पर घिरती हुई नजर आ रही है। जहां इस मामले में पार्टी के अन्दर गुटबाजी एक बार फिर सामने आयी है, वहीं भाजपा आक्रामक रूप से ममता सरकार को घेर रही है। टीएमसी की महिला नेत्री महुआ मोइत्रा टीएमसी नेताओं कल्याण बनर्जी और मदन मित्रा के उन बयानों पर निराशा व्यक्त करते हुए स्पष्ट किया है कि इन राजनेताओं के बयान में स्त्री-द्वेष पार्टी लाइन से परे है।

यह एक बदतर स्थिति है कि जिस पार्टी के नेताओं ने ये दुर्भाग्यपूर्ण बयान दिए हैं, उस पार्टी की सुप्रीमो एक महिला ही है। यह स्थिति दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि ममता बनर्जी जैसी तेजतर्रार मुख्यमंत्री के शासन और नेतृत्व के वर्षों के दौरान टीएमसी के भीतर नारी सम्मान एवं अस्मिता को लेकर संवेदनशीलता लाने और मानसिकता में बदलाव लाने के प्रयास विफल होते नजर आ रहे हैं। अकसर महिलाएं और महिला राजनेता पुरुष नेताओं के हाथों अश्लील, अभद्र और तौहीन भरी टिप्पणओं की शिकार होती रही हैं। ऐसे बयानों के बावजूद अकसर ये राजनेता किसी कठोर कार्रवाई की बजाय हल्की फुल्की फ़टकार के बाद बच निकलते हैं। ये बयान कभी महिलाओं की बॉडी शेमिंग करते नज़र आते हैं तो कभी बलात्कार जैसे गंभीर अपराध को मामूली बताने की कोशिश करते हुए नजर आते हैं। इसके साथ ही ये चिन्ताजनक संदेश भी जाता है कि महिलाओं के बारे में हल्के और आपत्तिजनक बयान देना विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं के लिये सामान्य बात है।

जब किसी देश की बेटियां न्याय का अध्ययन कर रही हों और वहीं उनके साथ अन्याय की पराकाष्ठा हो  तो यह केवल एक आपराधिक घटना नहीं, बल्कि पूरे समाज, व्यवस्था और सोच के लिए एक जघन्य आइना बन जाती है। प्रतिष्ठित लॉ कॉलेज की छात्रा के साथ हुए सामूहिक बलात्कार की घटना ने न केवल राजनीतिक सोच एवं कानून के मंदिरों को शर्मसार किया है, बल्कि हर संवेदनशील मन को झकझोर दिया है। पीड़िता एक लॉ कॉलेज में अध्ययनरत छात्रा थी, जो अपने उज्ज्वल भविष्य के सपनों के साथ शिक्षा के पथ पर अग्रसर थी। घटना की रात वह अपने कुछ परिचितों के साथ बाहर थी, जिनमें से ही कुछ ने उसकी अस्मिता को रौंद डाला।

उसे नशा दिया गया और फिर सुनसान स्थान पर ले जाकर कई लोगों ने उसके साथ बलात्कार किया। पुलिस ने तत्परता दिखाते हुए कुछ आरोपियों को हिरासत में लिया है, लेकिन सवाल यह है कि जब कानून पढ़ने वाली लड़की खुद असुरक्षित है, तो आम महिलाएं कैसे सुरक्षित होंगी? क्या यह कानून की शिक्षा देने वाली संस्थाओं एवं शासन करने वाली सत्ताओं के लिए आत्ममंथन का समय नहीं है? ऐसी घटनाओं पर निर्भया कांड के बाद बने कानूनों का सख्ती से पालन हो। रेप को सिर्फ एक ‘जुर्म’ नहीं, ‘राष्ट्रीय आपदा’ माना जाए, और उसकी रोकथाम के लिए शिक्षा, संस्कार और तकनीकी सुरक्षा साधनों को प्राथमिकता दी जाए। कोलकाता की लॉ छात्रा की यह दर्दनाक घटना हमें चेताती है कि केवल कानून बना लेना काफी नहीं, जब तक समाज की सोच नहीं बदलेगी, तब तक बेटियां असुरक्षित रहेंगी। यह केवल एक छात्रा की लड़ाई नहीं, बल्कि हर बेटी की सुरक्षा की लड़ाई है। न्याय तब होगा जब ऐसी घटनाएं रुकेंगी और उसके लिए हमें मिलकर लड़ना होगा।

सबसे दुखद पहलू यह है कि अनेक बार ऐसी घटनाओं में समाज चुप रहता है, पीड़िता को दोषी ठहराने की कोशिश की जाती है। सोशल मीडिया पर तंज, मीडिया ट्रायल और व्यक्तिगत चरित्रहनन जैसी बातें पीड़िता को न्याय से अधिक पीड़ा देती हैं। पीड़िता के लिये यह पीड़ा तब और बढ़ जाती है जब उनके जन-प्रतिनिधि निर्लज्ज बयानबाजी करते हैं। विडंबना यह है कि पीड़िता के प्रति निर्लज्ज बयानबाजी अकेले पश्चिम बंगाल का ही मामला नहीं है, देश के अन्य राज्यों में भी ऐसी संवेदनहीन टिप्पणियां सामने आती रही हैं। यदि इक्कीसवीं सदी के खुले समाज में हम महिलाओं के प्रति संकीर्णता की दृष्टि से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं, तो इसे विडंबना ही कहा जाएगा। यह दुर्भाग्यपूर्ण ही कि ये वे लोग हैं जिन्हें जनता अपना नेता मानती है और लाखों लोग उन्हें चुनकर जनप्रतिनिधि संस्थाओं में कानून बनाने व व्यवस्था चलाने भेजते हैं। देश में बढ़ रही यौन-शोषण, रेप एवं नारी दुराचार की घटनाओं को देखते हुए जन-प्रतिनिधियों को ज्यादा संवेदनशील होने की अपेक्षा की जाती है। बड़ा प्रश्न है कि आखिर किसी राजनेता को हर महिला के साथ हुए दुर्व्यवहार और यौन शोषण को असंवेदनशील तरीके से देखने की छूट क्यों एवं कैसे मिल जाती है।

भारत ही ऐसा देश है, जहां महिलाओं की अस्मिता एवं अस्तित्व को तार-तार करने वाले नेताओं के निर्लज्ज बयानों के बावजूद उन पर कोई ठोस, सख्त एवं अनुशासनात्मक कार्रवाई नहीं होती। जबकि विश्व के अन्य देशों में ऐसा नहीं है। जैसे 2017 में ब्रिटेन के एक पार्षद के सामान्य से बयान पर अच्छा खासा बवाल मचा था। पार्षद ने सांसद का चुनाव लड़ रही एक गर्भवती महिला राजनेता के बारे में कह दिया था, ‘वो गर्भवती हैं और उनका समय तो नैपी बदलने में ही बीत जाएगा, वो आम लोगों की आवाज़ क्या उठाएंगी?’ इसके लिए पार्षद को माफ़ी मांगनी पड़ी। ब्रिटेन जैसे कई देशों में अकसर ऐसे बयानों पर कार्रवाई होती है। मिसाल के तौर पर 2017 में ही यूरोपियन संसद के एक सांसद ने बयान दिया था कि महिलाओं को कम पैसा मिलना चाहिए क्योंकि वो कमज़ोर, छोटी और कम बुद्धिमान होती हैं।’ इसके बाद उन्हें निलंबित कर दिया गया था और उन्हें मिलने वाला भत्ता भी बंद हो गया था।

कोलकाता की लॉ छात्रा मामले में टीएमसी नेताओं की टिप्पणियां निस्संदेह निंदनीय हैं, लेकिन पार्टी के नेताओं व कार्यकर्ताओं द्वारा भी कड़े शब्दों में इसकी निंदा की जानी चाहिए। ममता बनर्जी के सामने एक और चुनौती है। आरजी कर मेडिकल कॉलेज बलात्कार- हत्याकांड और उसके बाद देश भर में उपजा आक्रोश अभी भी यादों में ताजा है। निस्संदेह, केवल टिप्पणियों से पार्टी को अलग कर देना ही पर्याप्त नहीं है। सार्वजनिक जीवन में नारी सम्मान एवं जीवन-मूल्यों के खिलाफ जाने वाले लोगों के लिये परिणाम तय होने चाहिए। अन्यथा समाज में ये संदेश जाएगा कि ऐसे कुत्सित प्रयासों के खिलाफ कोई दंडात्मक कार्रवाई नहीं होती है। किसी अपराध की रोकथाम अच्छे शासन की अनिवार्य शर्त बनना चाहिए लेकिन जब कोई अपराध होता है तो प्रभावी प्रतिक्रिया भी उतनी ही महत्वपूर्ण है। टीएमसी दोनों ही मामलों में विफल प्रतीत होती है।

ऐसे मामलों में अत्याचार करने वालों की ही भांति अत्याचार का समर्थन करने वाले दोषी है। अत्याचारियों के लिये ही त्वरित न्याय और सख्त सजा जरूरी है लेकिन जन-प्रतिनिधि की निर्लज्ज बयानबाजी भी अपराध के दायरे में होनी चाहिए। आजीवन शोषण, दमन, अत्याचार, अवांछित बर्ताव और अपमान की शिकार रही भारतीय नारी को अब ऐसे और नये-नये तरीकों से कब तक जहर के घूंट पीने को विवश होना होगा। अत्यंत विवशता और निरीहता से देख रही है वह यह क्रूर अपमान, यह वीभत्स अनादर, यह दूषित व्यवहार एवं संकुचित न्याय। न्याय एवं राजनीति की चौखट पर भी उसके साथ दोयम दर्जा एवं दुराग्रहपूर्ण सोच बदलना सर्वोच्च प्राथमिकता हो। यदि हम सच में नारी के अस्तित्व एवं अस्मिता को सम्मान देना चाहते हैं तो ईमानदार स्वीकारोक्ति, पड़ताल एवं निष्पक्ष न्याय से ही यह संभव होगा।

ललित गर्ग
ललित गर्ग
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