हिंदी को अंग्रेजी के समक्ष दोयम दरजा क्यों

ज्वलंत समस्या

“हिंदू हिंदी हिंदुस्तान”! भारत राष्ट्र के परिचयात्मक सूत्र वाक्य की अगर बात की जाए तो शायद इससे संक्षिप्त और सटीक दूसरा कोई शब्द नहीं होगा। क्योंकि हम भारत के लोग अधिसंख्य रूप से हिंदू और सनातन धर्मी है। दूसरा यहां के अधिकांश लोगों की मातृभाषा हिंदी हैं, तीसरे यही हिंदी इस राष्ट्र की राजभाषा भी है। और चौथा और महत्वपूर्ण तथ्य यह है की इस राष्ट्र का नाम ही हिंदुस्तान है। कुल मिलाकर उक्त तीनों शब्दों में हिंदुस्तान राष्ट्र की पूरी पहचान समाहित है। इस परिप्रेक्ष्य में यह तत्व भी गौर करने लायक है कि आजादी के सालों बीतने के बाद भी हिंदी को राष्ट्रभाषा का दर्जा दिए जाने का मामला क्यों अभी तक पेंडिंग रखा गया है, यह समझ से परे है…?

आज जब यह देखने सुनने को मिलता है कि भारत में एक जज जो हिंदी में सुनने के लिए तैयार नहीं है वो भी देश के सबसे बड़े अदालत में सुप्रीम कोर्ट में, वही  न्यायालय द्वारा एक अधिकारी को इसलिए अक्षम कहा जा रहा है कि वह अंग्रेजी नहीं बोल पाता…?तो फिर मन में यह सवाल स्वयं ही उठने लगता है कि इस राष्ट्र में कहां है, राजभाषा हिंदी, और कहां है हमारा हिंदुस्तान। शायद हम पहले भी अंग्रेज के गुलाम थे और आज भी अंग्रेजी भाषा के गुलाम हैं, यह एक हकीकत है, जिसे  पूरी गंभीरता से मनन करना और होगा। शायद हमें गुलाम रहने की आदत बन गई है अंतर सिर्फ इतना है कि आज अंग्रेजों के नहीं मगर हम अंग्रेजी भाषा के गुलाम हैं। 

भारत विविध भाषाओं का देश है, जहाँ सैकड़ों भाषाएँ और बोलियाँ बोली जाती हैं। इनमें हिंदी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है। भारत में सैकड़ों भाषाएँ और बोलियाँ हैं। अगर हर राज्य की अदालतें अपनी अलग भाषा में निर्णय दें तो देशभर में एकरूपता बनाए रखना कठिन हो जाएगा। फिर भी आज भी यह प्रश्न प्रासंगिक है कि क्या हिंदीभाषी भारतीय अब भी अंग्रेजी भाषा को श्रेष्ठ मानकर एक प्रकार की मानसिक दासता में जी रहे हैं? अंग्रेज़ी भाषा भारत में अंग्रेजों के शासन के दौरान आई। जब लॉर्ड मैकाले ने 1835 में अंग्रेजी शिक्षा नीति लागू की, तब से अंग्रेजी को प्रशासन, न्याय, और उच्च शिक्षा की भाषा बना दिया गया। इसका उद्देश्य “एक ऐसा वर्ग खड़ा करना था जो भारतीय होकर भी सोच में अंग्रेज़ हो।” यह नीति आज़ादी के इतने वर्षों बाद भी समाज के कई हिस्सों में गहराई से जमी हुई है। 

आज भी शहरी भारत में अंग्रेजी बोलना “शिक्षा”, “सभ्यता” और “आधुनिकता” का प्रतीक माना जाता है। माता-पिता बच्चों को अंग्रेजी माध्यम स्कूलों में भेजने को जीवन की सफलता से जोड़ते हैं। सरकारी दफ्तरों से लेकर निजी क्षेत्र तक, अंग्रेजी का ज्ञान न केवल आवश्यक बल्कि कई बार सफलता का पैमाना बना हुआ है।हालाँकि हिंदी भारत की राजभाषा है, लेकिन यह विडंबना है कि कई बार हिंदी बोलने वाले स्वयं अपनी भाषा को हीन मानते हैं। हिंदी भाषी राज्यों में भी लोग अपनी मातृभाषा को लेकर हीन भावना रखते हैं और अंग्रेज़ी बोलने वालों को अधिक सम्मान देते हैं। जब कोई समाज अपनी मातृभाषा को त्यागकर किसी विदेशी भाषा को केवल इसलिए अपनाता है क्योंकि वह “श्रेष्ठ” मानता है, तो यह एक प्रकार की मानसिक गुलामी ही है। भाषा का चुनाव यदि उपयोग, वैश्विक संवाद और सुविधा के लिए हो तो यह व्यावहारिक है। लेकिन अगर वह पहचान, गर्व और आत्मसम्मान के त्याग के साथ हो तो यह खतरनाक है। 

सकारात्मक पक्ष यह है कि आज हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएँ डिजिटल दुनिया में अपनी जगह बना रही हैं। यूट्यूब, ब्लॉग, सोशल मीडिया, वेब सीरीज़, और पॉडकास्ट जैसे माध्यमों से लाखों लोग अब मातृभाषा में अभिव्यक्ति कर रहे हैं। कई स्टार्टअप्स और कंपनियाँ अब हिंदी और अन्य भाषाओं में सेवाएँ दे रही हैं। नई पीढ़ी में एक वर्ग ऐसा भी है जो अंग्रेजी जानता है, लेकिन हिंदी में भी गर्व से बात करता है। यह एक भाषायी आत्मनिर्भरता का संकेत है। भाषा को सम्मान दें, न कि तुलना करें। मातृभाषा में शिक्षा की गुणवत्ता बढ़ाई जाए। सरकारी और निजी संस्थानों में भारतीय भाषाओं को बढ़ावा दिया जाए।साहित्य, मीडिया और टेक्नोलॉजी में हिंदी की भागीदारी बढ़े।

हमें यह समझने की ज़रूरत है कि अंग्रेजी एक भाषा है, न कि श्रेष्ठता का प्रमाणपत्र। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाएँ हमारे विचार, भावना और संस्कृति की वाहक हैं। जब तक हम स्वयं अपनी भाषा का सम्मान नहीं करेंगे, तब तक हम सच में स्वतंत्र नहीं कहलाएंगे। 1861 का इंडियन हाई कोर्ट्स एक्ट अंग्रेज़ी को न्यायिक कार्यवाहियों की भाषा बना गया। न्यायालयों में अंग्रेजी की यह परंपरा ब्रिटिश न्याय व्यवस्था से उत्तराधिकार में मिली, जो आज भी जारी है। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 348 के अनुसार-“सुप्रीम कोर्ट और उच्च न्यायालयों की कार्यवाही तथा विधायी दस्तावेज़ अंग्रेज़ी में होंगे। “हालांकि संविधान राज्य सरकारों को यह अनुमति देता है कि वे राष्ट्रपति की सहमति से न्यायालयों में हिंदी या कोई अन्य भारतीय भाषा प्रयोग में ला सकते हैं, लेकिन व्यवहार में आम नागरिकों के लिए न्याय को कठिन बना देता है, क्योंकि वे अंग्रेज़ी नहीं समझते। हालांकि यह भी उतना ही सत्य है कि न्याय जनता की भाषा में होना चाहिए, ताकि आम नागरिक भी उसे समझ सके। 

 यह आवश्यक है कि भविष्य में तकनीक, अनुवाद और विधिक सुधारों के माध्यम से भारतीय भाषाओं को भी न्यायिक प्रक्रिया में अधिक स्थान दिया जाए। न्याय को “सुलभ और पारदर्शी” बनाने के लिए स्थानीय भाषाओं का प्रयोग बढ़ाना आवश्यक है। उत्तराखंड के खंडपीठ ने राज्य के मुख्य सचिव एवं राज्य निर्वाचन आयुक्त को यह जांचने का निर्देश दिया कि क्या अंग्रेजी न बोल पाने वाले अपर जिला मजिस्ट्रेट स्तर के अधिकारी को कार्यकारी पद का प्रभावी नियंत्रण सौंपा जा सकता है? पता नहीं मुख्य सचिव क्या करेंगे। क्या वे एडीएम की अंग्रेजी बोलने की दक्षता परखेंगे या हाई कोर्ट के निर्देश के अनुसार उन्हें ऐसे किसी पद पर नियुक्त करेंगे, जहां अंग्रेजी बोलने की जरूरत न हो। चूंकि उत्तराखंड हिंदीभाषी राज्य है, इसलिए विवेक राय के लिए उपयुक्त पद की कमी न होगी, लेकिन यदि उन्हें अन्यत्र भेजा जाता है तो उनके मान-सम्मान को धक्का लग सकता है। लोग ऐसा कह सकते है कि ये वही अधिकारी हैं, जो अंग्रेजी नहीं बोल पाते। तमाम ऐसा भी कहेंगे कि आखिर उत्तराखंड विदेश में तो है नहीं। 

द्विभाषीकरण हिंदी और अंग्रेज़ी दोनों माध्यमों में पढ़ाई संभव हो ऐसी व्यवस्था लागू कर ऐसे दुश्वारों से बचा जा सकता है वहीं डिजिटल अनुवाद और टेक्नोलॉजी का प्रयोग कर आधारित हिंदी अनुवाद टूल्स से गति लाई जा सकती है। प्रशासनिक और न्यायिक अधिकारियों का पुनः प्रशिक्षण जिससे वे हिंदी में निर्णय और बहस करने में सक्षम हों। हिंदी में केस लॉ और जजमेंट्स का डेटाबेस – छात्रों और वकीलों के लिए शोध और अभ्यास आसान होगा।

हिंदी में ‘ला’ को लागू करना न तो असंभव है, न ही अव्यवहारिक। यह एक राष्ट्रीय आवश्यकता है जो न्याय को आमजन तक पहुँचाने में मदद करेगी। लेकिन इसके लिए केंद्र और राज्य सरकारों को मिलकर , नेक नीति, संसाधन और राजनीतिक इच्छाशक्ति के साथ कार्य करना होगा। अंग्रेजी न जानने की वजह से ‘अक्षम’ या ‘योग्य नहीं’ माना जाना सही है या नहीं, इस पर विचार करना जरूरी है।न्यायपालिका और प्रशासनिक पदों पर हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में ही कार्य करने की स्वतंत्रता संविधान द्वारा मान्यता प्राप्त है। अंग्रेज़ी न जानना क्षमता की कमी नहीं, पर यह प्रशासनिक दक्षता पर असर डाल सकता है। यह मामला यह दर्शाता है कि उच्च स्तर के प्रशासनिक पदों में अंग्रेज़ी भाषा की दक्षता पर सवाल उठाया जा रहा है। लेकिन इसे यह भी मानना जरूरी है कि हिंदी भाषी अधिकारी भी प्रभावी शासकीय कार्य कर सकते हैं, बशर्ते उन्हें आवश्यक तकनीकी और लॉजिस्टिक सहयोग मिलता हो। आदर्श रूप में प्रशासन में द्विभाषी (हिंदी + अंग्रेज़ी) दक्षता को बढ़ावा देना चाहिए जिससे किसी भी योग्य अधिकारी की योग्यता भाषा की वजह से प्रभावित न हो। भाषा केवल संवाद का माध्यम है, न कि योग्यता का प्रमाणपत्र। फिर भी, भारत जैसे बहुभाषी देश में अंग्रेज़ी को प्रशासन और न्यायपालिका में प्रमुखता दी गई है। हाल ही में उत्तराखंड उच्च न्यायालय द्वारा एक एडीएम को अंग्रेज़ी न बोल पाने की वजह से अक्षम करार देने का मुद्दा सामने आया, जिसने इस विषय पर राष्ट्रीय बहस को जन्म दिया है- क्या अंग्रेज़ी न जानने वाला अधिकारी अपने पद के लिए अयोग्य हो सकता है……?

न्याय की जुबां क्यों हो पराई, 
जब जनता है हिन्दी भाषाई। 
भाषा नहीं, कर्म से मापो कद, 
वरना न्याय भी होगा पक्षपात से ग्रस्त।  
क्या दोष है उस जुबां का,
जो जन-जन की है आवाज़,
जो न बोले अंग्रेज़ी, क्या
वो रह जाए नाकामयाब?
संविधान ने दी जो
भाषा को पहचान,
उसे ही हीन समझना है
हिंदी का असली अपमान।।

सुरेश सिंह बैस "शाश्वत"
सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”
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