ताकि दवा जहर बन फिर से मासूमों की मौत न बने

दो राज्यों राजस्थान और मध्य प्रदेश में कफ सिरप से जुड़ी बच्चों की मौत की घटनाएं देश की दवा नियामक व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े करती हैं। यह केवल एक चिकित्सा त्रुटि या आकस्मिक दुर्घटना नहीं, बल्कि उस तंत्र की विफलता का प्रतीक है जिस पर जनता अपने जीवन की रक्षा के लिए भरोसा करती है। दवा जैसी जीवनदायी वस्तु में भी जब लालच, लापरवाही या भ्रष्टाचार घुसपैठ कर जाते हैं तो वह अमृत भी विष बन जाता है। बच्चों की मासूम जानें जब घटिया या मिलावटी दवा के कारण चली जाती हैं, तो यह केवल परिवारों की नहीं, बल्कि पूरे समाज की नैतिकता एवं विश्वास की मृत्यु होती है। कफ सिरप में पाए गए विषैले तत्व-जैसे डाइएथिलीन ग्लाइकॉल या एथिलीन ग्लाइकॉल, पहले भी कई देशों में सैकड़ों बच्चों की जान ले चुके हैं। फिर भी बार-बार ऐसे हादसे होना इस बात का प्रमाण है कि भारत की दवा नियामक व्यवस्था में संरचनात्मक खामियां बनी हुई हैं। सवाल है कि पिछली गलतियों से क्या सीखा गया? भारत में बने कफ सिरप पहले भी सवालों में आ चुके हैं। 2022 में गाम्बिया में कई बच्चों की मौत के बाद डब्ल्यूएचओ ने एक भारतीय कंपनी के कफ सिरप को लेकर चेतावनी जारी की थी। इसके बाद भी कई और जगहों से इसी तरह की शिकायत आई।

ताकि दवा जहर बन फिर से मासूमों की मौत न बने

दवाओं के उत्पादन में भारत दुनिया में तीसरे नंबर पर है। करीब 200 देशों में यहां से दवाएं निर्यात होती हैं और जेनेरिक दवाएं सबसे ज्यादा यहीं बनती हैं। इन उपलब्धियों के बीच इन दो प्रमुख राज्यों में कफ सिरप की वजह से बच्चों की मौत शर्मनाक एवं त्रासदीपूर्ण है। इससे स्पष्ट है कि दवा के क्षेत्र में जिस तरह की निगरानी, मानक और सुरक्षा उपायों की जरूरत है, उसमें कोताही बरती जा रही है। दवा के रूप में जहर धडल्ले से मासूमों की मौत का कारण बन रहा है। इस घटना सामने आने के बाद कार्रवाई का दौर भले ही जारी है। दवाएं वापस ली गई हैं, केस दर्ज हुआ है और नैशनल रेगुलेटर अथॉरिटी ने कई राज्यों में जांच की है। इन घटनाओं से साफ है कि दवा निर्माण की प्रक्रिया में कच्चे माल के स्रोत से लेकर तैयार उत्पाद की गुणवत्ता जांच तक हर स्तर पर लापरवाही व्याप्त है। कई कंपनियां लागत घटाने के लिए औद्योगिक ग्रेड के सॉल्वेंट या रसायनों का प्रयोग कर लेती हैं जो मानव उपभोग के लिए निषिद्ध होते हैं। वहीं निरीक्षण और परीक्षण की सरकारी व्यवस्था न केवल कमज़ोर है बल्कि अक्सर प्रभावशाली कंपनियों के दबाव में निष्क्रिय भी हो जाती है।

राज्य और केंद्र स्तर के दवा-नियामक विभागों में पर्याप्त संसाधन और तकनीकी क्षमता का अभाव है, जिससे समय पर निगरानी और सैंपल परीक्षण संभव नहीं हो पाता। जब निरीक्षण औपचारिकता बन जाए और रिपोर्टें खरीद-फरोख्त की वस्तु बन जाएं, तब ऐसी त्रासदियां स्वाभाविक हैं। तमिलनाडु की दवा कंपनी श्रीसन फार्मास्युटिकल्स के ‘कोल्ड्रिफ’ कफ सिरप के नमूने में 48.6 प्रतिशत डाई एथिलीन ग्लाइकॉल मिला है, जबकि अंतरराष्ट्रीय मानक के अनुसार इसकी मात्रा 0.10 प्रतिशत से अधिक नहीं होनी चाहिए। यह एक खतरनाक इंडस्ट्रियल केमिकल है, जिसका इस्तेमाल गाड़ियों और मशीनों में होता है। इसकी वजह से पीड़ित बच्चों की किडनी फेल हो गई।

इन घटनाओं ने न केवल स्वास्थ्य प्रशासन की विश्वसनीयता को चोट पहुंचाई है बल्कि भारत की वैश्विक छवि पर भी धब्बा लगाया है। पिछले वर्षों में अफ्रीकी देशों में भी भारतीय सिरप से हुई मौतों के बाद कई देशों ने हमारे फार्मा उत्पादों पर प्रतिबंध लगाया था। अब घरेलू स्तर पर घटित ऐसी घटनाएं यह दर्शाती हैं कि हमने उन हादसों से कोई सबक नहीं लिया। दुनिया के सबसे बड़े जेनेरिक दवा उत्पादक देश के रूप में भारत को यह मानना होगा कि केवल उत्पादन की मात्रा नहीं, बल्कि गुणवत्ता ही हमारी असली ताकत होनी चाहिए। इस संकट का सबसे पीड़ादायक पहलू यह है कि इसका शिकार वे मासूम बच्चे बने जिनकी प्रतिरोधक क्षमता अभी विकसित नहीं हुई थी और जिनकी जीवन रक्षा का उत्तरदायित्व समाज और राज्य पर है। इन मौतों की नैतिक जिम्मेदारी केवल दोषी कंपनियों पर नहीं, बल्कि उस पूरे तंत्र पर है जिसने नियमन और नैतिकता की आंखें मूंद लीं। दवाओं में मिलावट या गलत प्रमाणपत्र देना कोई साधारण अपराध नहीं बल्कि मानवता के खिलाफ किया गया घोर अपराध है। इस पर कड़े से कड़ा दंड होना चाहिए ताकि भविष्य में कोई भी निर्माता या अधिकारी ऐसी हरकत करने से पहले सौ बार सोचे।

भारत के फार्मास्युटिकल मार्केट का आकार लगभग 60 अरब डॉलर है। इसका बड़ा हिस्सा छोटी कंपनियों के पास है। सीडीएसीओ ने इस साल अप्रैल की अपनी रिपोर्ट में बताया था कि ज्यादातर छोटी और मझोली कंपनियों की दवाएं जांच में तयशुदा मानक से कमतर पाई गईं। इस जांच में 68 प्रतिशत एमएसएमई फेल हो गई थीं। इससे पहले, जब केंद्रीय एजेंसी ने 2023 में जांच की, तब भी 65 प्रतिशत कंपनियों की दवाएं सब-स्टैंडर्ड मिली थीं। प्रश्न है कि यह तथ्य सामने आने के बाद आखिर सरकार क्या सोच कर इन दवाओं को बाजार में विक्रय क्यों जारी रहने दिया? क्यों ऐसे हादसे होने दिये जाते रहे? यह आवश्यक है कि दवा उद्योग में कच्चे माल की ट्रेसबिलिटी सुनिश्चित की जाए, हर बैच की जांच रिपोर्ट सार्वजनिक रूप से उपलब्ध हो और दवाओं के मानक अंतरराष्ट्रीय स्तर के हों। केंद्र और राज्य सरकारों को ड्रग इंस्पेक्टरों की संख्या और प्रयोगशालाओं की क्षमता बढ़ानी चाहिए। हर कंपनी के लाइसेंस नवीनीकरण के समय उसकी पिछली गुणवत्ता रिपोर्ट और परीक्षण परिणामों की समीक्षा की जानी चाहिए। जिन कंपनियों ने सुरक्षा मानकों का उल्लंघन किया है, उनके लाइसेंस तत्काल रद्द कर दिए जाने चाहिए और शीर्ष प्रबंधन को व्यक्तिगत रूप से उत्तरदायी ठहराया जाना चाहिए। केवल प्रशासनिक कार्रवाई पर्याप्त नहीं, बल्कि इन मामलों में आपराधिक जिम्मेदारी तय करना भी जरूरी है।

इसके साथ ही चिकित्सा जगत और समाज को भी आत्मचिंतन करना चाहिए। डॉक्टरों को यह समझना होगा कि शिशुओं को ओटीसी- ऑवर दी कॉउन्टर दवाएं देना कितना खतरनाक हो सकता है। सरकार द्वारा जारी परामर्श और चेतावनियों को जमीनी स्तर तक पहुंचाने की जरूरत है। मीडिया को भी सनसनी से ऊपर उठकर जनता को जागरूक करने की जिम्मेदारी निभानी होगी। इन त्रासदियों को केवल समाचार बनाकर भुला देना नहीं, बल्कि उन्हें स्वास्थ्य-सुधार के आंदोलन में बदलना समय की मांग है। क्योंकि सरकारी अनुमान से इस साल देश का दवा निर्यात 30 अरब डॉलर को पार कर जाएगा। वहीं, 2030 तक फार्मा मार्केट के 130 अरब डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है। लेकिन, इसके साथ चुनौतियां भी बढ़ रही हैं। दवाओं की जांच और निगरानी अभी तक की कमजोर कड़ी साबित हुई है। केंद्रीय और राज्य की नियामक एजेंसियों को ज्यादा बेहतर तालमेल के साथ, पारदर्शिता, ईमानदारी और ज्यादा तेजी से काम करने की जरूरत है, क्योंकि यह मामला केवल इकॉनमी या देश की छवि ही नहीं, अनमोल जिंदगियों से जुड़ा है।

अंततः यह घटना हमें याद दिलाती है कि जीवन रक्षा के साधनों में जब नैतिकता का अभाव हो जाता है तो प्रगति की समूची इमारत ध्वस्त हो जाती है। दवा उद्योग में पारदर्शिता, जिम्मेदारी और मानवीय संवेदनशीलता को सर्वाेच्च प्राथमिकता देनी होगी। सरकार और समाज दोनों को मिलकर यह सुनिश्चित करना होगा कि किसी भी बच्चे की जान किसी घटिया या मिलावटी दवा के कारण न जाए। जब तक दवा बनाने वाला और दवा बांटने वाला अपनी जिम्मेदारी को धर्म, करुणा, विश्वास और ईमानदारी की दृष्टि से नहीं देखेगा, तब तक ऐसी त्रासदियां दोहराई जाती रहेंगी। इसलिए अब वक्त आ गया है कि हम दवा नहीं, दायित्व बनाएं, नियमन नहीं, निष्ठा पैदा करें और इस मानवता विरोधी अपराध के लिए दोषियों को उदाहरण स्वरूप कठोरतम दंड दें ताकि भविष्य में जीवन रक्षक औषधि फिर से विश्वास की प्रतीक बन सके।

ललित गर्ग लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
ललित गर्ग लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
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