सीएसआईआर-राष्ट्रीय विज्ञान संचार एवं नीति अनुसंधान संस्थान (एनआईएससीपीआर) ने राष्ट्रीय पहल स्वस्तिक (वैज्ञानिक रूप से मान्य सामाजिक पारंपरिक ज्ञान) के अंतर्गत शिक्षकों के लिए “भारतीय ज्ञान प्रणालियों (आईकेएस) के संचार और प्रसार” विषय पर एक राष्ट्रीय क्षमता निर्माण कार्यशाला का आयोजन किया। कार्यशाला का उद्देश्य वैज्ञानिक रूप से प्रमाणित पारंपरिक भारतीय ज्ञान को शिक्षकों के माध्यम से समाज के विभिन्न वर्गों तक पहुँचाना था। यह आयोजन भारतीय राष्ट्रीय युवा विज्ञान अकादमी (आईएनवाईएएस) के सहयोग से तथा एनआईएससीपीआर के प्रमुख कार्यक्रम रुसेटअप (ग्रामीण विज्ञान शिक्षा प्रशिक्षण उपयोगिता कार्यक्रम) के अंतर्गत किया गया।

कार्यशाला में देश के 75 संस्थानों से 100 से अधिक शिक्षकों और शोधार्थियों ने भाग लिया। सभी प्रतिभागियों ने सक्रिय रूप से चर्चाओं और प्रशिक्षण सत्रों में सहभागिता की, जिससे यह आयोजन ज्ञान-विनिमय का एक प्रभावशाली मंच बन गया।
उद्घाटन सत्र: विज्ञान और परंपरा के संवाद की दिशा में कदम
कार्यक्रम का शुभारंभ एमडीयू के डॉ. सुरेंद्र यादव के स्वागत भाषण से हुआ। इसके पश्चात सीएसआईआर-एनआईएससीपीआर की निदेशक डॉ. गीता वाणी रायसम ने ऑनलाइन संबोधन दिया। उन्होंने स्वस्तिक पहल की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए कहा कि भारत की पारंपरिक ज्ञान प्रणालियाँ न केवल सामाजिक और सांस्कृतिक विरासत हैं, बल्कि उनमें गहन वैज्ञानिक दृष्टिकोण भी निहित है। उन्होंने कहा कि एनआईएससीपीआर, आईएनवाईएएस और एमडीयू के संयुक्त प्रयासों से पारंपरिक ज्ञान और वैज्ञानिक अनुसंधान के बीच सेतु निर्माण हो रहा है, जो भविष्य की शिक्षा नीति के लिए अत्यंत उपयोगी सिद्ध होगा।
मुख्य वक्ता डॉ. अनिल पी. जोशी का प्रेरक संबोधन
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि पद्म भूषण डॉ. अनिल पी. जोशी, संस्थापक – हिमालयन पर्यावरण अध्ययन एवं संरक्षण संगठन (हेस्को), देहरादून, ने अपने मुख्य भाषण में भारतीय ज्ञान प्रणाली की आत्मनिर्भरता और स्थिरता के मूल सिद्धांतों पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा कि पारंपरिक भारतीय ज्ञान सदैव पर्यावरण, अर्थव्यवस्था और पारिस्थितिकी के संतुलन पर आधारित रहा है।

“भारत के पर्वत पुरुष” के रूप में प्रसिद्ध डॉ. जोशी ने शिक्षकों से आग्रह किया कि वे छात्रों में स्वदेशी ज्ञान और वैज्ञानिक शिक्षा के बीच सामंजस्य स्थापित करने की दिशा में कार्य करें। उन्होंने कहा कि भारत के प्राचीन ग्रंथों और लोक परंपराओं में निहित वैज्ञानिक अवधारणाएँ आज के सतत विकास के लक्ष्यों से सीधा संबंध रखती हैं।
शिक्षक: समाज में परिवर्तन के प्रमुख संवाहक
एमडीयू के कुलपति प्रो. राजबीर सिंह ने अपने संबोधन में कहा कि ज्ञान का सच्चा प्रसार तभी संभव है जब शिक्षक समाज में परिवर्तन के वाहक के रूप में अपनी भूमिका निभाएँ। उन्होंने आईकेएस पर अंतःविषय पहल को आगे बढ़ाने के लिए एनआईएससीपीआर, आईएनवाईएएस और एमडीयू के संयुक्त प्रयासों की सराहना की और कहा कि इस प्रकार की कार्यशालाएँ शिक्षकों को न केवल पारंपरिक ज्ञान की वैज्ञानिक प्रासंगिकता समझने में मदद करती हैं, बल्कि उसे जन-जन तक पहुँचाने के कौशल भी विकसित करती हैं।
पहला तकनीकी सत्र: भारत की वैज्ञानिक विरासत की पुनर्स्मृति
“भारत की विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी विरासत: संरक्षण से स्थायित्व तक” विषय पर आयोजित पहले तकनीकी सत्र में देश की समृद्ध वैज्ञानिक परंपराओं और उनके वर्तमान संदर्भों पर चर्चा हुई।
सीएसआईआर की पूर्व निदेशक प्रो. रंजना अग्रवाल, जो एक प्रसिद्ध कार्बनिक रसायनज्ञ और वैज्ञानिक हैं, ने अपने व्याख्यान में कहा कि भारतीय विज्ञान सदैव प्राकृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोणों के समन्वय पर आधारित रहा है। उन्होंने बताया कि डिजिटल युग में पारंपरिक ज्ञान को अक्सर गलत या अधूरी जानकारी के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है, जिससे इसकी प्रामाणिकता प्रभावित होती है।
प्रो. अग्रवाल ने इस बात पर बल दिया कि पारंपरिक ज्ञान को वैज्ञानिक सत्यापन और शैक्षणिक समावेशन के माध्यम से ही सही रूप में समाज तक पहुँचाया जा सकता है। उन्होंने एनआईएससीपीआर की स्वस्तिक परियोजना, आयुष मंत्रालय, एआईसीटीई के आईकेएस प्रभाग और नई शिक्षा नीति (एनईपी) 2020 जैसे कार्यक्रमों का उल्लेख किया, जो पारंपरिक प्रथाओं के दस्तावेजीकरण और सत्यापन पर कार्य कर रहे हैं।
जल संरक्षण और पारंपरिक प्रणालियों की भूमिका
जेएनयू के डॉ. अश्विनी तिवारी, पर्यावरण विज्ञान विभाग, ने भारत में बढ़ते जल संकट पर चर्चा करते हुए कहा कि पारंपरिक वर्षा जल संचयन प्रणालियाँ आज भी जल प्रबंधन के लिए सबसे प्रभावी और स्थायी समाधान प्रदान करती हैं। उन्होंने शिक्षकों से आग्रह किया कि वे स्थानीय जल संरक्षण प्रणालियों के उदाहरणों को पर्यावरण शिक्षा में शामिल करें, ताकि विद्यार्थी जल संसाधनों के प्रति जागरूक बन सकें।
पारंपरिक खाद्य ज्ञान और वैज्ञानिक सत्यापन
सीएसआईआर-एनआईएससीपीआर की प्रधान वैज्ञानिक डॉ. चारु लता ने भारत की पारंपरिक खाद्य प्रणालियों पर विस्तृत व्याख्यान प्रस्तुत किया। उन्होंने बताया कि स्वस्तिक परियोजना के तहत पारंपरिक खाद्य प्रथाओं की पहचान, सत्यापन और उन्हें डिजिटल प्लेटफॉर्म के माध्यम से जनता तक पहुँचाने के लिए वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाया जा रहा है।
उन्होंने शिक्षकों को “स्वस्तिक के ब्रांड एंबेसडर” के रूप में कार्य करने का आह्वान किया, ताकि वे अपने-अपने क्षेत्रों में पारंपरिक ज्ञान को वैज्ञानिक तथ्यों के साथ जोड़ते हुए समाज में जागरूकता फैला सकें।
दूसरा तकनीकी सत्र: विज्ञान संचार में नवाचार और व्यावहारिक प्रशिक्षण
दूसरे सत्र का संचालन सीएसआईआर-एनआईएससीपीआर के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. परमानंद बर्मन ने किया। उन्होंने पारंपरिक ज्ञान संचार के विभिन्न व्यावहारिक पहलुओं पर चर्चा की। इस सत्र में प्रतिभागियों को लोकप्रिय विज्ञान लेखन, इन्फोग्राफिक्स, पॉडकास्ट और सोशल मीडिया आउटरीच के माध्यम से पारंपरिक विज्ञान को आधुनिक संदर्भों में प्रस्तुत करने का प्रशिक्षण दिया गया।
इसके साथ ही प्रतिभागियों को पारंपरिक प्रथाओं पर आधारित पोस्टर, इन्फोग्राफिक्स और लघु वीडियो तैयार करने का अवसर भी मिला, जिससे वे अपने शिक्षण अभ्यास में विज्ञान संचार के प्रभावी साधन विकसित कर सकें।
मृदा प्रबंधन और स्वदेशी पद्धतियाँ
सत्र के अंत में डॉ. राज मुखोपाध्याय, वैज्ञानिक – भाकृअनुप-केंद्रीय मृदा लवणता अनुसंधान संस्थान, करनाल, ने पारंपरिक मृदा प्रबंधन तकनीकों पर व्याख्यान दिया। उन्होंने बताया कि कैसे स्वदेशी पद्धतियाँ मृदा की उर्वरता, सूक्ष्मजीवी सक्रियता और पोषक तत्व चक्रण को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
कार्यशाला का समापन: अनुभव, संवाद और संकल्प
कार्यशाला का समापन एक संवादात्मक सत्र और धन्यवाद ज्ञापन के साथ हुआ। स्वस्तिक समन्वयक डॉ. चारु लता ने सभी प्रतिभागियों, आयोजकों और वक्ताओं का आभार व्यक्त किया। उन्होंने कहा कि यह कार्यशाला भारतीय ज्ञान प्रणाली के वैज्ञानिक आयामों को समझने और उसके प्रभावी संचार की दिशा में एक महत्वपूर्ण पहल है।
समापन सत्र में सीएसआईआर-एनआईएससीपीआर की वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. संध्या लक्ष्मणन ने कहा कि पारंपरिक ज्ञान केवल अतीत की धरोहर नहीं, बल्कि भविष्य की दिशा निर्धारित करने वाली प्रेरणा है। उन्होंने शिक्षकों से आग्रह किया कि वे इस ज्ञान को शिक्षा और अनुसंधान के मुख्य प्रवाह में शामिल करें, ताकि भारत की वैज्ञानिक विरासत को नई ऊँचाइयों तक पहुँचाया जा सके।