संविधानः लोकतंत्र की आत्मा और सुशासन का आधार

संविधान किसी भी राष्ट्र का चरित्र, मर्यादा और दिशा निर्धारित करता है। यह केवल विधिक दस्तावेज नहीं होता, बल्कि एक जीवंत मूल्य-व्यवस्था होती है जो राष्ट्र की आत्मा को परिभाषित करती है। संविधान दिवस हमें यह स्मरण कराता है कि भारत जैसे विशाल और विविधतापूर्ण लोकतंत्र की स्थिरता, एकता और प्रगति का आधार हमारे संविधान की दूरदर्शिता, उदारता और संतुलन है। इसलिए किसी भी राष्ट्र में सुशासन की पहली और अनिवार्य शर्त यही है कि संविधान सर्वाेच्च प्राथमिकता पर रहे, केवल शासन के लिए ही नहीं, बल्कि नागरिक जीवन के हर व्यवहार, आचरण और विचार में भी।

संविधानः लोकतंत्र की आत्मा और सुशासन का आधार

भारत गणराज्य का संविधान 26 नवम्बर 1949 को बनकर तैयार हुआ था। संविधान सभा के प्रारूप समिति के अध्यक्ष डॉ॰ भीमराव आंबेडकर के 125वें जयंती वर्ष के रूप में 26 नवम्बर 2015 से भारत सरकार द्वारा संविधान दिवस सम्पूर्ण भारत में हर वर्ष मनाया जा रहा है। इससे पहले इसे राष्ट्रीय कानून दिवस के रूप में मनाया जाता था। संविधान सभा ने भारत के संविधान को 2 वर्ष 11 माह 18 दिन में 26 नवम्बर 1949 को पूरा कर राष्ट्र को समर्पित किया और 26 जनवरी 1950 से संविधान अमल में लाया गया। भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म प्राप्त कराने के लिए तथा उन सब में और उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता, व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखंडता, सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढ़ाने के लिए दृढ़संकल्प होकर इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित किया गया।

भारत का संविधान दुनिया के सबसे विस्तृत एवं आधुनिक संविधानों में माना जाता है। यह हमें केवल अधिकार ही नहीं देता, बल्कि कर्तव्यों की भावना भी जगाता है। यह हमें समानता, न्याय और स्वतंत्रता से सज्जित करता है, साथ ही यह भी बताता है कि इन आदर्शों को जीवित रखना प्रत्येक नागरिक की जिम्मेदारी है। जब किसी राष्ट्र में संविधान की अवहेलना शुरू होती है, तब लोकतंत्र डगमगाने लगता है। इसलिए संविधान का सम्मान करना एक विधिक प्रक्रिया का पालन मात्र नहीं, बल्कि राष्ट्रीय चरित्र की बुनियाद है। आज संविधान दिवस पर यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि संविधान की प्रासंगिकता आज भी उतनी ही दृढ़ता से बनी हुई है या नहीं? उत्तर स्पष्ट है-हाँ, क्योंकि हमारा समाज परिवर्तनशील है, चुनौतियाँ बदलती हैं, लेकिन न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व जैसे मूल आदर्श समय से परे हैं। संविधान की उपयोगिता तभी सिद्ध होती है जब शासनकर्ता उसे सर्वाेपरि मानें और नागरिक उसे जीवन का नैतिक मार्गदर्शक बनाएं।

इसी संदर्भ में यह भी विचारणीय है कि संविधान को केवल हाथ में लेकर जगह-जगह प्रदर्शन करना, जैसाकि कुछ राजनीतिक नेता, विशेषकर राहुल गांधी, करते हैं, क्या सचमुच संविधान के सम्मान का प्रतीक है? संविधान की प्रति का सार्वजनिक प्रदर्शन तब सार्थक होता है जब उसके मूल्यों को जीवन में उतारा जाए, उसके अनुच्छेदों का पालन किया जाए, उसके प्रति संयम, गरिमा और श्रद्धा रखी जाए। संविधान को राजनीतिक हथियार बनाकर भीड़ भावनाओं को उकसाने का प्रयास, संविधान की आत्मा के विरुद्ध है। संविधान को मंचों पर लहराना सम्मान नहीं, बल्कि उसकी गंभीरता का अवमूल्यन है। संविधान कोई राजनीतिक पोस्टर या प्रदर्शन की वस्तु नहीं, वह राष्ट्र की मर्यादा का दस्तावेज है, जिसे विवेक, संयम और ईमानदारी से समझने एवं पालन करने की आवश्यकता होती है।

संविधान निर्माता डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का दृष्टिकोण भी यही रहा कि संविधान तभी सफल होगा जब उसके अनुयायी चरित्रवान, प्रतिबद्ध और राष्ट्रहित साधक हों। बाबा साहेब ने कहा था-“संविधान कितना भी अच्छा क्यों न हो, यदि उसे चलाने वाले अच्छे नहीं होंगे तो वह खराब सिद्ध होगा।” उनका यह चिंतन आज सबसे अधिक प्रासंगिक है। उन्होंने संविधान को बनाया, पर उससे भी अधिक उन्होंने एक नैतिक चेतना जागृत की कि संविधान की शक्ति उसके लेखों में नहीं, बल्कि उस नागरिक चेतना में है जो उसे पालन करने के लिए तैयार रहती है। अंबेडकर का यह भी आग्रह था कि संविधान को केवल राजनीतिक बहस का साधन न बनाया जाए, बल्कि समाज सुधार और मनुष्य निर्माण की दिशा में उसका प्रयोग हो। उनके अनुसार संविधान को समझना यानी भारतीय समाज की आत्मा को समझना।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी संविधान को सर्वाेच्च सम्मान देते हुए उसे शासन का आधारस्तंभ बनाया है। वे बार-बार कहते रहे हैं कि “संविधान हमारी शासन-व्यवस्था का पवित्र ग्रंथ है।” उनकी दृष्टि में संविधान केवल कानूनों का संग्रह नहीं बल्कि अच्छे शासन, सामाजिक विश्वास और राष्ट्र निर्माण की आधारशिला है। संसद के आरंभिक सत्र हों, प्रमुख राष्ट्रीय अवसर हों या आम जनता से संवाद, हर बार उन्होंने संविधान को सर्वाेच्च स्थान दिया है। उन्होंने यह भी कहा है कि “संविधान का पालन करना केवल जिम्मेदारी नहीं, बल्कि राष्ट्रभक्ति का सर्वाेच्च रूप है।” उनकी सरकार की प्राथमिकता यही रही है कि प्रत्येक नीति, प्रत्येक निर्णय और प्रत्येक योजना संवैधानिक मूल्यों के अनुरूप हो। मोदी के नेतृत्व में कई ऐसे प्रयास हुए जिनका उद्देश्य संविधान के प्रति जन-जागरण बढ़ाना था, जैसे ‘संविधान के प्रति कर्तव्य पालन’ अभियान, लोकतांत्रिक संस्थाओं को सुदृढ़ करना, पारदर्शी शासन एवं नागरिकों के अधिकारों की सुरक्षा। उन्होंने संविधान दिवस को केवल समारोह न बनाकर राष्ट्रीय आत्मचिंतन का पर्व बनाने का प्रयास किया, जिससे हर नागरिक संविधान को केवल पढ़े नहीं बल्कि महसूस करे, समझे और जिए।

संविधान का सम्मान केवल शासन की जिम्मेदारी भर नहीं है, बल्कि यह हर नागरिक के जीवन का हिस्सा होना चाहिए। यदि नागरिक संविधान को केवल विद्यालयों की पाठ्यपुस्तकों में सीमित मानते रहेंगे, तो यह राष्ट्र अपने लोकतांत्रिक आदर्शों से दूर होता जाएगा। संविधान का वास्तविक सम्मान तब है जब हम अपने दैनिक जीवन में समानता का पालन करें, न्याय को महत्व दें, धर्मनिरपेक्ष दृष्टि रखें, किसी के साथ भेदभाव न करें, हिंसा या अराजकता के बजाय संवाद एवं शांति का मार्ग चुनें। आज जब दुनिया में असहिष्णुता, चरमपंथ और राजनीतिक कटुता बढ़ रही है, तब हमारा संविधान एक शीतल छाया की तरह हमें संरक्षण देता है। यह हमें बताता है कि राष्ट्र केवल सत्ता परिवर्तन का खेल नहीं बल्कि मूल्यों की निरंतरता है। संविधान इन्हीं मूल्यों को स्थिर रखता है।

संविधान दिवस हमें यह भी याद दिलाता है कि संविधान का सम्मान केवल राष्ट्रीय पर्वों पर नहीं बल्कि प्रतिदिन के जीवन में होना चाहिए। नागरिकों के मन में संविधान के प्रति आदर की आदत विकसित हो, यह तभी संभव है जब समाज में संवैधानिक शिक्षण को मजबूत किया जाए, देश के नागरिकों को अधिकारों के साथ कर्तव्यों का बोध कराया जाए और हर स्तर पर संवैधानिक आचरण को प्रोत्साहित किया जाए। आज आवश्यकता है कि संविधान को राजनीतिक विवादों से ऊपर उठाया जाए। उसे नारा, प्रदर्शन और विरोध की वस्तु न बनाया जाए। बल्कि उसे एक ऐसे प्रकाश स्तंभ के रूप में देखा जाए जो हमें न्यायपूर्ण, समतामूलक और शांतिपूर्ण समाज की ओर ले जाता है। यदि हम संविधान का सम्मान करेंगे तो राष्ट्र मजबूत होगा; यदि हम इसकी अवमानना करेंगे तो लोकतंत्र कमजोर होगा।

संविधान दिवस केवल इतिहास का स्मरण नहीं है, यह भविष्य की जिम्मेदारी का बोध भी है। इसे मनाते हुए हमें अपनी राष्ट्रीय प्रतिज्ञा दोहरानी चाहिए कि हम संविधान की रक्षा करेंगे, उसके मूल्यों को जीवन में उतारेंगे और अपने देश को ऐसा बनाएंगे जैसा हमारे संविधान ने परिकल्पित किया है, न्यायपूर्ण, समानतामूलक, स्वतंत्र और बंधुत्वपूर्ण। इसी में भारत का भविष्य है, इसी में हमारी लोकतांत्रिक शक्ति का चरम है, और इसी में एक प्रगतिशील राष्ट्र की आत्मा बसती है।

ललित गर्ग लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
ललित गर्ग लेखक, पत्रकार, स्तंभकार
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