“गुरुणां चैव सर्वेषां माता परमं को गुरु” ।।
भारतीय दर्शन की यह मान्यता है कि सृष्टि की रचना ब्रम्हा ने की हैं, जिसमें उसने सबसे श्रेष्ठ प्राणी बनाया मनुष्य को, और भौतिक जगत में उसे जन्म देने उसका लालन पालन करने का अधिकार नारी (माता) को उसकी जन्मदात्री बनाकर दिया। मां की बहुत बड़ी एक विशेषता यह है, कि वह अपने जीवन को मातृत्वमय बनाकर अपने बच्चे के जीवन से मिला देती है, जैसे उसका कोई अलग व्यक्तित्व ही नहीं हैं। अपने समस्त सुख और एश्वर्य को निछावर कर देना ही. मातृत्व भावना का परिचायक हैं।
पुरुष संसार को नश्वर, दुःदखायी आदि विशेषण देकर अपने दायित्व से विमुख हो जाता हैं, पर एक मां नहीं ! बुद्ध अपनी लहलहाती गृहस्थी, नवयौवना पत्नी तथा नवजात शिशु को अपने मार्ग का कंटक बताकर उन्हें छोड़कर चल दिये, किंतु यशोधरा ऐसा नहीं कर सकी। उनके अंदर की मां संतान का त्याग नहीं सह सकती थी। प्रश्न यह उठता है कि क्या उसे भी अपना लोक और परलोक सुधारने का मोह नहीं रह होगा? किंतु नहीं वह एक मां थी। इस गौरव को नारी किसी भी रूप में नहीं त्याग सकती। पिता अपनी संतान से विमुख हो सकता है, पर मां नहीं। यदि पुरुष की इस उच्छृंखल प्रवृत्ति का कुप्रभाव कहीं नारी (माँ) पर आ जाये तो क्या सृष्टि का उद्यान इसी प्रकार लहलहाता रह सकता है..?- पति को भी पत्नी जब कष्ट में पाती है, तब उसके अंदर की मां करवट लेने लगती है। सब विरोध भूलकर वह नयनों में मातृत्व स्नेह का सागर उमड़कर उसके कल्याण हेतु तत्पर हो जाती हैं।
अपनी संतान के कल्याण के लिये माता दधिचि के जैसे त्याग के लिये भी हर हमेशा तत्पर रहती है। गर्भ से लेकर बालक के पैरों पर खड़ा होने तक मां किन किन कष्टों को सहकर उसका लालन पालन करती है। इसे बताने की आवश्यकता नहीं हैं संतान के लिये वह दिनरात एक कर देती है इतना ही नहीं, अपनी योग्यतानुसार वह उसका चरित्र निर्माण भी करती है। यदि मां समझदार, सुचरित्र तथा राष्ट्र कल्याण की भावना से परिचित हुई तो निश्चित रूप से वह महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी और नेपोलियन जैसे वीर, देशप्रेमी तथा महान पुरुष अपने देश को भेंट करेगी। नेपोलियन बोनापार्ट का कथन था
- “तुम मुझे योग्य माताएं दो ।
- मैं तुम्हें सुदृढ़ राष्ट्र दूंगा” ।।
परोक्ष रुप से एक मां राष्ट्र का निर्माण करती है। जहां की माताएं , विदुषी होंगी, वहां का राष्ट्र दासता से कभी भी ग्रसित नहीं हो सकता।
“”जो हर गम सहकर भी सदा खुश रहती है!
खुद के लिए ना जी कर बच्चों के लिए जीती है!!”
वो और कोई नहीं बस मां ही होती है। वाकई मां वो होती है जो अपना हर दर्द, अपनी हर तकलीफ को नजर अन्दाज़ कर केवल अपने परिवार, अपने बच्चों के लिए जीती है। मां का स्थान भगवान से भी ऊंचा माना गया है। क्योंकि केवल वो मां ही होती है, जो नौ महीने अपने बच्चे को गर्भ में रख तकलीफ, दर्द सहती हुई उसे जन्म देती है। बच्चे की रग-रग से मां वाकिफ होती है। क्योंकि जब हम मां के गर्भ में होते हैं। उसे हमारी एक-एक हरकत का एहसास होता है। हमें औक्या खाने से ताकत मिलेगी, क्या हमारे स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होगा। यह हमारे जन्म लेने से पहले ही मां सोचना आरंभ कर देती है। मां हमेशा खुद से पहले अपने बच्चों के बारे में सोचती है। अपनी पंसद, नापसंद सब भुलाकर सिर्फ अपने बच्चों के चेहरे पर मुस्कान देखना चाहती है। किसी ने कहा भी है कि ‘”यदि मां का बस चले तो वो दुनिया की सारी खुशी अपने बच्चों की झोली में डाल दे”। मां के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती। यदि हम दुनिया में आएं है तो केवल मां की वजह से, मां के गर्भ के बिना कोई जन्म नहीं ले सकता। मां के इसी समर्पण और त्याग को सम्मानित करने के लिए विश्व में मातृ दिवस मनाया जाता है। देखा जाए तो मां के लिए एक दिन देना कुछ भी नहीं है! उसके लिए तो हर दिन मातृ दिवस होना चाहिए। किन्तु फिर भी भारत में प्रत्येक वर्ष मई माह के दूसरे रविवार को मातृ दिवस मनाया जाता है। जहां बच्चें मां के प्रति अपने प्यार को प्रदर्शित करते हैं। एक मां अपना संपूर्ण जीवन अपने बच्चों के लिए न्यौछावर कर देती है। मां के इस अद्भुद प्रेम के प्रति उन्हें शुक्रिया अदा करने का भी दिन होता है मातृ दिवस । –सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”