खाद्यान्नों के मामले में आत्मनिर्भर होता भारत

एक समय था जब भारत अपनी खाद्यान्न आपूर्ति के लिये दूसरे देशों की दया पर निर्भर था। हमारे पास न  उस समय कृषि के साधन थे, और न ही उन्नत तकनीक थी। फलतः आज का वही कृषक पहले अपनी कृषि से वैसा उपज नहीं प्राप्त कर पाता था, जैसा कि आज वह प्राप्त कर रहा है। आज कई मायनों में भारत खाद्यान्नों के मामले में अब आत्म निर्भर हो चुका है। इस संबंध में समाजशास्त्रियों का भिन्न-भिन्न मत है।

कुछ कहते हैं कि ये ठीक है कि आज हम खाद्यान्न उपज के मामले में पूर्व से बहुत बेहतर हैं, पर आज हमारी जनसंख्या भी तो बहुत बढ़ गई है, जिससे हमारी खाद्यान्न उत्पादन की बढ़ी हुई क्षमता तो जैसी की तैसी ही रह गई अर्थात हम जहाँ पहले वे आज भी वहीं है कोई परिवर्तन नहीं है।

जबकि दूसरे मत के समाजशास्त्री कहते हैं कि भारत में जनसंख्या की वृद्धि हुई है यह सही बात है, पर इस तथ्य को भी हमें नहीं भूलना चाहिये कि यहाँ अब श्रम करने वाले हाथ भी तो उतने ही बढ़ गये हैं, जो खाद्यान्न उत्पादन के लिये आवश्यक है। अर्थात जहाँ कम क्षेत्रफल में कम हाथों (श्रमजीवी किसान) द्वारा जो कार्य किया जा रहा था। बहुत सीमित एरिया सीमित मात्रा में था, वह अब असीमित होकर हमारी क्षमता को बेहतर और वृहत्तर बना रहा है।

वैसे दूसरा मत वास्तविकता के नजदीक जान पड़ता है, ऐसा मुझे लगता है। एक दिन मैं एक पुरानी पत्रिका “नवनीत” जो मई 1973 को प्रकाशित हुई थी, उसके पृष्ठ को पढ़ रहा था तो उसमें एक जगह सरकारी विज्ञापन दिखाई दिया जिसमें लिखा था,….” कम अनाज खाइये “खाद्यान्नों के मूल्य कम करना आपके हाथ में है, गेहूँ चावल कम खाईये, सप्ताह में कम से कम एक बार बिना अनाज का “भोजन लीजिये।” उक्त विज्ञापन से साफ जाहिर होता है कि आज से कुछ वर्षों  पूर्व हम खाद्यान्न के मामले में बहुत पीछे थे, हमारे यहाँ खाद्यान्नों जैसे गेंहू, चावल की

बहुत कमी थी ,तभी तो सरकार ने मजबूर होकर ऐसा विज्ञापन दिया रहा होगा। पर क्या आपने आजकल गत वर्षों में ऐसा कुछ विज्ञापन देखा है….? इसका जवाब होगा बिलकुल नहीं। इसका मतलब यही हुआ न कि अब हमारे यहाँ वैसी स्थिति नहीं है जैसी पहले हुआ करती थी। अब तो यह स्थिति है कि अब हम चायपत्ती उत्पादन में विश्व में प्रथम चावल में द्वितीय, गेहूँ में, तीसरी एवं चीनी उत्पादन में दूसरे, कपास में भी दूसरा स्थान पर है।

देश में चावल का सर्वाधिक उत्पादन करने वाला राज्य प. बंगाल एवं दूसरा आंध्र प्रदेश है, किंतु चावल की प्रति हेक्टेयर उपज पंजाब में सर्वाधिक है, मध्यप्रदेश आज देश में, सोयाबीन का उत्पादन करने वाला सबसे बड़ा राज्य है। देश में मध्य प्रदेश ज्वार में प्रथम, तुअर में तथा अन्य दालों में द्वितीय, गेहूँ एवं चने में तृतीय और धान (चावल) में तीसरा स्थान रखता है।  किंतु प्रतिव्यक्ति औसत उत्पादन में पंजाब और हरियाणा के पश्चात तृतीय है।

छत्तीसगढ़ प्रदेश में खरीफ की फसले लगभग 57 प्रतिशत क्षेत्र में और रबी की फसले लगभग 43 प्रतिशत क्षेत्र में बोई जाती हैं। विभिन्न खाद्यान्नों में कुछ क्षेत्र लगभग 82 लाख हेक्टेयर है, जिससे खाद्यान्न लगभग 71 लाख हेक्टेयर में और अन्य फसले लगभग 22 लाख हेक्टेयर में है। छत्तीसगढ़ में धान लगभग 18 लाख हेक्टेयर (कुल क्षेत्र का 22 प्रतिशत), गेहूँ लगभग 11 लाख हेक्टेयर, ज्वार लगभग 8 लाख हेक्टेयर और दाले लगभग11 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में बोई जाती है, तिलहनें लगभग 12 लाख हेक्टेयर में तथा अन्य क्षेत्र में गन्ना, कपास आदि एसले बोई जाती है।

उत्पादन की दृष्टि से सन् 1988-89 में धान (चावल) लगभग18.81, दाले 26.81, सोयाबीन सहित तिलहन लगभग 22.12 कपास लगभग 3.3, गन्ना लगभग 225 लाख मेट्रिक टन की पैदावार प्रदेश में प्राप्त की गई थी। सारे देश में उत्पादित चावल, गेहूँ, दालें, दलहन, कपास एवं गन्ने में सामान्यतःअविभाजित मध्यप्रदेश का योगदान लगभग 9, 11, 11, 8, 4, 7 प्रतिशत है। देश में अविभाजित मध्यप्रदेश ज्वार में प्रथम तुअर में द्वितीय, गेहूँ एवं चने में तृतीय चावल में तीसरा स्थान रखता है ।

खाद्यान्नों

 खाद्यान्न व्यवस्था में पशुधन भी एक महत्वपूर्ण सहयोग स्त्रोत है। पशु मूल्यवान प्रोटीन उपलब्ध कराने के अतिरिक्त कृषि के कार्य और ग्रामीण परिवहन के लिये चलशक्ति प्रदान करते हैं। सन् 1987 की पशु संगठनों के अनुसार अविभाजित मध्यप्रदेश  में लगभग 4.63 करोड़ पंशु और 92 लाख कुक्कुट थे। सन् 1988-89 में लगभग 47.64 लाख लीटर दुग्ध संकलन एवं 58.65 लाख लीटर का वितरण सिर्फ डेयरी विकास निगम के द्वारा प्रदेश में किया गया। इसी प्रकार बढ़ती हुई जनसंख्या, सीमित कृषि क्षेत्र तथा संतुलित एवं पौष्टिक आहार की दृष्टि से मछली उत्पादन का कार्य भी सहयोगी खाद्यान्न उत्पादन कार्य के लिये किया गया।

 सरसरी तौर पर देखा जाये तो यह निश्चित है कि खाद्यान्न उत्पादन के मामले में हमारा देश एक सीमा तक आत्मनिर्भर हो चुका है। आज स्थिति यह है कि गेहूँ, चीनी हमारे यहाँ गोदामों में ठसाठस भरे पड़े हैं, उनके सुरक्षित रखने की समस्या से दो चार होना पड़ रहा है। पिछले वर्षों में गन्ना का रिकार्ड उत्पादन होने के कारण कृषकों को औने पौने दाम पर अपनी उपज बेचने पर मजबूर होना पड़ा था।

यही कारण था कि चालू वर्ष में अधिकतर कृषकों ने गन्ने की उपज के बजाय दूसरे खाद्यान्नों की फसले ली। रिकार्ड बना उत्पादन के कारण हमारे यहाँ अभी भरपूर मात्रा में चीनी का स्टाक है (परंतु फिर भी न जाने किस नीति के तहत चीनी का बाहरी देशों जैसे बांग्लादेश आदि से आयात किया गया।) पर .उसका उचित समय पर उपयोग नहीं होने से कृषक जगत में गलत संदेश जाता है। इसकी व्यवस्था को खासा ध्यान देना चाहिये।

 प्रदेश में उत्पादन क्षेत्र में कार्यरत श्रमिकों के लिये उनकी आर्थिक उन्नति हेतु विश्व खाद्य कार्यक्रम की एक महत्वपूर्ण कल्याणकारी योजना चलाई जा रही है। इस कार्यक्रम के तहत श्रमिकों के पारिश्रमिक से निश्चित राशि काटकर उन्हें अनाज, दाल और खाद्य तेल वितरित किया जाता है। काटी गई राशि कल्याण निधि में जमा की जाती है। एशिया महाद्वीप में अपनी तरह की विशालतम वह योजना का चौदहवां चरण  आरंभ हो चुका है। इसके अंतर्गत चार वर्षों की अवधि में 150 करोड़ रुपये मूल्य के खाद्यान्न तेल तथा दाल का वितरण किया जायेगा।

इससे पूर्व विश्व खाद्य कार्यक्रम की योजना  मजदूरों के कल्याण के लिये विश्व खाद्य कार्यक्रम के अंतर्गत संचित कल्याण निधि से विभिन्न कल्याणकारी योजनाओं का क्रियान्वयन किया जा रहा है। विश्व खाद्य कार्यक्रम में जनहित के कार्यों के अंतर्गत प्रदेश में अभी तक 813 डेम 193 शाला भवन 108 श्रमिक विश्राम स्थल तथा सामुदायिक भवन, 200 हेण्डपम्प, 335 कुँएँ, 80 झूलाघर, 156 ट्यूबवेल 218 गोबर गैस संयंत्र, 881 रपटें, 678 कि.मी. पहुँच मार्ग, 87 उद्वहन सिंचाई योजना, 106 आंगन बाड़ी एवं आदिवासी छात्रावास, 9 स्वास्थ्य केंद्र तथा 76 उप स्वास्थ्य केन्द्रों का निर्माण किया गया है। 14 एम्बुलेन्स क्रय की गई है, इसके अलावा 31 पशु शिविरों की भी स्थापना की गई है।

 वर्तमान में पूरी दुनिया ये जान चुकी है कि भारत अब खाद्यान्न उत्पादन के मामले में आत्मनिर्भर एवं काफी तरक्की कर चुका है। पंजाब हरियाणा के कृषक तो अब बहुत आगे निकल चुके हैं। हमारे, गोदाम अब लबालब भरे पड़े रहते हैं। परंतु हमें यह देखकर निश्चिंत होने की कतई जरूरत नहीं है, हमें नित नए तकनीको को इस्तेमाल करने की जरूरत है जिससे के ऊपज और फसलें बढ़े, जमीन की उर्वरा शक्ति बढ़ती रहें ।

साथ ही उत्पादकता भी बड़े यह तो तय है, कि हर आने वाला वर्ष अपने साथ बढ़ी हुई जनसंख्या को लेकर आएगा। तो इसके लिए हमें निश्चित तौर पर यह तैयारी करनी होगी कि हर पेट को अन्न मिले। और खाद्यान्न की किसी भी प्रकार की कमी ना होने पाएं। वह इसके साथ हमें इसके लिए भी चौकन्ना रहना है कि आज के हमारे भारत देश की एक सौ अड़तीस करोड़ की जनता के लिए हर पेट को भोजन मिल सके और सब की पूर्ति हो सके। इसके लिए इतना अनाज जिसे शीतकेंद्रों, अनाज गोदामों  व अनाज केंद्रों में रखने की वैसी ही सुदृढ़ व्यवस्था का होना अत्यंत ही आवश्यक है।

इसके लिए भारत के हर राज्य में हर जगह हर स्थान में एक निश्चित योजना के अनुरूप बड़े-बड़े खाद्यान्न गोदामों की श्रृंखला विभिन्न राज्य सरकारें एवं केंद्र सरकार सुंदर योजना बनाकर  तैयार किया जाना आवश्यक है। तभी तो हम करोड़ों मीट्रिक टन अनाजों को हम सुरक्षित और उपयोगी बनाकर रख सकेंगे। यह उतना  ही आवश्यक तथ्य है, जितना कि अनाज का उत्पादन और उसकी सुरक्षाका ख्याल रखना उतना ही जरूरी है जितना कि उसका उत्पादन करना।

सुरेश सिंह बैस "शाश्वत"
सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”

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