कुछ कर गुजर जाने की तमन्ना ही युवावस्था की पराकाष्ठा

-12 अगस्त अंतरराष्ट्रीय युवा दिवस पर विशेष-

युवावस्था जीवन की सबसे महत्वपूर्ण अवस्था होती है। इस अवस्था में व्यक्ति, सामर्थ्यवान शक्तिशाली, चैतन्यवान, स्फूर्तिवान व अनेक गुणों से लबालब होता है, इस युवावस्था के ढलान के बाद इन गुणों में क्रमशः कमी आती जाती है। वैसे देखा जाये तो भारतीय युवक दुनिया के अन्य देशों की अपेक्षा अधिक संयत और समझदार पाये गये हैं। पश्चिमी दुनिया के युवक नशों के शिकंजे में अपने आपको जकड़ चुके हैं। वहीं वे मानव सभ्यता के विकास और सामाजिक जीवन की मर्यादाओं पर जरा भी विश्वास नहीं करते। उनका कहना है कि मानव समाज का संगठन प्रारंभ से ही कुछ ग़लत धारणाओं के आधार पर किया गया है। ऐसे समाज की जड़ खोदकर उसे समाप्त कर देना उनकी दृष्टि में एक पुण्य कार्य है।

वहीं वे मर्यादाहीन उच्छृंखलता की सारी हदें पारकर चुके हैं। अमेरिका में देखिए वहां के पिस्तौल संस्कृति के चलते आए दिन युवा वर्ग कहीं भी किसी पर भी गोली चलाते नजर आते हैं। अब तो अमेरिकी सरकार भी इस विषय पर सजग हो गई है और आवश्यक कानून में परिवर्तन करने के लिए तैयार हो चुकी है। जबकि भारतीय युवा जगत में अभी ऐसी मर्यादाहीन उच्छृंखलता देखने को नहीं मिलती हैं।

 अब से पचास वर्ष पूर्व तक यहाँ का युवा वर्ग परिवार और समाज द्वारा अनुशासित था। अंग्रेजी शासन सरकारी नौकरी में नियुक्ति के समय युवकों की शिक्षा और व्यक्तिगत योग्यताओं के साथ उनके पारिवारिक परम्पराओं को भी महत्व देता था। इसलिये ये बाह्य व्यावहारिक जीवन में से आधुनिक होते हुये भी प्राय: जीवन के उन मूल्यों और अंधविश्वासों तक के प्रति भी आस्थावान बने रहते थे, जो उनके कुल में प्राचीनकाल से चले आ रहे थे। महात्मा गांधी ने सन् 1920 में युवा वर्ग को असहयोग आंदोलन में शामिल होन का आहवान किया। उक्त आंदोलन में सम्मिलित होने का अर्थ ब्रिटिश शासन को उखाड़ फेंकना ही नही था, वरन् अप्रत्यक्ष रूप से रूढ परम्परागत रीति रिवाजों के प्रति विद्रोह करके बहुत सी पारिवारिक और सामाजिक मर्यादाओं को छिन्न भिन्न करना भी उसके अंतर्गत शामिल था। 

        फिर पुनःसन् 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात देश में युवा आंदोलन का दूसरा दौर शुरू हुआ युवा वर्ग भी इस समय इस भावनाओं को लेकर, कि वे एक स्वतंत्र देश के स्वतंत्र नागरिक हैं और उनकी भावना का कद्र होना चाहिये। ऐसी सोच के साथ चल रहे थे। दूसरी ओर नया शासक वर्ग ब्रिटिश शासनकाल से चली आईं शिक्षा पद्धति को बिना बदले उन्हें अपनी मान्यताओं के अनुसार मर्यादाओं के नये सांचों में ढालना चाहता था।

  सन 1965 के बाद से भारतीय युवा आंदोलन में एक नया मोड़ आया। समझदार युवकों ने देखा कि रोजगार के दफ्तर खुले होने के बाद भी बेरोजगारी बढ़ती जा रही है। दी जाने वाली शिक्षा का वास्तविक और व्यावहारिक जीवन में उपयोगी नहीं हो पा रहा है, वहीं भ्रष्टाचार और महँगाई निरंतर बढ़ती जा रही है। नैतिकता नाम की चीज़ समाज में कोई चीज नहीं रह गई है। गरीब और गरीब और अमीर और अमीर होते जा रहे हैं, तब युवा वर्ग को अपनी निरुद्देश्य उच्छृंखलता का परित्याग कर, नवनिर्माण को किसी दिशा की ओर ले जाने वाले आंदोलन की आवश्यकता का एहसास हुआ। वे गम्भीर होकर विचार करने और अपने आंदोलन को सोद्देश्य बनाने की चेष्टा भी करने लगे, तभी गुजरात राज्य में भ्रष्टाचार के विरुद्ध हुआ आंदोलन एवं विधानसभा भंग करो आंदोलन का श्रीगणेश हुआ था।

 हमारे देश में इस समय युवा वर्ग की कुल जनसंख्या लगभग चालीस करोड़ के आसपास है, पर वह इतनी बड़ी शक्ति , संगठन के अभाव में बिखरी पड़ी है। युवावर्ग की ऐसी कोई संस्था नहीं है जो इस शक्ति का प्रतिनिधित्व कर सके। देश के विभिन्न राजनैतिक दल अपनी – अपनी “विचारधारा के अनुसार इसे संगठित करने का प्रयत्न करते हैं। फिर उनका उपयोग अपने ही उद्देश्यों की पूर्ति के लिये प्रायः करने लग जाते हैं। भारतीय युवकों के सामने आज सबसे बड़ी समस्या अपने विचारों की दृढ़ता और नैतिकता को कायम रखने की है।

हमारा देश आज राजकीय पूंजीवाद एकाधिकार तथा निजी पूँजीवाद एकाधिकार के कठिन संघर्ष के बीच से गुजर रहा है। दोनों ही अपने अपने तरीके से युवा वर्ग को आकर्षित करके पथभ्रष्ट करने का प्रयत्न कर रहे हैं। बाहरी तौर पर  युवा वर्ग को नीति न्याय और सिद्धांत की बहुत सी बातें बताई जाती है। समाजवाद, जनतंत्र और धर्म निरपेक्षता के ऊंचे आदर्श उनके सामने रखे जाते हैं, किंतु युवाओं के सामने जब उन आदर्शो का हनन होता है तब युवा आक्रोश जाग उठता है । अध्यापक अभिभावक और सामाजिक नेता छात्रो को प्रत्यक्ष रूप में कुछ सीख देते हैं, पर ठीक उसके विपरीत आचरण करने के लिय अप्रत्यक्ष रूप से प्रेरित करते हैं।

  युवक अपने स्वभाव से सच्चा ईमानदार और नैतिकता को आचरण पसंद करने वाला होता है। भ्रष्ट समाज का अनुभव उसे यह सिखाता है कि स्वयं भ्रष्ट हुए बिना वह समाज में अपने वजूद को भी कायम नहीं रख सकता। अतः आज आवश्यकता इस बात की है कि युवकों को दी जाने वाली शिक्षा जीवन के लिये उपयोगी बनाई जाय और युवा शक्ति को रचनात्मक दिशा देने का प्रयास किया जाय। उसे किसी भी छुद्र स्वार्थ में ना लपेटा जाए।

 कहते है जिस प्रकार अग्नि के शांत होते ही उसकी प्रचण्ड लगने वाली ज्वालाएं समाप्त हो जाती है। वैसे ही मनो विकारों को मिटाते ही आत्म त्रुटि समाप्त हो जाते हैं। युवा वर्ग को इसीलिये सर्वप्रथम आवश्यकता है अपने मनोविकारी और विचारों पर पूर्ण नियंत्रण रखें। वैसे भी युवाओं में देश और समाज के लिए कुछ बडा कर जाने की महती इच्छा बलवती होती है, हर युवा चाहता है कि वह राष्ट्र व समाज हित के लिए किसी भी क्षेत्र में बड़ा काम कर सके। और ऐसी भावना के साथ अपनी  कोशिशें जारी रखता है। बस जरुरत है उसको इस समय सही सीख देने वालों की सही राह दिखाने वालों की जो उसकी इच्छा और प्रतिभा को पहचान कर उन्हें आगे बढ़ने में पूर्ण रुप से सहयोगी और सहभागी बने। निश्चय ही एक युवा में इतनी अधिक क्षमता और साहस दृढ़ता व कुछ कर जाने की ऐसी तमन्ना विद्यमान होती है कि वह अपने उद्देश्य को पाने के लिए दृढ़ प्रतिज्ञ हो जाए –

“तो उसके लिए सारा कुछ आसान है।
सारा जहां उसका है, सारा आसमां उसका है, 
सारी जमीं उसकी है।।”

सुरेश सिंह बैस "शाश्वत"
सुरेश सिंह बैस “शाश्वत”

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