स्टेजिंग एरिया : मानवीय व्यवहार, कर्तव्य एवं संवेदनाओं का कोलाज

स्टेजिंग एरिया

वह शनिवार की खूबसूरत शाम थी। जब मैं घर आया तो मेरी मेज पर बुक पोस्ट के कुछ पैकेट पड़े हुए थे। स्वाभाविक रूप से सभी पैकेट खोल रैपर डस्टबिन के हवाले कर सभी पांच पुस्तकें मेज पर रख एक-एक कर उलटने-पलटने लगा। इनमें दो संस्मरण, एक कथा, एक कविता और एक बिल्कुल अलग विधा पर जिसमें संस्मरण, कथा, रिपोर्ताज, रेखाचित्र और लेख विधा का मिला जुला अक्स पृष्ठों पर साया था। लेखन में सुविधा के लिए मैं उसे कहानी ही मान लेता हूं। जिसके आवरण ने मन मोह लिया था। हां तो, वह पुस्तक थी काव्यांश प्रकाशन, ऋषिकेश की मितेश्वर आनंद लिखित ‘स्टेजिंग एरिया’। नाम कुछ अलग सा दिखा, तो उत्सुकतावश इसके पृष्ठ पलटने लगा। महसूस हुआ कि पुस्तक में कोरोना काल में शासन द्वारा फैसिलिटी क्वारंटाइन करने हेतु बाहर से आने वाले व्यक्तियों के कोरोना सम्बंधी कागजात, यात्रा पास चेक करने एवं कोरोना टेस्ट हेतु बनाए गए स्टेजिंग एरिया में अपनी ड्यूटी करते हुए लेखक मितेश्वर आनंद ने वहां घटी सच्ची घटनाओं का आधार लेकर कल्पना के रेशों से एक सुंदर चादर बुनी है जो ‘स्टेजिंग एरिया’ नाम से लोक सम्मुख प्रस्तुत हुई है। लेकिन यह भी लगा कि अंदर करोना संबंधी विवरण, शहरों से गाँव की ओर लौटते मजदूरों एवं प्रवासियों के दुख, दर्द, कष्ट की पीड़ाभरी कहानियां ही होंगी जैसा कि कुछ संग्रहों में देखने को मिला था, सभी पुस्तकें मेज पर पुनः दूसरे कामों में लग गया। लेकिन अगले रविवार सुबह की चाय पीते हुए मेज पर रखी ‘स्टेजिंग एरिया’ को जब फिर अनायास ही पढ़ने लगा तो एक कहानी ‘कपूत’ पर नजरें टिक गयीं। चाय की चुस्कियों के साथ कहानी का भी आस्वादन करने लगा। उस कहानी में बताया गया कि किस प्रकार एक उच्च शिक्षित बड़ा वेतन पैकेज पाने वाले व्यक्ति द्वारा क्वारंटाइन सेंटर भेजने के अधिकारियों के निर्णय का समर्थन करने पर अपनी मां को जोरदार थप्पड़ जड़ दिया गया। इस कहानी ने मुझे पूरी किताब एक ही बैठक में पढ़ने को विवश कर दिया। दरअसल इस कहानी से कुछ नये संदर्भ खुले कि ‘स्टेजिंग एरिया’ में कोरोना वायरस की चर्चा और उससे जुड़ी कहानियां न होकर कोरोना संकट से उपजे हालात में मानव के सामान्य व्यवहार एवं जीवन दृष्टि में हुए आमूलचूल परिवर्तन का अंकन है। इसमें मानव के कार्य-व्यवहार की परतों में दबी संवेदनाओं एवं प्रवृत्तियों के बदलाव की कथा है। इसमें करुणा, धैर्य, आत्मीयता के हरिशंकरी विटप कुंज की सुखद शीतल छांव है तो साहस, सहयोग, सहानुभूति, सहकार, शालीनता, सामंजस्य एवं समन्वय का सप्तवर्णी इंद्रधनुष भी। सेवा-साधना का निर्मल भाव है तो  तमाम चुनौतियों से जूझते मन में संकल्प की जाज्वल्यमान आग भी। ‘स्टेजिंग एरिया’ में कोरोनाजनित आसन्नसंकट के रूप में उपस्थित मृत्यु का भय एवं डर हर चेहरे पर खुली किताब सा चस्पा था जिसे कोई भी आसानी से पढ़ सकता था। वास्तव में ‘स्टेजिंग एरिया’ कोरोनाकाल का आधार लेकर रची-बुनी गई उन घटनाओं का एक दस्तावेज है जिसका लेखक स्वयं साक्षी रहा है। इसलिए कह सकते हैं कि स्टेजिंग एरिया मानवीय व्यवहार, कर्तव्य एवं संवेदनाओं का एक ऐसा कोलाज है जिसमें कोरानाकाल के वे सभी चित्र समाहित हैं जिनमें सेवा, सावधानी, सख्य, समता-समरसता के भाव प्रकट हुए हैं तो वहीं वे चित्र भी जगह पा सके हैं जिनमें अपने कर्तव्य पथ पर अविचल साधनारत कर्मचारियों के प्रति गुस्सा, व्यर्थ विवाद, दबाव बनाने की रणनीति, नियमोल्लंघन की मानसिकता एवं  आधारहीन तर्क शामिल हैं। पुस्तक पढ़ते हुए पाठक उस अनजानी दुनिया से रूबरू होता है जिसे उसने कभी देखा-सुना नहीं था। वह खोखले आदर्शों, नैतिकता के पूर्वग्रहों के टूटते शिखरों से परिचित होता है तो वहीं व्यक्तियों के दोहरे आचरण, झूठे बड़प्पन से भी। सामाजिक आत्मीय सम्बन्धों एवं रिश्ते-नातों की उस खोखली बुनियाद से परिचित होता है जहां अपने संकट में साथ छोड़ देते हैं और अनजाने अपरिचित लोग जिम्मेदारी के साथ छांव बन साथ खड़े हो जाते हैं। मैं तो ‘स्टेजिंग एरिया’ की कथाभूमि में रम गया और उसके प्रभाव में लंबे समय तक रहा। कह सकता हूं कि ‘स्टेजिंग एरिया’ कोरोना काल को लेकर एक बिल्कुल अलग एवं नवीन दृष्टि से किया गया लेखन है जो संकट के समय व्यक्ति के व्यवहार एवं सोच में हो रहे परिवर्तन को रेखांकित करता है। यह पुस्तक पढ़ी-सराही जायेगी।

तो अब मैं आपको काव्यांश प्रकाशन, ऋषिकेश से मार्च 2023 में प्रकाशित मितेश्वर आनंद लिखित ‘स्टेजिंग एरिया’ की कहानियों की ओर ले चलते हुए बानगी के तौर पर कुछ कहानियों की परख-पड़ताल करता हूं।

          स्टेजिंग एरिया में कुल 44 कहानियां हैं। रामनगर पीजी कालेज में बने स्टेजिंग एरिया के मेन गेट के पास खड़े तुड के पेड़ की शीतल छांव में बल्लियों एवं रस्सियों की बाड़ से फील्ड ऑफिस बनाने की कहानी दरअसल प्रकृति के सान्निध्य सुख एवं संरक्षण का संकेत करती है तो ‘गरिमामयी नेपाली दंपति’ व्यक्ति के शालीन व्यवहार की मिठास और महक पूरे सेंटर की हवा में घुल मानवीय व्यवहार के सात्विक पक्ष का दर्शन कराती है।‌ ओखलकांडा से रामनगर सेंटर पहुंचे भूखे-प्यासे, थके-हारे, बेहाल, निराश ‘वो बीस लोग’ एरिया से जाते समय स्नेह, कृतज्ञता, उम्मीद की चादर ओढ़ खुशी-खुशी सुरक्षित अपने घरों की ओर आशीषते हुए गाड़ियों में बैठ रहे हैं।

          रेड जोन मुरादाबाद से विवाह कर दुल्हन सहित वापसी पर नव विवाहित युगल को एक साथ क्वारंटाइन करना एक मर्म स्पर्शी कहानी है। क्या उन्होंने कभी सोचा होगा कि उनके वैवाहिक जीवन का आरंभ क्वारंटाइन सेंटर में एक साथ रहने से होगा। ‘पीपीई किट में निकाह’ भी इसी बुनियाद पर रची गयी है। ‘मैं खुद पर आग घाल दूंगी’ कहानी परिवारिक स्नेह, आत्मीयता एवं दायित्व के सीवन की बखिया उधेड़ देती है कि किस प्रकार एक मां दिल्ली से आई बेटी को नियमानुसार सेंटर पर नहीं बल्कि होम क्वारंटाइन करने की धमकी देते हुए स्वयं को आग लगा देने की बात कहती हैं और जब रैपिड टेस्ट में बेटी पाज़िटिव निकलती है तो उसका व्यवहार बिल्कुल बदल जाता है, वह सेंटर से गायब हो जाती है। बहुत खोजने-मिलने पर बेटी का सामान दूर से देकर फिर निकल जाती है। मैं इसे संग्रह की खास कहानी मानता हूं क्योंकि इससे जो सवाल उभरे हैं, वे कोरोना संकट समाप्त हो जाने के बाद भी जिंदा हैं और जिंदा रहेंगे कि कैसे स्वयं के जीवन पर संकट आता देख व्यक्ति का व्यवहार किस प्रकार बदल जाता है। दरअसल वह मां सेंटर में अपनी बेटी की यौन सुरक्षा को लेकर चिंतित थी लेकिन उसके पाज़िटिव आने पर उसे स्वयं के जीवन अस्तित्व पर संकट लगा। ऐसी ही कहानी ‘प्लीज हमें क्वारंटाइन कर दो’ है जिसमें गोवा से लौट रहे दो बेटों को मां फैसिलिटी सेंटर में दस दिन बिता देने के बाद निगेटिव रिपोर्ट लेकर आने पर ही घर में घुसने देने की बात कहती है। ‘नेकी कर, डांट खा’ भी उसी भावभूमि की है कि बेटे के दिल्ली से घर वापस आने पर खुश होने की बजाय पिता कहता है कि उसके लिए घर पर कोई जगह नहीं है।‌ विचार करें, उस बेटे के मन में अपने पिता के प्रति कैसा भाव बना होगा। एक अन्य मार्मिक कहानी ‘मुक्तिबोध : दादा, पिता, पुत्र’ जीवन की नश्वरता एवं क्षण भंगुरता का संदेश देती है कि कैसे सुशिक्षित सम्भ्रांत परिवार की तीन पीढ़ी कोरोना से संक्रमित हो तीन अलग जगहों में हैं। दादा की दिल्ली के अस्पताल में मृत्यु की खबर स्थानीय अस्पताल में आईसीयू वार्ड में भर्ती बेटे को मिलने पर आंखों से केवल विवशता के आंसू ही ढलकते हैं। काली प्लास्टिक में कैद शव की अंत्येष्टि नगर निगम द्वारा की जाती है। आखिर पिता-पुत्र बच जाते हैं पर अब उनकी दुनिया बदल चुकी होती है।‌ कोरोना का घाव उन्हें उम्रभर सालता रहेगा। ‘भैया मुझे बचा लो’ अंतिम समय तक संक्रमण को छिपाये रखने की मानसिकता बयां करती है तो ‘भय ही मौत, हिम्मत ही जिंदगी’ व्यक्ति के नकारात्मक और सकारात्मक सोच के प्रभाव और परिणाम की कथा है। ‘दिल्ली से लौटे दो दोस्त’ की विषयवस्तु रुला देती है कि कैसे वे दोनों छह साल पहले एक बैग लेकर दिल्ली गये, मेहनत से अपना रेस्टोरेंट खोले और कोरोना के कारण सब कुछ गंवाकर उसी एक बैग के साथ घर लौट आते हैं, टूटे मन और खाली हाथ। ‘रिस्क’ उस भावधारा में ले जाती है जब अंतिम उपाय केवल ‘रिस्क’ उठाना ही रह जाता है। पर यह ‘रिस्क’ कथा सुखांत होकर पाठक को खुशी देती है। पुस्तक में कुछ कहानियां हास्य की फुहार भी छोड़ती हैं। ड्यूटी आदेश में 6 बजे सुबह उपस्थित होने के स्पष्ट अंकन के बावजूद कर्मचारी द्वारा रात बारह बजे फोन कर पूछना कि ‘कल ड्यूटी पर कब आना है’ तथा ‘टंकी का ढक्कन’ को रखा जा सकता है जिसमें बंदर ढक्कन को गायब कर देता है और एक चिड़िया टंकी के पानी में तैरती होती है। उनियाल साहब का लंगर, फौज की भर्ती, दादा गया पर पोता न आया, हैदराबाद से आया हारुन, सितारा का सरदार, इधर उधर की सब-काम की बात कब आदि कहानियां भी पाठक की चिंतन दृष्टि को विस्तार देती हैं। इस लघु आलेख में सभी कहानियों की चर्चा करना सम्भव नहीं है, पर सभी कहानियां अपने कथ्य से पाठक को सम्मोहित कर पाने में समर्थ हैं।

प्रमोद दीक्षित मलय शिक्षक, बाँदा (उ.प्र.)
प्रमोद दीक्षित मलय शिक्षक, बाँदा (उ.प्र.)

         समीक्षा लेख का विराम मैं लेखक की बात से करता हूं। बकौल लेखक मितेश्वर आनंद, “स्टेजिंग एरिया सिर्फ कोविड  प्रबंधन का मैदान ही नहीं था बल्कि यह मानवीय संवेदना, व्यवहार और मनोविज्ञान का उर्वर मैदान भी बन चुका था। जिस तरह प्रवासियों को लेकर आने वाली बस स्टेजिंग एरिया के मैदान की धूल उड़ाती थी, उसी तरह यहां घटित होने वाली घटनाओं ने हमारे भीतर के मैदान पर पड़ी धूल उड़ाने में मदद की थी। एक प्रकार से स्टेजिंग एरिया हमारा शिक्षक बन चुका था जिसने हमें इंसानी व्यवहार के पीछे की व्यवस्थाओं के मनोविज्ञान को गहरे से समझने और एक बेहतर इंसान बनाने में सहायता की थी।” अंत में इतना कह सकता हूं की 134 पृष्ठों में समाई इन 44 कहानियों में जीवन की तमाम सच्चाईयों को सहेजे मन के अंतर्द्वंद्व जीवन संघर्ष के फलक पर उद्घाटित हुए हैं। पुस्तक की साफ-सुथरी छपाई बढ़िया चिकने हल्के पीले कागज पर हुई है।‌ वर्तनीगत त्रुटियां दिखीं नहीं। भाषा आमजन के परिवेश की है जो पाठक को जोड़ती है।‌ कहानी न होकर भी कथातत्व से ओतप्रोत हर विवरण मोहक बन पड़ा है। साहित्य जगत में ‘स्टेजिंग एरिया’ निश्चित रूप से न केवल अपनी पुख्ता पहचान स्थापित करेगी बल्कि पाठकों द्वारा लेखक की पूर्व बहु प्रशंसित कृति ‘हैंडल पैंडल’ की भांति समादृत होगी, ऐसा मेरा दृढ विश्वास है।

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